कोरोना वायरस : सन्नाटे में साँस-1

तरुण प्रकाश श्रीवास्तव, सीनियर एग्जीक्यूटिव एडीटर-ICN ग्रुप

आज संपूर्ण विश्व में शोले फिल्म के इमाम साहब व वृद्ध बाप का रोल अदा करने वाले वरिष्ठ कलाकार ए.के.हंगल का एक डायलॉग ही गूँजता सुनाई पड़ रहा है, “अरे भाई! इतना सन्नाटा क्यों है?”

सच है, मृत्यु के भय से दुबका हुआ मानव पूरे विश्व में आज अपने घरों में कैद होकर एक ऐसी वैश्विक तस्वीर का हिस्सा बना हुआ है जिसकी भौतिक विकास की अंधी दौड़ में हवा से होड़ लगाते विश्व के कैनवास पर उपस्थिति अंसभव प्रतीत होती थी। “जीवन चलने का नाम”, “आई हैव टू गो माइल्स बिफोर आई स्लीप” व “नदिया चले चले रे धारा, चंदा चले चले रे तारा, तुझको चलना होगा” जैसे कालजयी नारों, कविताओं व गीतों के तो जैसे अर्थ ही बदल गये हैं क्योंकि समय का यह कालखण्ड चीख-चीख कर कह रहा है कि “जीवन चलने का नहीं, थम जाने का नाम है।”

बड़ा ही विचित्र है ‘जीवन’ किंतु उससे भी अधिक विचित्र हैं ‘हम स्वयं’ जो बार-बार जीवन के लिये अपनी ही रचित परिभाषा बदल देते हैं। सत्य है, ‘जीवन के चलने से लेकर जीवन के अचानक थम जाने’ के मध्य सिर्फ़ एक ही कहानी है और वह कहानी हमारी विकृत मानसिकता की, मानव से महामानव बनने की आत्मघाती महत्वाकांक्षा की व प्रकृति की ‘प्रकृति’ न समझ पाने की भयानक भूल की कहानी है जो मानव इतिहास का एक अत्यंत ही काला व घृणित पृष्ठ है। शायद यह कुछ ऐसा ही है जैसे हमने फुटबाल के मैदान में शीघ्रता से जीत जाने की व्यग्रता में अपने ही पाले में आत्मघाती गोल दाग दिया।

हम शोर-शराबे व कोलाहल के अभ्यस्त हैं। सामाजिक विज्ञानी हमें ‘सामाजिक पशु’ कहते हैं किंतु दुनिया के प्रत्येक बड़े शहरों में घरों में कैद मनुष्य और सड़कों व पार्कों में खुले आम विचरते जंगली पशु-पछी के अचंभित कर देने वाले दृश्य हमारी हर पुरातन स्थापित मान्यता को सिरे से खारिज कर रहे हैं। हम पहले गलत थे या अब गलत हैं, यह अनुमान लगाना मुश्किल है किंतु इतना निश्चित हेै कि मानव निर्मित एक वायरस ‘कोरोना’ ने हमें घर में कैद होकर “कुछ भी करो ना’ की स्थिति तक पहुंचा दिया है। क्या आपको नहीं लगता कि हम जीते जी हॉलीवुड की किसी फैंटेसी फिल्म के किरदार बन गये हैं जहाँ कोरोना वायरस एक खलनायक की तरह मृत्यु बरसाता हुआ सड़कों पर दनदनाता हुआ पैर पटकता घूम रहा हेै और हम अपने-अपने घरों में कैद हो सन्नाटे में साँस लेने के लिये बाध्य हैं? और तो और, हम तो ढंग से साँस भी नहीं ले सकते क्योंकि कोरोना नाक के माध्यम से भी तो हमला करता है।

चीन के वुहान शहर से निकला कोरोना आज सारे विश्व में कदम ताल कर रहा है और अजेय सा प्रतीत होता यह मानव निर्मित वायरस विश्व के बड़े से बड़े देश को भी घुटने टेकने को विवश कर रहा है। शायद आज कल मृत्यु की ऋतु आई हुई है और विश्व निर्माण के नाम पर मात्र नये कब्रिस्तान बनाने में ही व्यस्त है।

शहरों, गाँवों, सड़कों, बाजा़रों, कार्यालयों, विद्यालयों व कारखानों में सन्नाटों का कब्जा है। शायद इससे पहले हमने अपनी ही साँसों की आवाज़ कभी नहीं सुनी क्योंकि वह केवल ऐसे ही पसरे हुये ख़ौफ़नाक सन्नाटे में ही सुनी जा सकती हेै। मेरे स्मृति शेष मित्र भाई निर्मलेंदु शुक्ल ने शायद ऐसी ही किसी परिस्थिति की कल्पना की थी जब उन्होंने अपने एक गीत का मुखड़ा कुछ ऐसे रचा था :

मौन इस तरह मुखरित होने को आतुर हेै,

  सन्नाटा पल छिन पल,

  सांय सांय कहता है।”

आज हम सब अपने-अपने घरों में कैद हैं और टेलीविजन व अन्य माध्यमों से अपने वर्तमान को परख रहे हैं। मोबाईल व इंटरनेट जैसी सुविधाओं की यदि खोज न हुई होती तो शायद यह पता ही नहीं चल पाता कि कौन अपने घर में है, कौन हास्पिटल में और कौन कब्रिस्तान में। हम अपनी चिंताओं व दुश्चिंताओं के मध्य कभी समय के एक किनारे से टकराते हेैं तो कभी दूसरे।

सभी संस्थानों व कार्यस्थलों की भाँति हमारी लॉ फर्म भी इस लॉक डाउन में बंद हेै और हम सब मात्र व्हाट्सऐप के माध्यम से एक-दूसरे को अपने-अपने जीवन का प्रमाणपत्र प्रेषित कर रहे हैं। हमारे निबंधन विभाग के सहयोगी अजय सिंह उत्तर प्रदेश के गोंडा जनपद के निवासी हैं और अपनी आजीविका के चलते अपनी पत्नी के साथ लखनऊ में रह रहे हैं। वे व्यथित हैं उनके लिये जो अपने-अपने परिवारों से दूर रोज़ी-रोटी कमाने के लिये अपने-अपने परिवार, ग्राम व शहरों से मीलों दूर कोरोना के भय का शिकार बने, बिना भोजन व अन्य आवश्यक सुविधाओं के एक गुमनाम इकाई की तरह बिना रोज़गार व पैसे के समय काट रहे हैं और दुखी हैं। मैं तो इतना ही कहुँगा कि प्रिय अजय सिंह, संकट का समय हमें यह बताता है कि हमने विगत में क्या गलतियाँ कीं और हर कारण का एक परिणाम होता है और ऐसे सभी व्यक्तियों की वर्तमान परिस्थितियों के पीछे उनकी एकमात्र गलती ‘धन के विज्ञान’ का गलत अर्थ निकालना है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी आवश्यक आवश्यकताओं से अधिक धन अर्जित करता है क्योंकि यदि वह जीवित रहने के लिये अपनी आवश्यक आवश्यकताओं से कम धन अर्जित करता तो वह कब का मर चुका होता। ‘रोज़ कमाना रोज़ खाना’ उक्ति आपकी आवश्यकताओं को इंगित नहीं करती वरन् आपके लिये उपलब्ध धन के अर्जन का पैटर्न समझाती है। यह केवल यह बताती है कि आपकी आमदनी का समय चक्र मासिक अथवा साप्ताहिक न होकर दैनिक है। सदैव यह आवश्यक है कि आज हमने अपने ज़िंदा रहने की अनिवार्यता के पश्चात जो भी अतिरिक्त धन अर्जित किया है, उसका एक निश्चित प्रतिशत आने वाले कल के संकट से भली भाँति निपटने के लिये सुरक्षित कर लें किंतु वे ऐसा कभी नहीं करते और अपने अतिरिक्त धन को या तो पूरी निर्दयता से अपव्यय कर देते हैं अथवा जब तक अतिरिक्त धन समाप्त नहीं हो जाता, वे कार्य पर जाना ही बंद कर देते हैं। ऐसे लोगों के बाहरी सुधारीकरण की नहीं बल्कि उनके आंतरिक सुधार की आवश्यकता है। यद्यपि मुझे ऐसे सभी भाई बहनों के लिये दुख है किंतु मैं समझता हूँ कि केंद्रीय व प्रादेशिक सरकारी तंत्रों व सामाजिक संस्थाओं के माध्यम से यह सुनिश्चित किया जा रहा है कि कोई भी व्यक्ति भूखा न रहे। तुम्हारा भी दायित्व है कि संकट काल के व्यतीत हो जाने पर उन्हें ‘धन के विज्ञान’ के उपरोक्त सूत्र से अवश्य परिचित कराओ और उनमें आत्मनिर्भरता उत्पन्न करो।

हमारे लिटिगेशन विभाग के सदस्य एडवोकेट नीरज श्रीवास्तव न केवल एक अत्यंत संवेदनशील व्यक्ति हेैं बल्कि लेखक व कवि भी हैं। आजकल उन्होंने समस्त आवश्यक सूचनाएं हम सबको उपलब्ध कराने का कार्यभार संभाला है और बड़े ही मनोयोग से वे इस कार्य को संपादित कर रहे हैं। उन्होंने कोरोना वायरस के इतिहास पर लगभग शोध ही कर डाला। उन्हीं के शब्दों में,”चीन देश के एक वुहान शहर से एक विषाणु जनित बीमारी जिसे विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कोरोना वायरस डिजीज़-19 (covid-19) नाम दिया है यह विषाणु जनित बीमारी माह दिसम्बर, वर्ष 2019 में चीन के वुहान शहर से आरम्भ हुई। इस बीमारी ने माह मार्च, 2020 तक विश्व के लगभग 200 से अधिक देशों में महामारी का रूप ले लिया। इससे दुनिया के बड़े बड़े विकसित देश इटली, ब्रिटेन, आस्ट्रेलियी, स्पेन, फ्रांस आदि देश भी नही बच पाये है यहाँ तक कि दुनिया का सबसे शक्तिशाली देश अमेरिका ने भी इस विषाणु जनित बीमारी के आगे अपने घुटने टेक दिये है। मानव जिसने अपने अहम् विज्ञान के बलबूते आज के समय धरती, आकाश और अन्तरिक्ष में हर जगह अपनी विजय फताकायें फहरायी है वो अत्यन्त बुद्धिमान मनुष्य इस अत्यन्त सूक्ष्म विषाणु के आगे अत्यन्त असहाय सा हो गया है। आज के समय दुनिया के बड़े बड़े वैज्ञानिक इसकी वैक्सीन बनाने में लगे है लेकिन अभी तक उन्हें कोई सफलता नही मिली है। यह विषाणु जनित बीमारी मानव से मानव में फैलती है यदि कोई संक्रमित मनुष्य के सम्पर्क में अन्य व्यक्ति आता है तो यह विषाणु जनित बीमारी उसको हो जाती है इसमें संक्रमित मनुष्य के मुँह से निकली बूँदे या कण जिस सतह पर गिरती है उसके सम्पर्क में आने से यह मनुष्य में फैलती है। इसकी अभी तक कोई दवाई नही बनी है और न इसका कोई इलाज है। इससे बचने का केवल यही उपाय है कि सामाजिक दूरी बनाई जाय सभी मनुष्यों को अपने घर में रहना चाहिए और कोई भी बाहर न निकले इसी फार्मूले को सभी देश अपना रहे है। हमारा भारत देश भी इस ओर काफी सजग है। हमारी भारत सरकार ने अपने नागरिकों के लिए अत्यन्त हितकारी और जरूरी फैसले लिए है। इसी कारण भारत देश जैसे अत्यधिक जनसंख्या वाले देश में स्थिति लगभग और देशों की तुलना में काफी नियन्त्रित है। भारत देश न केवल अपने नागरिकों का ध्यान रख रहा है इसके अतिरिक्त अन्य विकसित और विकासशील देशों जैसे अमेरिका, ब्राजील, श्री लंका आदि की भी मदद अपनी दवाई hydroxychloroquine भेजकर कर रहा है। आज दुनिया में लगभग सम्पूर्ण मानव असहाय और बेबस सा हो गया है। हर व्यक्ति अपने घर में कैद सा महसूस कर रहा है। जीवन एकदम रूक सा गया है। ऐसे में मनुष्य में निराशा उत्पन्न होना स्वाभाविक है किन्तु हम सभी को इस संघर्ष को दृढ़ता और इस विश्वास के साथ करना है कि एक दिन ये निराशारूपी बादल अवश्य हटेंगे और जीवनरूपी सूर्य का उदय अवश्य होगा जिससे चारों ओर जीवनमयी प्रकाश फैल जायेगा….”

तुम्हारा बहुत-बहुत धन्यवाद प्रिय नीरज इतनी अच्छी और सटीक जानकारी के लिये। हम सब सदैव तुमसे कुछ न कुछ सीखते रहते हेैं।

क्रमशः ….

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