कोरोना वायरस : त्रासदी में शगुन-1

तरुण प्रकाश श्रीवास्तव , सीनियर एग्जीक्यूटिव एडीटर-ICN ग्रुप 

विश्व आज भयानक त्रासदी की ओर फिसल रहा है। हम सब संभव-अंसभव के मध्य खिंची महीन रेखा पर बार बार असंतुलित होते संतुलन को बनाये रखने के अथक प्रयास में जी जान से लगे हैं।

मनुष्य की विकृति ने आज उसे उसकी औकात बता दी है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि आज संपूर्ण विश्व उस बिंदु पर खड़ा है जहाँ मात्र हमारी समझदारी, आत्मविश्वास, सतर्कता, सावधानी और अनुशासन ही हमारे सुरक्षा कवच हैं। जहाँ विश्व के बड़े-बड़े एवं पूर्ण विकसित देश कोरोना पर नियंत्रण में असमर्थ दिखाई पड़ रहे हैं, भारतवर्ष अपने सजग व पूर्ण संकल्पित प्रधानमंत्री व अन्य ‘सर्वहिताय-सर्वसुखाय’ दृष्टिकोण के प्रतिनिधियों के नेतृत्व में इस वैश्विक महामारी से आर पार का युद्ध लड़ रहा है। मुझे विश्वास है कि हम सब यह लड़ाई अवश्य जीतेंगे। यह त्रासदी है, निश्चित रूप से महात्रासदी हेै लेकिन भविष्य का भय हमारे वर्तमान में कुछ ऐसा ‘अद्भुत’ भी लाया हेै जिसे निश्चित ही रेखांकित किया जाना चाहिए। मैं इन्हें ‘त्रासदी में शगुन’ समझता हूँ। आइये, एक बार हम साथ में मिलकर इनकी भी पड़ताल करते हैं‌ :-

पारिवारिक संबंधों की पुनर्स्थापना

आज तक हम सब अपनी अपनी रोज़ी रोटी के चक्कर में जिसकी सबसे अधिक उपेक्षा करते आये हैं, वह हेै ‘परिवार’। हमारे देश में संयुक्त परिवार की अवधारणा दशकों पूर्व ही चरमरा गयी थी और अधिकांशतः ‘एकल परिवार – एकल आय’ की पद्धति की सामाजिक व्यवस्था ही दृष्टव्य है। चाहे वह परिवार के पुरुष मुखिया की आय अर्जित करने की अपरिहार्य विवशता हो अथवा उसके द्धारा पूरे परिवार का पोषण किये जाने के खोखले अंहकार की तथाकथित आत्मश्लाघा, उसके द्धारा गाहे-बगाहे यदि किसी की गंभीेर स्तर तक उपेक्षा की गयी है तो वह उसका स्वयं का परिवार ही है। आज अचानक ही हम सब अपनी-अपनी अंधी दौड़ से अनायास ही मुक्त होकर अपने-अपने परिवार में न केवल सशरीर बल्कि पूरे मन के साथ लौट आये हैं और बरसों से पति-पत्नी व पिता-संतानों के मध्य संबंधों मे चाहे अनचाहे रूप में जम चुकी बर्फ़ ने पिघलना प्रारंभ कर दिया है। परिवार के मुखिया का यह भ्रम कि मात्र वही परिवार को सहारा देता है, स्वत: चकनाचूर हो गया और उनके मन में बिना किसी शंका के यह सत्य स्थापित हो गया कि इस पारिवारिक सहयोग व सहारे के क्षेत्र में परिवार का उसे मिल रहे सहारे का योगदान न केवल अधिक ही हेै वरन् निस्वार्थ प्रेम से परिपूर्ण भी है। निश्चित रूप से, लाकडाउन में सारे सदस्यों का एक साथ एक छत के नीचे कुछ समय के लिये कैद हो जाने की विवशता भावनात्मक रूप से पारिवारिक बंधन को और अधिक मज़बूती प्रदान कर रही है और हमारी यह पारिवारिक एकता सारे विश्व में अतुलनीय है।

आत्मचिंतन व व्यक्तित्व विकास

सामान्य दिनों में हमारी भौतिक आवश्यकतायें व हमारी अंतहीन व्यस्तता हमें कभी भी स्वयं से बात करने का कोई अवसर ही‌ प्रदान नहीं करती है और हम सब सारी दुनिया व समाज के लिये कार्य करते हुये मात्र प्रत्येक स्तर पर स्वयं की ही उपेक्षा करते रहते हैं। प्रकृति द्धारा हमारी अनथक भाग दौड़ से यह अस्थायी मुक्ति हमें अवसर प्रदान कर रही है कि हम सब एक बार स्वयं के भीतर झांक कर अपना आत्मविवेचन कर सकें और अब तक जिये जीवन पद्धति के दिशासूचकों के आधार पर भविष्य का ‘रोडमैप’ तैयार के सकें। यह समय आत्मचिंतन के लिये सबसे उपयुक्त समय है क्योंकि कल जब सामान्य समय आने पर समाज फिर अंधी दौड़ में व्यस्त हो जायेगा तब आपके आज किये गये आत्म आंकलन अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्ध हो सकते हैं। आज हम सामान्य रूप से दौड़ी जाने वाली आत्मघाती रेस के अगले घंटे, अगले दिन और अगले सप्ताह की बढ़त की अपरिहार्यता से मुक्त है तो क्यों न बोनस के रूप में अनायास प्राप्त इस समय का सदुपयोग करके अपने अंदर से अपने एक बेहतर संस्करण को निकालने का प्रयास करें?

अध्ययन व रुचिनुसार दिनचर्या

सामान्यतः सीखने व धनार्जन के मध्य एक विचित्र समीकरण दृष्टिगत होता है। भारतीय परिवेश में जब तक हम सीखते अर्थात शिक्षा प्राप्त करते हैं अथवा अध्ययन करते हैं, तब तक हम धनार्जन नहीं करते हैं और जब हम धनार्जन करना प्रारंभ करते हैं तो उस दिन के बाद हम सीखना बंद कर देते हैं। प्रकृति ने हमें समय दिया है कि हम स्वध्याय पर केंद्रित हों और न केवल अपने मन का पढ़ें बल्कि पूरे मन से भी पढ़ें । हमारी रुचि जिस क्षेत्र में भी हो, हम अपना ज्ञान व जानकारी, दोनों ही बढ़ायें। भले ही आज के परिवेश में शिक्षा का सीधा-सीधा अर्थ धनोपार्जन न हो किंतु हमारी शिक्षा हमारे धनार्जन की क्षमता को निश्चित रूप से प्रभावित करती है और यदि यह शिक्षा अथवा समझ हमारे धनार्जन के क्षेत्र से ही संबंधित हो तो यह तो सोने में सुहागा ही होगा। अपने आप को तनिक केंद्रित करें और अपनी प्रतिभा व अपने वर्तमान धनोपार्जन के स्रोत के समीकरण को समझें। क्या आप आर्थिक दृष्टि से सफल हैं? सदैव ध्यान रखिये, यदि आप असफल हैं तो उसका पहला कारण यह होगा कि संभवतः आप अपनी नैसर्गिक प्रतिभा के क्षेत्र से बाहर कार्यरत हेैं एवं दूसरा कारण यह हो सकता हेै कि अभी आपने अपनी प्रतिभा के क्षेत्र में उपस्थित संभावनाओं का समुचित आंकलन नहीं किया है। क्या आपको नहीं लगता है कि अनायास ही प्राप्त यह अवकाश ईश्वर ने आपको अपने व्यक्तित्व, सामर्थ्य, क्षमताओं व नवीन संभावनाओं के समुचित व पुनर्मूल्यांकन के लिये ही प्रदान किया है ताकि जब जन जीवन सामान्य हो तो आप एक और निखरे हुये व बेहतर ढंग से तराशे हुये व्यक्ति के रूप में अपने आर्थिक जगत में प्रवेश करें?

कलाकार की वापसी

ईश्वर ने हम सबकों परम विशिष्ट बनाया हेै एवं उसने हम सबमें विभिन्‍न प्रतिभाओं को समावेशित किया है। जीवन के मशीनीकरण ने सबसे पहले हमें स्वयं को स्वयं से पृथक किया है और हमें यह समझने में किंचित भी गुरेज नहीं करनी चाहिये कि‌ हम आज ईश्वर की मूल कृति कम और स्वयंनिर्मित उपकरण अधिक हैं। याद कीजिये एक बार अपने ‘निश्चिंत बचपन’ को। आपको चित्रकला कितनी अच्छी लगती थी। कितना सुख मिलता था किसी अनगढ़ी कविता को रच कर। पुरानी वस्तुओं के जोड़ से सृजन की किसी नयी संभावना को उगाना क्या आपको रोमांचित नहीं करता था? जब आप कोई गीत गुनगुनाते थे अथवा किसी वाद्ययंत्र को छेड़ते थे तो क्या आप के लिये समय जैसे रुक नहीं जाया करता था? किसी क्यारी अथवा गमलों में आपका अपना रंग बिरंगा साम्राज्य क्या आज भी आपको अपनी ओर आकर्षित नहीं करता है? सच मानिये, यह समय आपके उस कलाकार की वापसी का है जिस पर आपकी व्यस्तताओं व विवशताओं ने ढेर सारी मिट्टी उलीच रखी है। यही सही समय है समय की‌ ढेर सारी माटी के नीचे दबी हुई अपनी मूर्छित प्रतिभा को संजीवनी प्रदान करने का। यह वैज्ञानिक रूप से सिद्ध सिद्धांत है कि आपकी नैसर्गिक प्रतिभा का असमय ह्रास व दमन आपको भौतिक रूप से भी कुपोषित कर देता है।

सृजन के क्षण

कभी ध्यान से सोचिये – हम अपने कृत्रिम जीवन में इतना समायोजित हो गये हेेैं कि नवीन सृजन की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। यह समायोजित जीवन हमें एक उपकरणीय जीवन पद्धति तो देता है लेकिन हमें जीवन जीने के वास्तविक आनंद व आत्मसम्मान से परे कर देता है। हम तो इस कृत्रिम जीवन को जीते-जीते अपनी क्षमताओं की गहराई का अनुमान लगाना ही भूल गये। सकारात्मकता सदैव कहती है – ‘प्रत्येक बीज में पूरी प्रकृति है और प्रत्येक क्षण में पूर्ण शाश्वतता है।’ कबीर, एडिसन, आइंस्टाइन, शेक्सपियर, पिकासो, टैगोर, प्रेमचंद, मार्क निकोलस, डा० अब्दुल कलाम आदि द्धारा जिया गया जीवन आज भी इतिहास में शाश्वत रूप से विद्यमान है। यही नहीँ, वर्तमान में भी अनेक नवीन सृजन हमें अनंत संभावनाओं के द्धार की ओर संकेत कर रहे हेैं। एक बार स्वयं को खंगाल लेने में क्या कष्ट है। हो सकता है नियत की नीयत कुछ आपके साथ मिलकर कुछ नवीन सृजित करने की हो।

नये ज्ञान का समय

कुछ समय पूर्व मैंने पढ़ा था – चीन‌ में एक विश्वविद्यालय के वैश्विक भाषाओं के विभाग में एक तिरानबे वर्ष के व्यक्ति ने अपने पंजीकरण के लिये आवेदन किया था जो पहले ही सोलह भाषाओं का ज्ञान विभिन्न पाठ्यक्रमों द्धारा अर्जित किये हुये था। साक्षात्कार में जब उससे यह पूछा गया कि वह इस पूर्ण पकी हुई आयु में किसी नयी भाषा को‌ क्यों सीखना चाहता है तो उसने कहा कि भला आयु का ज्ञान से क्या लेना देना। ज्ञान हर पल हमें नये व और सार्थक ढंग से जीना सिखाता है तो हम इस सकारात्मक संभावना के चमत्कार से परिचय की आस को क्यों त्याग दें। हम कितनी भी उम्र के हो, हमारे अब तक सीखे हुये कुल ज्ञान से वह ज्ञान बहुत अधिक है जो हमने आज तक नहीं सीखा है। हमारे सीखे हुये ज्ञान ने हमारे अंदर बेवजह का अंहकार भरा है और निश्चित ही यह समय यह भी जानने का है कि हम क्या नहीं जानते हेैं। इससे न‌ केवल नये ज्ञान, भाषा व तथ्यों से हमारा परिचय ही होगा वरन् हमारा स्व अर्जित अंहकार भी तिरोहित होगा।

क्रमशः

Share and Enjoy !

Shares

Related posts