कानून इच्छा मृत्यु का

तरुण प्रकाश ( सीनियर एसोसिएट एडिटर, ICN ग्रुप )
पता नहीँ कि यह एक लम्बी बहस का अंत है या भविष्य की एक नयी लम्बी बहस की शुरूआत लेकिन जो भी हो,  जीवन यात्रा के जिस पड़ाव पर हर तरफ से आता हुआ रास्ता अस्तित्वहीन होने को विवश हो रहा था, सम्मानीय उच्चारण न्यायालय ने भविष्य के लिये एक नया रास्ता तो निकाला ।
हम सब चाहे जिस धर्म, संप्रदाय अथवा जीवन पद्धति से बंधे हुये हों, हम सबमें जीवन और मृत्यु के प्रति हमारे विश्वास लगभग एक ही वैचारिक सूत्र से बंधे प्रतीत होते हैं कि यद्यपि जीवन और मृत्यु ईश्वर के हाथ में हैं किन्तु महान्  ईश्वर ने हम सबकी प्रज्ञा में अपने जीवन और मृत्यु, दोनों को ही अर्थपूर्ण एवं पवित्र बनाने की कला समाहित कर रखी है और इसी कला का उचित प्रयोग जहाँ किसी व्यक्ति को महान ऊर्जा का केंद्र बना कर संसार सिंधु में डूबती-भटकती नौकाओं का दिशानिर्देशक बना कर सदैव के लिये लाईट हाउस के रूप में स्थापित कर देती है तो वहीं इस कला की अज्ञानता अनेक व्यक्तियों की उपस्थिति को भविष्य के किसी भी अभिलेख में दर्ज नहीं करती।
इच्छा मृत्यु के विषय में पौराणिक कथाओं में भी अनेक विवरण मिलते हैं। महात्मा दधीचि ने मृत्यु को अपनी इच्छा से अपनाया क्योंकि उनकी अस्थियों से उस अजेय वज्र का निर्माण होना था जो दानवों से देवताओ की रक्षा कर सकता था । एक दूसरे वृत्तांत में शरशैय्या पर लेटे हुये पितामह भीष्म ने अपनी मृत्यु का वरण अपनी इच्छा से ही किया था। पहली घटना जहाँ यह सिद्ध करती दिखाई पड़ती है कि उस क्षण महर्षि दधीचि के जीवन से उनकी मृत्यु अधिक उद्देश्यपूर्ण थी वहीं दूसरा उदाहरण यह संकेत करता है कि पितामह भीष्म इसलिए इच्छा मृत्यु का वरण करना चाहते थे क्योंकि उनके जीवन का उद्देश्य ही समाप्त हो गया था ।
सिद्ध होता है कि जीवन और मृत्यु, दोनों ही ‘उद्देश्य’ से बंधे हुये हैं। यदि मृत्यु का उद्देश्य जीवन से भी बड़ा हो तो मृत्यु का वरण श्रेयस्कर है। हम अपने वर्तमान से यदि इस सिद्धांत को जोड़ें तो देश की सरहद पर राष्ट्र रक्षा में यदि कोई सैनिक अपना प्राण त्यागता हेेै तो ऐसी मृत्यु ‘शहादत’ कहलाती है और ऐसी मृत्यु हर जीवन से महान्  है। यह जानते हुये भी कि युद्ध में मृत्यु की संभावना बहुत अधिक है, सैनिक का स्वयं युद्ध के लिये प्रस्तुत हो जाना एक प्रकार से मृत्यु का स्वैच्छिक वरण ही है। दूसरी ओर अग्रिम जीवन की सभी संभावनाओं के अंत के बाद भी बाहरी व कृत्रिम सहारों से मात्र शरीर को जीवित रखने का अर्थ ‘जीवन’ कदापि नहीं हो सकता क्योंकि ऐसे जीवन का उद्देश्य ही समाप्त हो गया है।
इच्छा मृत्यु के विरोध में सबसे बड़ा तर्क यह दिया जाता है कि यदि मनुष्य के पास किसी को जीवन देने का अधिकार नहीं है तो उसे किसी का जीवन लेने का भी कोई अधिकार नहीं है। हमारे सामने अनेकों ऐसे उदाहरण उपस्थित हैं जहाँ किसी का जीवन बचाने के लिए उसके शरीर के विषयुक्त अथवा सड़े हुये भाग को काटकर अलग करना पड़ा। मनुष्य तो शरीर का कोई भी प्राकृतिक अंग स्वयं नहीं बना सकता तो उसके द्वारा किसी अंग को काट कर अलग कर देना क्यों सही माना जाना चाहिए? उत्तर स्पष्ट है- ताकि उस शरीर को बचाया जा सके जो अभी  भी अर्थपूर्ण है। किन्तु जिस शरीर के जीवन की संभावना ही समाप्त हो गई है उसे कृत्रिम रूप से जीवित रखने का भला क्या अर्थ है। जब कोई वस्तु ‘बियांड रिपेयरिंग’ हो जाये तो उसको सहेजने का उद्देश्य क्या  है?
जिसने जन्म लिया है, उसकी मृत्यु निश्चित है। चिकित्सक कुछ और नहीं करते – वे बस जन्म से अवश्यंभावी मृत्यु की इस यात्रा को आसान कर देते हैं। जब शरीर की समस्त जीवनदायिनी शक्तियों ने अंतिम रूप से हथियार डाल दिये हों तो बाहरी शक्तियां जीवन के वाह्य लक्षणों को कुछ समय के लिये खींच तो सकती हैं किन्तु  शरीर में प्राण नहीं संयोजित कर सकतीं। जीवन को गरिमा के साथ जीना और मृत्यु को गरिमा के साथ ग्रहण करना,  दोनों ही हमारे अधिकार हैं। धर्म में तो योगियों द्वारा जीवित समाधि ग्रहण करने के कई वृत्तांत हैं किन्तु भारतीय समाज में न्यायिक रूप से इस अधिकार पर यूँ तो कई दशकों से बहस अस्तित्व में थी किन्तु मुम्बई की नर्स अरुणा शानबाग के बलात्कार के बाद निरंतर बयालिस वर्षों तक कोमा में रहने पर उसकी इच्छा मृत्यु हेतु उसके संबंधी पिंकी वीरानी द्वारा उच्च न्यायालय में याचिका प्रस्तुत होने पर यह बहस धारदार हो गयी और उच्च न्यायालय ने स्वीकार किया कि ऐसी विशेष परिस्थितियों में इच्छा मृत्यु का अधिकार न्याय संगत है।
तत्पश्चात सम्मानीय उच्चतम न्यायालय ने विशेष परिस्थितियों में इच्छा मृत्यु को एक मत से एक न्यायिक अधिकार मानते हुये मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में गठित पाँच न्यायाधीशों की पीठ ने केंद्र को इस विषय में आवश्यक कानून बनाने का निर्देश देते हुये कानून बनने तक अंतरिम गाइड लाइंस निर्गत की हैं जिनके अनुसार मुख्य रूप से कोई भी बालिग व मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति अपने लिये ‘लिविंग विल’ का प्राविधान कर सकता है अर्थात वह अपनी वसीयत में व्यवस्था दे सकता है कि ऐसी किसी भी स्थिति में उसका नामित व्यक्ति उसे बाहरी जीवन रक्षक प्रणाली से मुक्ति प्रदान कर उसे मृत्यु वरण करने देगा। गाइड लाइंस के अनुसार ऐसी परिस्थिति में दी हुई विशेष प्रक्रिया को अपनाते हुये मेडिकल बोर्ड के परामर्श के पश्चात् ही इस कार्य को निष्पादित किया जा सकेगा। यदि किसी व्यक्ति ने अपनी लिविंग विल को निष्पादित नहीँ किया है तो ऐसी स्थिति में उसके संबंधी संबंधित उच्च न्यायालय में याचिका प्रस्तुत कर आवश्यक निर्देश प्राप्त कर मेडिकल बोर्ड के परामर्शानुसार संबंधित व्यक्ति की इच्छा मृत्यु की कार्यवाही सम्पन्न करा सकेंगे।
इच्छा मृत्यु हेतु विदेशों में एक्टिव यूथेनेसिया का प्रचलन है जिसमें जीवन समाप्त करने के लिये जहरीला इंजेक्शन दिया जाता है किन्तु भारतीय समाज और संस्कृति की गरिमा को ध्यान में रखते हुये यहाँ पैसिव यूथेनेसिया पद्धति का ही प्रयोग अनुमन्य होगा अर्थात यहाँ ऐसी स्थिति में मात्र जीवन रक्षक प्रणाली को ही हटाया जायेगा।
सम्मानीय उच्चतम न्यायालय का यह निर्णय एक बार यह फिर साबित करता है कि एक जीवित समाज मात्र उद्देश्यपूर्ण जीवन से ही संभंव है न कि वेंटिलेटर्स पर आत्मिक रूप से मर चुके शरीरों को बाहरी आक्सीजन देने से।

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