छत्रपति शिवाजी का राजनैतिक दर्शन

प्रो. प्रदीप कुमार माथुर
पिछले दिनों में धर्मान्धता की आंधी ने हमारा चिन्तन ही मानो कुठित कर दिया है। अपने इतिहास को समझने में हम विश्लेषण और अध्ययन के स्थान पर पूर्वाग्रहों का सहारा लेने लगे हैं। जहां एक और महाराणा प्रताप, गुरु तेग बहादुर और शिवाजी को भारतीय एकता का विरोधी बताया जा रहा है वहीं दूसरी ओर मुस्लिम शासकों को हिन्दु विरोधी कहा जा रहा है।
सत्य यह है कि हम अंग्रेजों द्वारा पैदा किए गए मिथ्या भ्रमों के शिकार होते जा रहे हैं। यह विडम्बना ही कही जायेगी कि उनके द्वारा रोपित पूर्वाग्रह आज हमको कहीं ज्यादा अपील कर रहे हैं। छत्रपति शिवाजी एक ऐसे ही पूर्वाग्रह की मिसाल है। उनको हिन्दू, हिन्दू राष्ट्र का प्रथम निर्माता मानते हैं तथा मुस्लिम मुगल साम्राज्य का विनाश करने वाला। सत्य यह है कि शिवाजी न धर्मान्ध हिन्दूत्ववादी थे और न मुस्लिम विरोधी। औरंगजेब के पुत्र मुअज्जम से उनकी अच्छी मित्रता थी। उनको दबाने का सफल प्रयास किसी मुस्लिम सामंत या सेनापति द्वारा न होकर राजा जयसिंह द्वारा किया गया। साथ ही शिवाजी का सबसे प्रबल बैरी जवाली का हिन्दू मोर राजवंश था। धर्म का प्रयोग उन्होंने राजनीति के लिये अवश्य किया लेकिन धर्म को अपनी राजनीति का केन्द्र बिन्दु नहीं बनाया।
शिवाजी ने किसी वर्ग के विरुद्ध तलवार नहीं उठाई-वे तो अन्याय व अत्याचार के विरुद्ध थे। सर्वप्रथम इसकी पुष्टि होती है औरंगजेब को भेजे गए पत्र से। जजिया कर के विरोध में भेजे गये इस पत्र में उन्होंने शोषण के विरुद्ध जो आवाज उठाई थी वह केवल हिन्दुओं तक ही सीमित नहीं थी। वास्तव में इस पत्र से उनकी राष्ट्रीय चेतना, लोक स्वातंत्रय भावना व आर्थिक दासता से मुक्ति की इच्छा के भी दर्शन होते हैं।  पत्र इस प्रकार था : “हाल में मेरे कानों में यह बात पड़ी है कि मेरे साथ युद्ध में अपनी संपत्ति व खजाना खाली हो जाने से आपने आज्ञा दी है कि जजिया के नाम पर धन इकट्ठा किया जाये व साम्राज्य की आवश्यकताओं की पूर्ति की जाये। कदाचित आप जलालुद्दीन अकबर बादशाह के साम्राज्य को प्रसन्तापूर्वक स्मरण में रखे होंगे। जिन्होंने पूरे 52 साल शासन किया था।
अकबर ने विभिन्न वर्गों जैसे ईसाइ, यहूदी, दादूपंथी, आकाशपूजक (कलकिया) मलाकिया, भौतिकवादी (अंसारिया), नास्तिक (दहारिया), ब्राह्मण और जैन सभी के सम्बन्ध में एक समान नीति (सुल्ह-ई-कुल) अपनाई थी। उनकी उदार हृदयता का लक्ष्य समस्त जनता का पालन-पोषण व रक्षण था। अत: वह जगत गुरु के नाम से विख्यात हो गये थे।उनके बाद बादशाह नुरूद्दीन जहांगीर ने 22 वर्ष तक शासन किया व पित्रों को अपना हृदय व कार्य को अपना हाथ सौंप दिया और अपनी महत्वाकांक्षाओं में सफलता प्राप्त की। बादशाह शाहजहां ने 32 वर्ष शासन किया व अमर जीवन के फल पाये। उनका जीवन भलाई व सुयश का प्रतीक था। उन्होंने धरती पर सुखी जीवन व्यतीत किया…पर आप? इन सब बादशाहों को भी जजिया लगाने की शक्ति थी पर उन्होंने अपने हृदय में ऐसी हठधर्मी को कभी स्थान नहीं दिया। उनकी राय में ऊंच-नीच, छोटे-बड़े सभी ईश्वर की रचना है और वे विभिन धर्मों और स्वभावों के अस्तित्व के जीवित उदाहरण हैं।
….पर आपके साम्राज्य में क्या है? …आपके किसान पददलित हैं, हर गांव की पैदावार गिर गई है, सेना क्षुब्ध है, व्यापारी शिकायत करते हैं, मुस्लिम रोते हैं, हिन्दू सताये जाते हैं। ऐसी स्थिति में आप जजिया लगाकर कठिनाइयां और बढ़ाना चाहते हैं? इससे पश्चिम से पूर्व तक शीघ्र आपकी बदनामी भुवन भर में फैल जायेगी व इतिहास की पुस्तकों में लिखा जायेगा कि हिन्दुस्तान का बादशाह भिखारियों के भिक्षा पात्रों को भी छीनने को आतुर रहा, वह ब्राह्मणों व जैन साधुओं, योगी, सन्यासी, बैरागी, कंगले, याचक, हतभागे, व अकाल पीड़ितों से जजिया वसूल करता था।
संभव है कि आप इससे प्रसन्न ही हों। पर यदि आप कुरान में विश्वास रखते हो तो पायेंगे कि खुदा सबका मालिक (रब्बल-अल-अमीन) है न कि केवल मुसलमानों का (रब्बल-अल-मुसलमा)।”
शिवाजी का यह पत्र प्रारम्भ से अन्त तक घोषणा करता है कि समस्त प्रजा एक ईश्वर की सन्तान है। वे न केवल हिन्दुओं बल्कि गरीब मुसलमानों के लिये भी दुखी थे। वे तो किसी के भी विरूद्ध आर्थिक, राजनैतिक या धार्मिक किसी भी प्रकार के शोषण के विरोधी थे।वे अलाउद्दीन खिलजी या तैमूर के हिन्दू स्वरूप नहीं थे। उनकी मुल्कगीरी प्रथा इन मुस्लिम विजयों से भिन्न थी। हर धर्म को वे एक निगाह से देखते थे। यदि उनकी इस नीति में कोई बाधा पहुंचाता तो हिन्दू होते हुए भी वे उसको दंडित करते। वे सर्वप्रथम जनता की सुख शान्ति के इच्छुक थे। वे एक स्वतंत्र, शांत व सुखी राज्य चाहते थे। इसीलिये जहां वे औरंगजेब या बीजापुर के सुल्तान से लड़े, वहां स्वतंत्रता युद्ध में बाधा डालने वाले चन्द्रराव मोरे जैसो से भी लड़े।
जहां तक उनकी धार्मिक सहिष्णुता का प्रश्न है, वह अपूर्व थी। शिवाजी ने अपने आक्रमणों के दौरान सभी धार्मिक स्थानों का आदर किया व हिन्दू मंदिरों, मुस्लिम सन्तों के मकबरों और मस्जिदों आदि सभी को दान दिये, न केवल ब्राह्मण को पैंशने दी बल्कि इस्लाम मत को मानने वालों की भी परवरिश की, उदाहरणार्थ कैलोशी के बाबा याकूत की निजी तौर पर मदद की। वैदिक अध्ययन का पुनरूद्धार किया जो ब्राह्मण एक वेद में पारंगत होता, उसे एक मन चावल भेंट मिलता, दो वेदों वाले को दो मन व इसी तरह तीन या चारी वेदों का अध्ययन करने वालों को सुविधा थी। हर वर्ष पंडित श्रावण के महीने में छात्रों की परीक्षा लेते व उनके अध्ययन की प्रगति के अनुसार उनकी वृत्ति में कमी ज्यादती करते। विदेशी विद्वानों को वस्तुओं में व स्थानीय देशी विद्वानों को खाद्यान्नों के रूप में भेंट दी जाती थी। प्रख्यात विद्वानों को बुलाया जाता व उन्हें सम्मानित किया जाता और धन से पुरस्कृत किया जाता।
एक कट्टर हिन्दू होते हुए भी उन्होंने अपने राज्य में अनेकों मुस्लिमों को नौकरियां दे रखी थीं। यहां तक कि कुछ अत्यन्त ऊंचे स्थानों पर भी थे। मुंशी हैदर को उन्होंने न्याय विभाग में उच्च पद दे रखा था। वह बाद में औरंगजेब की नौकरी में जाकर मुगल साम्राज्य का मुख्य न्यायाधीश बनाया गया था। इसी विद्दी सम्बल, सिद्दीमिरी व दौलत खां आदि एडमिरल थे। उनके अलावा सिद्द्वी हलाल व नूरखा आदि कमांडर थे। मुस्लिम काजियों को उनके शासन में समुचित स्थान प्राप्त था। शिवाजी का आदर्श एक स्वतंत्र सुखी व राष्ट्रीय राज्य की स्थापना था। उनका जीवन इसी आदर्श का प्रतिबिम्ब है। #
(The author, a veteran journalist and a former Professor at IIMC, New Delhi, is Editor of Media map, a monthly thought journal on current affairs & Sr. Consulting Editor-ICN Group)

Share and Enjoy !

Shares

Related posts