उर्दू शायरी में ‘चेहरा’ : 1

तरुण प्रकाश श्रीवास्तव, सीनियर एग्जीक्यूटिव एडीटर-ICN ग्रुप 

कितना ज़रूरी होता है हर एक के लिये एक अदद चेहरा यानी सूरत यानी शक्ल यानी रुख़। कभी- कभी सोचता हूँ कि अगर यह दुनिया ‘बेचेहरा’ होती तो क्या होता। इस बेचेहरा दुनिया में कौन किसको पहचानता और कौन किसको याद रखता। भला बिना पहचान की वह दुनिया कैसी होती।

कितनी दुर्घटनाएं होतीं, कितने हादसे होते। सवेरे कोई किसी के साथ होता तो शाम को किसी के साथ। सिलीब्रटीज़ के बड़े-बड़े पोस्टर्स में आखिर क्या दिखाया जाता? पुलिस भला किसकी रपट लिखती और किसको पकड़ती? रिंद किसकी आँखों के मयखाने में डुबकियाँ लगाते और शायर किसके लबों में ‘दो पंखुड़ी गुलाब की’ ढूंढते? शायद हम एक दूसरे की गंध से एक दूसरे को पहचानते लेकिन जहाँ लोग चेहरे बदलने में उस्ताद हो गये हैं वहाँ भला गंध की क्या बिसात। दिन में चमेली की खुश्बू लुटाने वाले रात में गुलाब में सराबोर होने से क्या भला गुरेज़ करते? हमारी भिन्नताओं और हमारे अलग-अलग व्यक्तित्व की सबसे बड़ी पहचान हमारा चेहरा ही है। हमारा चेहरा ही मनुष्य व जानवरों के बीच का सबसे बड़ा अंतर भी है। हर मनुष्य का अपना एक चेहरा है जो उसका नितांत अपना है जबकि हर जानवर का चेहरा लगभग एक जैसा है।

चेहरे में भी तमाम तिलिस्म छिपे हैं। किसी के पास चेहरों की भीड़ है तो कोई चेहरा भीड़ में भी अकेला है। कोई चेहरा किताब जैसा पढ़ा जा सकता है तो कोई ऐसा भी है जिसके भावों को समझने के लिये हज़ारों किताबों को पढ़ना पड़ता है। कोई चेहरा आपको अपने अंदर तक झाँकने की अनुमति देता है तो किसी का चेहरा दर्पण जैसा है जो सिर्फ़ आपका ही अक़्स आपके सामने पेश करता है।

चेहरों और सूरतों की यह दुनिया विचित्र है। कोई चेहरा सपनों में भी आकर डराता है तो किसी एक दूसरे चेहरे की एक झलक के लिये कोई ताकयामत इंतज़ार करने को तैयार है। इन्हीं चेहरों पर परी देश का सम्मोहक जादू तैरता है और इन्हीं पर किसी तांत्रिक का मरणसिद्ध तंत्र भी।

दुनिया की हर कहानी में कोई न कोई हसीन चेहरा है, कोई न कोई भयानक चेहरा है, कोई न कोई मुस्कराता हुआ चेहरा है और कोई न कोई रोता हुआ चेहरा है। सच है, चेहरों के बगैर कहानियाँ नहीं होतीं, चेहरों के बगैर सपने नहीं होते, चेहरों के बगैर ज़िंदगी नहीं होती और हाँ, ….. चेहरों के बिना शायरी भी नहीं होती। दुनिया का कोई भी साहित्य हो, वह चेहरों से भरपूर है। शेक्सपियर ने तो यहाँ तक कहा है कि ‘फ़ेस इज़ दि इंडेक्स ऑफ माइंड’ और इसी तरह उर्दू शायरी में शायर के तसव्वुर में जो चीज़ सबसे ज़्यादा ताजगी से भरी और सबसे चमकदार है वह है महबूब का चेहरा। आधुनिक शायरी में कहीं-कहीं यह चेहरा आम आदमी का चेहरा है, मासूमियत का चेहरा है, धूर्तता का चेहरा है, लालच का चेहरा है, मक्कारी का चेहरा है, क्रूरता का चेहरा है और बेबसी का चेहरा है।

उर्दू के हर छोटे-बड़े शायर ने अपने-अपने फ़न से इन चेहरों की पड़ताल की है और हर बार किसी चेहरे या सूरत के ज़रिये उन्होंने ख़यालों के बेमिसाल मंज़र सृजित किये हैं। कितना मज़ेदार और दिलचस्प होगा इन बेहतरीन शायरों की शायरी में तमाम चेहरों से बातें करना और उन्हें परखना। चलिये, इस बार हम-आप उर्दू शायरी के इस नये सफ़र में ढेर सारे चेहरों से मुलाकात करते है, ढेर सारी सूरतों को निहारते हैं और उन्हें दिल में बसाने की कोशिश करते हैं।

और हाँ, एक और बात को समझना बहुत ज़रूरी है कि जब ढेर सारे शायर हों तो उन्हें एक क्रम तो देना ही पड़ता है। किसी शायर की वरिष्ठता अथवा श्रेष्ठता तय करने की न तो मुझमें योग्यता ही है और न ही कभी मैंने इसका प्रयास ही किया है। मुझे तो सारे शायर दिल से पसंद हैं और मेरे लिये गुलाब और रातरानी, दोनों की खुश्बू दिल को सुकूं पहुँचाने वाली हैं। मैंने मात्र अपनी व पाठकों की सुविधा की दृष्टि से शायरों का क्रम उनकी जन्मतिथि के आधार पर रखने का प्रयास किया है। ये सूचनायें भी मैंने उपलब्ध पुस्तकों व सूचना के अन्य स्रोतों जैसे इंटरनेट पर उपलब्ध विवरण से प्राप्त की हैं इसलिये यदि सूचनाओं का कोई विवरण अथवा उसका कोई अंश गलत है तो मैं उसके लिये आपसे प्रारंभ में ही क्षमाप्रार्थी हूँ और आपसे निवेदन है कि यदि आपके पास प्रमाणिक सत्य सूचना है तो कृपया मुझसे अवश्य शेयर करें ताकि ऐसी त्रुटि का सुधार किया जा सके। कुछ पुराने शायरों व अनेक नये शायरों की जन्मतिथि उपलब्ध न होने के कारण उन्हें क्रम में समुचित स्थान मैंने स्वयं ही दिया है जिसका आधार मेरी अपनी सुविधा मात्र है। सत्यता यह है कि मेरी स्पष्ट धारणा हेै कि प्रत्येक शायर व फ़नकार स्वयं में अनूठा है और उस जैसा कोई दूसरा हो ही नहीं सकता।

तो शुरु करते हैं, ‘उर्दू शायरी में चेहरा’ का एक नया सफ़र।

अब्दुल हई ‘ताबाँ’ का जन्म वर्ष 1715 में व मृत्यु वर्ष 1749 में दिल्ली में हुई। वे अपनी शायरी के साथ अपनी सुंदरता के लिये भी प्रसिद्ध थे। ‘दीवान-ए-ताबाँ’ उनका दीवान है। सूरत यानी चेहरे पर उनका यह अशआर देखिये –

“मलूँ हों ख़ाक जूँ आईना मुँह पर,
तिरी सूरत मुझे आती है जब याद।”

वर्ष 1735 मे दिल्ली में पैदा होने वाले ‘नज़ीर’ अकबराबादी का मूल नाम शेख़ वली मुहम्मद था। उनका निधन निधन 16 अगस्त, 1830 को आगरा में हुआ। नज़ीर अकबराबादी वास्तव में बेनज़ीर शायर हैं। वे बुनियादी तौर पर नज़्म के शायर थे और दरबारी होने से गुरेज़ करने वाले अलमस्त और कलंदर शायर थे। जो दिल को भाया, उसे शायरी का हुस्न अता कर दिया। नज़ीर कई ज़बानें जानते थे। उन्होंने अपना कलाम एकत्र नहीं किया। उनके देहांत के बाद बिलास राय के बेटों व उनके शागिर्दों ने विविध लेखन को एकत्र कर के पहली बार कुल्लियात-ए-नज़ीर अकबराबादी के नाम से शाया किया जिसका प्रकाशन वर्ष का कोई अनुमान नहीं है। महबूब के चेहरे से शानदार भला कौन सी किताब हो सकती है –

“भुला दीं हम ने किताबें कि उस परी-रू के,
किताबी चेहरे के आगे किताब है क्या चीज़।”

इमाम बख़्श नासिख़ का जन्म 10 अगस्त, 1772 व मृत्यु 15 अगस्त, 1838 में हुई। नासिख़ ग़ालिब के समकालीन थे और शायरी में लखनऊ स्कूल के संस्थापकों में से एक थे। उनकी शायरी दिल्ली स्कूल से अलग एक अपना निजी तेवर रखती थी जो लखनवी तेवर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। ‘दीवान-ए-नासिख़’ उनका दीवान है तथा उनकी रचनाओं का समग्र ‘कुल्लियात-ए-नासिख़’ के नाम से प्रकाशित है। ‘सूरत’ पर उनका यह मशहूर अशआर देखिये –

“तेरी सूरत से किसी की नहीं मिलती सूरत,
हम जहाँ में तिरी तस्वीर लिए फिरते हैं।”

हैदर अली आतिश का जन्म वर्ष 1778 में लखनऊ में हुआ और वर्ष 1847 में उनकी मृत्यु हो गयी। वे मिर्ज़ा ग़ालिब के समकालीन थे और 19वीं सदी की उर्दू ग़ज़लगो में वे प्रमुख थे। उनका एक बहुत मशहूर शेर ‘बड़ा शोर सुनते थे पहलू में दिल का, जो चीरा तो इक क़तरा-ए-ख़ूँ न निकला’ आज भी लोगों की ज़ुबान पर चढ़ा हुआ है। जो खुदा चाँद सी सूरत देता है, मोहब्बत  देने वाला भी तो वही है। देखिये, सूरत पर उनके ये अशआर –

“ऐ सनम जिस ने तुझे चाँद सी सूरत दी है ।
उसी अल्लाह ने मुझ को भी मोहब्बत दी है॥”

और एक शेर यह भी –

“अजब तेरी है ऐ महबूब सूरत।
नज़र से गिर गए सब ख़ूबसूरत॥”

‘रिंद’ लखनवी का असली नाम सय्यद मोहम्मद ख़ाँ था। उनका जन्म 03 सितम्बर, 1797 को फ़ैज़ाबाद, उत्तर प्रदेश में हुआ तथा उनका निधन 1857 में मुबंई, महाराष्ट्र में हुआ। उनका अवध के नवाबों से पारिवारिक संबंध था। नवाब शुजाउद्दौला की बेगम, बहू बेगम, की निगरानी में फ़ैज़ाबाद में उनकी परवरिश हुई। वे मीर ‘अनीस’ के पिता मीर मुस्तहसन ‘ख़लीक़’ के शागिर्द थे। कालातंर में वे लखनऊ में बस गए और ‘आतिश’ को उस्ताद बनाया। ‘दीवान-ए-रिंद’ व ‘इंतख़ाब-ए-सुखन’ उनके दीवान हैं। चाँद भी कितना ज़ालिम है, देखिये तो भला –

“चाँदनी रातों में चिल्लाता फिरा,
चाँद सी जिस ने वो सूरत देख ली।”

मिर्ज़ा ग़ालिब का उर्दू  शायरी में नींव के पत्थर की हैसियत है। उर्दू साहित्य का कोई भी शायर अपनी शायरी को ग़ालिब के फीते से ही नापता है। मिर्ज़ा ग़ालिब की शायरी में गहराई के साथ इतनी ऊँचाई भी है कि वे कई अर्थों में उर्दू शायरी के पर्याय बन गये हैं। उनका जन्म आगरा में 12 दिसंबर, 1797 में हुआ था और उनकी मृत्यु 15 फरवरी, 1869 को दिल्ली में हुई।  उनका असली नाम मिर्ज़ा असदुल्लाह खान बेग था। वे आखिरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के समकालीन थे और खुद उर्दू साहित्य में शायरी के बेताज बादशाह थे। ‘दीवान-ए-ग़ालिब’ उनका ही नहीं बल्कि उर्दू शायरी का भी सबसे मशहूर दीवान है। रुख़ अर्थात् ‘चेहरे’ पर उनका यह खूबसूरत शेर देखिये –

“क्यूँ जल गया न ताब-ए-रुख़-ए-यार देख कर।
जलता हूँ अपनी ताक़त-ए-दीदार देख कर ॥”

मिर्ज़ा ग़ालिब का चेहरे पर एक और शानदार शेर आपकी नज़र –

“इक नौबहार नाज़ को ताके है फिर निगाह,
चेहरा फ़रोग-ए-मय से गुलिस्ताँ किये हुये।”

‘फ़रोग-ए-मय’ अर्थात् ‘शराब का तारी होना’।

सय्यद अकबर हुसैन रिज़वी यानी ‘अकबर इलाहाबादी’ का जन्म इलाहाबाद में 16 नवंबर, 1846 को हुआ था। वे उर्दू  साहित्य में हास्य व्यंग्य के सबसे बड़े शायर माने जाते हैं। वे इलाहाबाद में सेशन जज थे। उनकी मृत्यु 09 सितंबर, 1921 को हुई। ‘हंगामा है क्यों बरपा, थोड़ी सी जो पी ली है’ उनकी मशहूर ग़ज़ल है। ‘दीवान-ए-अकबर’ व ‘रूह-ए-अकबर’ उनकी प्रसिद्ध पुस्तकें हैं। चेहरे की मासूमियत पर यह शेर न केवल बड़ा ही है बल्कि अपनी मिसाल खुद ही है –

“तश्बीह तिरे चेहरे को क्या दूँ गुल-ए-तर से,
होता है शगुफ़्ता मगर इतना नहीं होता।”

‘तश्बीह’ का अर्थ है- ‘उपमा’ एवं ‘शगुफ़्ता’ का अर्थ है – ‘खिला हुआ’।

जलील मानिकपूरी का जन्म वर्ष 1866 में हुआ और वर्ष 1946 में उनका निधन हो गया। वे उत्तर क्लासिक शायरों में सबसे प्रमुख व लोकप्रिय थे। वे उस्ताद शायर अमीर मीनाई के शागिर्द थे और दाग़ देहलवी के बाद वे हैदराबाद के राजकवि भी नियुक्त हुये। ‘क़ासिद-ओ-क़तात’ उनकी मशहूर पुस्तक है। जलील मानिकपुरी की शायरी खुद ब खुद बोलती है और बड़ी सरलता से उनके लफ़्ज़ों से मायने निकल कर दिल-ओ-दिमाग़ तक पहु़ँचते हैं। सूरत के भी क्या क्या रंग हैं उनकी शायरी में –

“उन की सूरत देख ली ख़ुश हो गए,
उन की सीरत से हमें क्या काम है।”

और यह शेर भी –

“तू ने सूरत न दिखाई तो ये सूरत होगी,
लोग देखेंगे तमाशा तिरे दीवाने का।”

आग़ा शाएर क़ज़लबाश का असली नाम आग़ा ज़फ़र बेग क़ज़लबाश था जिनका जन्म 05 मार्च, 1871 को दिल्ली में हुआ था तथा उनकी मृत्यु 12 मार्च, 1940 को दिल्ली में ही हुई। वे उत्तर क्लासिक युग के महत्वपूर्ण शायर व दाग़ देहलवी के शागिर्द एवं बर्क़ देहलवी के उस्ताद थे। ‘पर-ए-परवाज़’, ‘निगारिस्तान’, ‘पहले ज़माने की दिल्ली’ एवं ‘शोला-ए-जव्वाला’, ‘तीर-ओ-नश्तर’ उनकी महत्वपूर्ण पुस्तकें हैं। चेहरे पर उनका यह शेर देखिये –

“बड़े सीधे-साधे बड़े भोले-भाले,
कोई देखे इस वक़्त चेहरा तुम्हारा।”

‘अज़ीज़’ लखनवी का वास्तविक नाम मिर्ज़ा मोहम्मद हादी था। उनका जन्म 14 मार्च, 1882 को लखनऊ में हुआ और उनकी मृत्यु लखनऊ में ही 30 जुलाई, 1935 को हुआ। उनकी गिनती उनके ज़माने के उर्दू  व फ़ारसी के बड़े विद्वानों में शुमार किया जाता है। अज़ीज़ ने विभिन्न विधाओं में रचना की। ग़ज़ल के अलावा नज़्म और क़सीदा उनके सृजनात्मक अभिव्यक्ति की महत्वपूर्ण विधाएं हैं। क़सीदे में वह एक विशेष पहचान रखते हैं। शिकोह-ए-अल्फ़ाज़, उलू तख़ैय्युल उनके क़सीदे की विशेषताएं हैं। वे शायरी में साक़ी लखनवी के शार्गिद थे और जगत मोहन लाल रवाँ, असर लखनवी एवं जोश मलीहाबादी जैसे नामचीन शायर उनके शागिर्द थे। सूरत यानी चेहरे पर उनका यह खूबसूरत अशआर देखिये –

“आईना छोड़ के देखा किए सूरत मेरी,
दिल-ए-मुज़्तर ने मिरे उन को सँवरने न दिया।”

आलमगीर ख़ान कैफ़ के विषय में उर्दू साहित्य के इतिहास में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। तमाम कोशिशों के बावजूद मुझे अभी तक उनका कालखंड, उनकी जन्मतिथि एवं उनकी शायरी के बारे में बहुत अधिक मालूमात नहीं हो सकी है लेकिन उनका एक अशआर उनकी अपनी अलग ही पहचान बनाता है और उर्दू शायरी से इश्क करने वालों में शायद ही कोई हो जो चेहरे/सूरत पर उनके इस लाजवाब अशआर से परिचित न हो –

“अच्छी सूरत भी क्या बुरी शय है,
जिस ने डाली बुरी नज़र डाली।”

क्रमशः

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