शुक्र है होली बीत गई

प्रो. सत्येन्द्र कुमार सिंह ( न्यूज़ एडिटर-आई.सी.एन. ग्रुप )

रंगों के त्यौहार में इस बार भी शुभकामनाओं का बहुत दौर चला| कहीं टी.वी. पर कविताओं का माहौल बना तो कहीं सोशल मीडिया पर शुभकामनाओं का रेला चला| वैसे भी अब हम सोशल मीडिया वाले हो गए हैं जिसमे सोशल कम और मीडिया ज्यादा है|

सड़क पर होलिका हेतु पेड़ों के झुरमुट भी अब स्वाहा हो गए हैं| शायद नगर निगम वाले उसे शीघ्र ही हटा दें तो कुछ रास्ता साफ़ हो जाए| पेड़ों के जान में जान आ गयी होगी कि अब उनकी हरी डालियाँ शायद ना काटी जाएँ| हर नुक्कड़ पर होलिका का जमावड़ा इस बात को इंगित करता है कि त्यौहार भी अब लोकल हो गए हैं, सिमट गए हैं| क्या ही बेहतर होता कि दस-बीस मोहल्ले मिल कर एक बड़ी होलिका दहन का कार्यक्रम करते और वो भी किसी ऐसी जगह जिससे आवागमन में कोई बाधा नहीं होती, सड़क ख़राब नहीं होती|

पहले सब मिल कर घरों में गुजिया बनाते थे और थाली में जाने से पहले ही मुंह में चले जाती थी| गुजिया से ज्यादा मिठास तो बनाने में मिलती थी| अब तो घरों में गुजिया लोगों का इंतज़ार करती रहती हैं और उन्हें खाने वाले कम होते जा रहे हैं| या तो लोग आते ही नहीं है या उन्हें डायबिटीज हो गई होती है| कही हमें सामाजिक एवं मानसिक मधुमेह तो नहीं हो रहा है?

उन पुलिस वालों, परिवहन कर्मियों, मीडिया कर्मियों आदि को भी अब अपने घर जाने का मौका मिल गया होगा जिन्होंने अपने कर्तव्य के निर्वहन के लिए त्यौहार को छोड़ दिया| बच्चों और उनके अभिभावकों के जान में जान आ गयी होगी जिनकी परीक्षाएं चल रही हैं| कभी हफ्ते भर का त्यौहार अब दो-चार घन्टों में सिमट गया है| सबका यही मानना है कि इस बार होली में वो रंगत नहीं रही जो पिछले वर्षों में रही थी|

तो अब इतना परिवर्तन क्यों? मिलावट का डर क्यों? भौतिक होते समाज में त्यौहार अब क्या औपचारिकता मात्र रह गए हैं? सप्ताहांत में पड़ने के वावजूद भी पता नही कितने प्राइवेट कर्मचारी अपने माता-पिता से मिलने गाँव पहुँच पाए होंगे?

सच में हमारी उम्र की तरह होली भी ढल रही है और सामाजिक त्यौहार अब वर्चुअल दुनिया में ठहरता जा रहा है| अपनी पुरानी रंगीन यादों में डूबी होली कह रही होगी – “शुक्र है कि इस बार की होली भी चलो बीत ही गई”|

चलते-चलते, बुरा न मानो होली है|

Share and Enjoy !

Shares

Related posts