स्वतंत्रता इतिहास के भूले हुए पन्नों में दर्ज एक अनूठी वीरांगना : गुलाब कौर

अमिताभ दीक्षित, एडिटर-ICN U.P.

गुलाब कौर : इतिहास में भुला दी गयी वो महिला जिसने अंग्रेजों से लड़ने के लिए अपने पति को छोड़ दिया और एक सुरक्षित जीवन को तिलांजलि दे कर स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़ी.

कई बार, इतिहास अपनी उन अनन्य नायिकाओं को भूल जाता है, उनके चेहरे भुला दिए जाते हैं, और उनकी बहादुरी की गाथा कोई याद नहीं करता जिनके असाधारण साहस और बलिदान को देश के इतिहास लिखते समय निश्चित रूप से को स्मरण रक्खा जाना चाहिए और उन्हें एक सम्मान जनक स्थान देना चाहिए.

गुलाब कौर ऐसी ही एक नायिका हैं.

भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, महिलाओं ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. स्वतंत्रता सेनानियों जैसे अरुणा आसफ अली, लक्ष्मी सहगल, सुचेता कृपलानी, तारा रानी श्रीवास्तव, और कनकलता बरुआ जैसी हजारों अन्य वीरांगनाओं के प्रयासों और बलिदानों के बिना, भारत की स्वतंत्रता सम्भवतः अधूरी ही रह जाती.

ऐसी वीरांगनाओं ने लैंगिक असमानता जैसी सामाजिक बुराइयों के खिलाफ संघर्ष करते हुए और कट्टरपंथी कुरीतियों से लोहा लेते हुए सामाजिक सुधारों को ध्वज वाहक बनते हुए , पुरुषों की तरह और उनके साथ कंधे से कन्धा मिलकर, सड़कों पर मार्च किया, औपनिवेशिक तानाशाहों के बंदूकों से निकली गोलियां खाईं,अमानवीय मारपीट और अत्याचार सहे, क्रूर कारावास का सामना किया और देश की आज़ादी हेतु अपने जीवन का बलिदान दिया.

आज़ादी के संघर्ष के दौरान पुरुष वर्चस्व वाले स्थानों पर महिलाओं के प्रवेश ने भारतीय महिलाओं के बारे में ब्रिटिश उपनिवेशवादियों की इस धारणा को लगभग ध्वस्त ही कर दिया कि भारतीय महिलाएं पुरुषों के सामने दोयम दर्जे की रूढ़ियों में जकड़ी हुई, कमजोर और केवल आज्ञा पालन करने वाली हैं ।

महिलाओं को यह अच्छी तरह पता था कि सड़कों पर इस तरह उतरकर न केवल अपने शील को खतरे में डाल रहीं हैं बल्कि अपने शरीर को भी हमले के गंभीर जोखिम में डाल रहीं है.उन्होंने ये साबित किया कि वे सार्वजनिक क्षेत्र में अपने साथी पुरुषों के साथ क़दम से क़दम मिला कर बराबरी से चल सकती हैं

ऐसी ही महिलाओं में से एक थीं ‘गुलाब कौर’ जिन्होंने पुरुषों के वर्चस्व वाले देश की आज़ादी के लिए हो रहे संघर्ष में अपना योगदान देने के लिए अपने धन धान्य पूर्ण जीवन और अपने पति को भी छोड़ दिया मगर शायद इतिहास के पन्नों में उन्हें वो जगह नहीं मिली जिसकी वो हक़दार थीं.

पंजाब के संगरूर जिले के बक्शीवाला गाँव में सिरका नामक स्थान पर 1890 में गुलाब कौर का जन्म हुआ था. उनके शुरुआत के जीवन के बारे में कुछ विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है और जो कुछ भी जानकारी है उसके आधार पर ये कहा जा सकता है कि उनका बचपन ग़रीबी में बीता और बाद में उनका विवाह मान सिंह नाम के व्यक्ति से हुआ था. आर्थिक विपन्नता से संघर्ष करते हुए ग़रीबी से उबरने के लिए उनके पति ने संयुक्त राज्य अमेरिका जाने और वहां बसने की योजना बनाई और इसी योजना के तहत ये दम्पत्ति मनीला फिलिपीन्स के लिए निकल पड़े. अपनी इसी यात्रा के दौरान, उनकी भेंट प्रसिद्ध ग़दर पार्टी के सदस्यों से हुई. ग़दर पार्टी पंजाबी सिख व अन्य प्रवासियों द्वारा स्थापित एक भारतीय क्रांतिकारी संगठन था जिसकी मूल स्थापना सेन फ्रांसिस्को में लाला हरदयाल के प्रयासों से 1913 हुई थी और जिसे सशस्त्र संघर्ष के माध्यम से ब्रिटिश हुकूमत को भारत से बाहर निकालने के उद्देश्य से बनाया गया था. जब गदरी क्रांतिकारियों का जहाज मनीला पहुंचा तो गुलाब कौर वहां इस लहर से जुड़ गईं.

समय बीतता रहा और गुलाब कौर के सक्रियता बढ़ती गयी और फिर एक दिन गदर पार्टी के नेताओं ने निर्णय लिया कि अब वह क्षण आ गया है कि हम ब्रिटिश सरकार के खिलाफ उसकी सेना में संगठित विद्रोह कर सकते हैं. क्योंकि तब प्रथम विश्वयुद्ध धीरे-धीरे करीब आ रहा था और ब्रिटिश हकुमत को भी सैनिकों की बहुत आवश्यकता थी. गदर पार्टी के नेतृत्व ने आर पार के संघर्ष का बिगुल बजाते हुए भारत वापिस आने का निर्णय लिया।

अगस्त 1914 में बड़ी रैलियों और जनसभाओं का आयोजन किया गया। जिसमें सभी से कहा गया कि वे हिन्दुस्तान की ओर लौटें और ब्रिटिश हकुमत के विरूद्ध सशस्त्र विद्रोह में भाग लें।

उस समय मनीला में गदर पार्टी का नेतृत्व आफिज अब्दुला कर रहे थे और उनके नेतृत्व में जत्था भारत आने की तैयारी में था. ऐसे समय में गुलाब कौर के पति मान सिंह का मन डोल गया. उन्होंने जाने से इनकार कर दिया.

गुलाब कौर उनके निर्णय से बहुत आहात हुईं. उन्होंने चूड़ियां उतर कर फेंक दीं. अपने पति को फटकारा और अंततः पति को छोड़ कर बाकी लगभग 50 साथियों, जिनमें से बाबा ज्वाला सिंह ठठिया, बाबा केसर सिंह ठठगढ़, बाबा शेर सिंह वेईंपुईं, मास्टर ऊधम सिंह कसेल  वगैरह भी थे, के साथ एस. एस. कोरिया नाम के जलपोत से भारत लौट आने का निर्णय ले लिया. यात्रा के दौरान वे अन्य भारतीय यात्रियों के बीच क्रन्तिकारी साहित्य का वितरण करती रहीं और ओजस्वी भाषण देकर उन्हें इस क्रांति में शामिल होने के लिए उत्साहित करती रहीं.

गुलाब कौर ने पंजाब के अनेक स्थानों विशेषकर कपूरथला, होशियारपुर, और जालंधर जैसे क्रांतिकारियों के ठिकानों  में एक सक्रिय कार्यकर्ता बन गई, जो सशस्त्र क्रांति के लिए लोगों को जुटा रही थी.

ब्रिटिश विरोधी जनभावना के साथ लोगों को जोड़ने के अलावा, उन्होंने ग़दर पार्टी के सदस्यों को हथियार और गोला-बारूद भी वितरित किया. साथ ही ग़दर पार्टी में सक्रिय रूप से शामिल होने के लिए दूसरों को खूब प्रोत्साहित भी किया.

सबसे महत्वपूर्ण यह है कि गुलाब कौर ने गदर पार्टी के प्रिंटिंग प्रेस को सुचारू रूप से चलते रहने के उद्देश्य से उस पर पूर्ण पर निगरानी भी रखी और सक्रियता पूर्वक उसको संभाला.

गदर पार्टी के द्वारा की जाने वाली गतिविधियों के असफलता की ओर बढ़ने पर कुछ समय बाद उन्हें ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा  पकड़ लिया गया और देशद्रोह के आरोप में नेताओं के संदेश का आदान-प्रदान करने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया.

उन्हें लाहौर के शाही किले में 2 वर्ष तक क़ैद में रक्खा गया. यहाँ उन्हें अमानवीय यातनाएं दी गईं. इस स्थान पर ब्रिटिश अधिकारियों ने उनके साथ गंभीर दुर्व्यवहार किये. रिहा होने के बाद वह गांव कोटला नौध सिंह (होशियारपुर) में आखिरी सांस तक बंद रहीं. अंततः सन 1931 में उनका निधन हो गया.

भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन के इतिहास में यद्यपि उन्हें समुचित स्मरण का पात्र नहीं समझा गया मगर सौभाग्य से पंजाबी लेखक श्री केसर सिंह जी ने उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर “ गदर दी ढे-गुलाब कौर ” नामक  एक पुस्तक लिखकर उनके योगदान को जन मानस के सामने रखने का एक सार्थक प्रयास किया है जिसके लिए यह देश उनका आभारी है     

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