शहादत को आज का सलाम-कितना सच?

प्रो. सत्येन्द्र कुमार सिंह, एडिटर-आई.सी.एन

आज के बच्चों को जहाँ स्मार्ट फ़ोन और कंप्यूटर की लत लगी है वहीँ १९३१ में मात्र २३, २३ और २४ साल की उम्र में देशभक्ति की ऐसी लौ जली कि फांसी के तख्ते पर गीत गाते हुए शहीद हो गए| यह कोई और नहीं बल्कि भगत सिंह, सुखदेव थापर और शिवाराम राजगुरु थे और आज भी यह संशय है कि इन्हें शहीद का दर्जा मिला है भी की नहीं!

पर ऐसे लोगों को शहादत के दर्जे की ज़रूरत नहीं बल्कि उनकी आत्मा चाहती है कि उनकी कुर्बानी को देश याद रखे और ऐसा कार्य ना करे कि आज़ादी का और उसके संघर्ष का मोल ही मृतप्राय होता प्रतीत हो|

वो २३ मार्च ही था जब लाहौर में इन्हें फांसी की सजा दी गई पर लोग यह देख अचरज करते रह गए जब यह हँसते हुए फंदे को चूम तत्कालीन क्रांतिकारियों के सीने में प्रेरणा बन, धरती से रुकसत हुए| उनकी माँ की स्थिति तो कल्पना करने लायक भी नहीं है किन्तु उन्होंने तो इन तीनो से भी बड़ी कुर्बानी दी होगी ना!

बॉलीवुड की फिल्मो में इनके बलिदान को अक्सर दिखाया गया है किन्तु आज आवश्यकता है इसे जीवन में चरित्रार्थ करने की; देश से प्रेम करने की; जात-पात, धर्म आदि के मतभेद भुलाने की और देश की अखंडता बचाए रखने की|

भगत सिंह कह गए कि अंगेज़ मुझे मार तो सकते हैं लेकिन मेरे विचारों को नहीं, वे मेरे शरीर को नष्ट कर सकते हैं लेकिन मेरे जुनून को नष्ट करने की उनकी क्षमता नहीं है।

किन्तु सोचनीय बिंदु यह है कि जहाँ भारत में कोई उन्हें आतंकवादी कहते हुए दिल्ली यूनिवर्सिटी में किताब चलाने की कोशिश करता है तो वहीँ पाकिस्तान में उन्हें सर्वोच्च वीरता पुरुस्कार देने की सिफारिश की जाती है|

दिल मेरा बेचैन है आज फिर जानने को शहादत को सलाम का सच!

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