डॉ. अमृत कुमार, ब्यूरो चीफ-ICN झारखंड
प्रत्येक समुदाय का विकास के प्रति अपना एक पक्ष होता है, आदिवासी पक्ष प्रकृति संवर्धन के साथ है लेकिन विडंबना यह है कि आदिवासी अस्मिता पर आधारित राज्य झारखण्ड में विकास हेतु प्रकृति का बड़े पैमाने पर दोहन होता रहा. परिणामतः झारखण्ड राज्य के आर्थिक विकास के साथ वहां के आदिवासियों में आर्थिक पिछड़ापन अपने आप आने लगा.
रांची। प्रत्येक काल में मानवीय आवश्यकता के अनुरूप विकास को पारिभाषित किया जाता रहा है. भूगोल और संस्कृति ने मानवीय आवश्यकता के सीमांकन को समझने में हमेशा ही एक निर्णायक भूमिका अदा की है. विकासीय विविधता को समझने के लिए भी भूगोल और संस्कृति आधारस्तंभ के सामान हैं. विश्वग्राम की अवधारणा ने भौगोलिक विविधता को आभासी रूप प्रदान कर सभी क्षेत्रों में एक सामान विकास मापदंडो को स्वीकृत कराने का प्रयास किया है जो कि काफी हद तक सफल भी हो चूका है. आज विकास के मापदंड स्थानीय न होकर वैश्विक हो गए हैं और वैश्विकता का मापदंड विकसित देशों द्वारा तय हो रहा है. वैश्विक के सामान राष्ट्रीय स्तर पर भी विकास पिछड़ी अर्थव्यवस्था पर अपेक्षाकृत बेहतर अर्थव्यवस्था हावी होकर अपने अनुरूप विकास वातावरण तैयार कर रही है.
पूर्व में गैर आदिवासी और आदिवासी दोनों संस्कृतियों के अर्थव्यवस्था का आधार प्रकृति केन्द्रित था. लेकिन कालांतर में गैर आदिवासी अर्थव्यवस्था का विस्तार तथा विभिन्न वैश्विक प्रभाव के कारण गैर आदिवासी अर्थव्यवस्था का केंद्र प्रकृति संवर्धन की जगह प्रकृति का दोहन होकर रह गया. गैर आदिवासी संस्कृति पश्चात्य संस्कृति के प्रभाव में आती गयी और सम्पूर्ण विश्व में प्रकृति दोहन को ही विकास का मापदंड माना जाने लगा. नए विकास मापदंड अर्थात प्रकृति दोहन ने बड़ी तेजी से अपना वैश्विक विस्तार किया और अब प्रकृति संवर्धन के साथ में रहने वाले समुदायों का दायरा सिमटता गया, इन समुदायों में अधिकांशतः आदिवासी ही था.
ऐसे ही वातावरण में विकास के आदिवासी पक्ष पर चर्चा प्रासंगिक बन जाता है. क्योंकि जब हम आदिवासी पक्ष की बात करते हैं तो अपने आप ही हम प्रकृति के संवर्धन की चर्चा कर रहे होते हैं. संस्कृति हर समाज एवं समुदाय के लिए विशिष्ट स्थान रखती है. लेकिन समय के साथ साथ विकास के पाश्चात्य मापदंडों ने संस्कृति को रुढ़िवादी करार देकर इसे विकास के लिए अवरोधक तत्व बताया. कई समुदायों ने इसे स्वीकार भी कर लिया लेकिन आदिवासी समुदायों ने इसे स्वीकार करने से मना कर दिया. विश्व में आदिवासियों की पहचान उनकी संस्कृतिक विशिष्टताओं के कारण ही है. आर्थिक विकास या पाश्चात्य अन्धानुकरण के लिए अपने संस्कृतिक विशिष्टताओं को त्यागने से आदिवासियों ने मना कर दिया. अपने आप को विकासवादी कहने वालों ने व्याख्या कर कहा कि आदिवासी गलत कर रहे हैं अगर उन्हें अपने आप को संरक्षित और संवर्धित करना है तो पाश्चात्य पद्धति का अनुसरण करना चाहिए. ऐसा कहने वाले इस तथ्य को नजरंदाज कर गए कि अपने सांस्कृतिक विशिष्टताओं के साथ रहने वाले आदिवासी समुदायों का अस्तित्व प्रकृति के सानिध्य में हमेशा ही संवर्धित और सुरक्षित रहा है. प्राकृतिक आपदाओं के कारण विकसित होने का दावा करने वाली संस्कृति तो नष्ट हो गयी लेकिन प्राकृतिक आपदाओं के कारण किसी भी आदिवासी समुदाय के नष्ट होने की सूचना अभी तक नहीं है. विकास का आदिवासी पक्ष ‘संस्कृति’ जो प्रकृति संवर्धन पर आधारित है के साथ शुरू होता है.
सवाल झारखण्ड का
झारखण्ड राज्य का निर्माण आदिवासी अस्मिता को लेकर किया गया. मारंग गोमके जयपाल सिंह मुंडा ने आदिवासियत के आधार पर ही झारखण्ड राज्य निर्माण हेतु आन्दोलन शुरू किया. आज झारखण्ड की खनिज सम्पदा सम्पूर्ण देश के विकास हेतु योगदान दे रही है. लेकिन यहाँ भी भी विकास के आदिवासी प्रश्न सामने हैं. आदिवासी विकास जो कि प्रकृति संवर्धन के साथ है को नजरंदाज करते हुए झारखण्ड में बड़ी – बड़ी कंपनियों की स्थापना कर प्रकृति का दोहन किया गया. उम्मीद यह व्यक्त की गई कि इन कंपनियों से देश और आदिवासी दोनों का विकास होगा लेकिन सामाजिक प्रभाव अध्ययन की कमी के कारण देश के विकास में तो झारखण्ड ने बखूबी साथ निभाया लेकिन आदिवासी विकास में उल्लेखनीय प्रभाव नहीं अदा कर सका. लाखों की संख्या में लोग झारखण्ड आकर अपना रोजगार यापन करने लगे लेकिन आदिवासी समाज आज भी रोजगार हेतु असम के चाय बागान से लेकर अंडमान तक जाता है.
झारखण्ड राज्य तो आदिवासी अस्मिता पर आधारित है लेकिन झारखण्ड में जो रोजगार उपलब्ध करवाए गए वो आदिवासी केन्द्रित नहीं थे अतः झारखण्ड विकास के साथ आदिवासी पिछड़ापन के समाचार भी लगातार सामने आते गए. दरअसल प्रकृति केन्द्रित रोजगारों में लगातार कमी का होना आदिवासी समाज के पिछड़ापन का कारण बनता गया. वन अधिकार अधिनियम ने भी इसमें भूमिका निभाई. जिन वनों को आदिवासी सदियों से संवर्धित करते आ रहे थे, जिन जंगलों को बचने के लिए आदिवासी समाज का पूरा इतिहास है उन वन संपदाओं के मालिक अब आदिवासी नहीं रहें. एकाएक से नियम बनाकर उन्हें प्राकृतिक संपत्ति से वंचित कर दिया गया. रोजगार का जो दूसरा साधन जो प्रकृति दोहन का साधन था को आदिवासियों के समक्ष प्रस्तुत किया गया लेकिन प्रकृति रक्षक झारखण्ड के आदिवासियों ने इसे स्वीकार नहीं किया तथा आज भी झारखण्ड के कारखाने जो की प्रकृति के नुकसान पहुंचा रहे हैं में आदिवासी नाम मात्र काम कर रहें हैं और चाय बागानों, खेती जहाँ प्रकृति को नुकसान नहीं हो रहा में ज्यादा से ज्यादा काम कर रहे हैं.
झारखण्ड लौह अयस्क के लिए सम्पूर्ण विश्व में जाना जाता है. लोगों के मध्य यह भ्रांतियां फैलाई गयी है कि झारखण्ड में स्थापित लौह अयस्क की कम्पनियाँ लोहे का निर्माण कर राज्य का विकास कर रहीं हैं. जबकि यह पूर्ण सच्चाई नहीं है असुर जनजाति समुदाय के लोग सदियों से लोहे का निर्माण कर रहे हैं. असुरों द्वारा बनाया गए लोहे में जंग नहीं लगता जबकि आधुनिक कंपनियों द्वारा निर्मित लोहे में जंग लग जाता है. यह लोहा आज भी बनाया जाता है. स्थानीय बाजारों में इसकी कीमत तीनगुना ज्यादा होती है अर्थात कंपनियों द्वारा निर्मित लोहे की तुलना में असुर भट्ठियों में निर्मित लोहा ज्यादा मुनाफा और उच्च श्रेणी का लोहा दे सकता है. लेकिन आदिवासियों की तकनिकी प्रतिभा को दबाकर न केवल झारखण्ड के आदिवासियों के विकास को नकारात्मक रूप से प्रभावित किया गया बल्कि विश्व के सामने उच्च कोटि के लोहे को आने से भी रोका गया.
भारत में लोकतंत्र स्थापना के बाद विकास सम्बन्धी नीतियाँ बनाने का दायित्व सरकार पर आ गया. भारतीय लोकतंत्र में निर्णय बहुमत से होते हैं जबकि झारखण्ड के आदिवासी समुदाय में निर्णय सर्वमत से होते हैं. आदिवासी समुदाय में समाज के निर्णय समाज के सामने लिए जाते हैं जबकि भारतीय आधुनिक लोकतंत्र में निर्णय केंद्र में होते हैं तथा उसका क्रियान्वयन विकेंद्रीकृत. यह प्रक्रिया कभी भी आदिवासियों को आधुनिक लोकतंत्र पूर्ण रूप से जोड़ नहीं पायी. जयपाल सिंह मुंडा अपने सभी निर्णय जनता के सामने लेते थे अतः आदिवासियों के मध्य वो मारंग गोमके अर्थात सर्वोच्च नेता के रूप में स्वीकृत थे. लेकिन उनके बाद कोई भी नेता यह पदवी प्राप्त नहीं कर सका. झारखण्ड के आदिवासियों से जुड़े निर्णय आदिवासी समाज को बिना जानकारी दिए होने लगे. अप्रत्यक्ष मतदान(विधायकों/सांसदों द्वारा) को सरकार ने स्वीकृति प्रदान किया जबकि आदिवासी समुदाय में प्रत्यक्ष स्वीकृति को मान्यता प्राप्त है. स्वीकृति न होने के कारण सरकार के नियम प्रभावी तरीके से कभी कार्यान्वित हो ही नहीं पाये. परिणाम यह हुआ कि न सरकार के अनुरूप विकास हो सका और न ही आदिवासी समुदाय के अनुरूप.
वास्तव में नीतिनिर्माताओं को विकास के अंतर्गत यह समझना होगा कि विकास का आदिवासी पक्ष स्थायी है जबकि पाश्चात्य पक्ष क्षणिक, आदिवासी पक्ष प्रकृति के साथ जुड़ा हुआ है. अतः आदिवासी विकास की नीतियों को प्रकृति केन्द्रित बनाना ज्यादा प्रभावी होगा.