प्राचीन गुरु व शिष्य, बनाम आधुनिक अध्यापक व विद्यार्थी

मोहम्मद सलीम खान, एसोसिएट एडिटर-आईसीएन
सहसवान/बदायूँ । ईश्वर ने इंसान को दुनिया में रहने के लिए इंसान के रिश्ते और उसके रिश्तेदार बनाए हैं। प्रकृति की सबसे अनमोल धरोहर माता-पिता बनाए भाई बहन अन्य  रिश्तो की सौगात हमारी झोली में डाली। किसी भी व्यक्ति की कामयाबी पर उसके माता-पिता भाई-बहन वह अन्य  सगे संबंधी बहुत ज्यादा प्रसन्न होते हैं मगर इन रिश्तों के बीच में एक ऐसा रिश्ता भी है जो रिश्ता खूनी  व कुदरती  तो नहीं मगर प्रेम स्नेह व वफा की कसौटी पर सदियों से खरा उतरता आ रहा है वह रिश्ता है अध्यापक (गुरु) व तालिबे इल्म (शिष्य) का। किसी भी व्यक्ति की कामयाबी पर माता पिता के बाद यदि किसी ओर  को सबसे ज्यादा प्रसन्नता होती है तो वह गुरु ही है। इस संसार में केवल और केवल एक पिता ही ऐसा व्यक्ति है जो यह चाहता है कि उसका  बेटा या बेटी उससे भी ज्यादा शिक्षा ग्रहण करें और उससे भी बड़े पद पर आसीन होकर देश की सेवा करें। पिता के बाद केवल उस व्यक्ति का गुरु अध्यापक ही एकमात्र ऐसा व्यक्ति है जो अपने शिष्य को अपने से भी ज्यादा कामयाब होते देख खुशी से फूले न समाता है। बाकी के तमाम रिश्तो में कहीं ना कहीं झोल महसूस की जाती है। गुरु और शिष्य का रिश्ता सदियों से उच्च कोटि का प्रेम व सम्मान का रहा है। इस संसार में ऐसे ऐसे शिष्य भी गुजरे हैं जिन्होंने अपने गुरु के प्रति सेवा भाव या यूं कहें कि भक्ति भाव का प्रदर्शन करके गुरु और शिष्य के उच्च कोटि के संबंध को अलग-अलग रूप में परिभाषित किया है। हमारे  महान देश भारत के इतिहास मे आने वाली नस्लों के लिए गुरु और शिष्य के उच्च कोटि के प्रेम स्नेह एवं सेवा भाव की कई ऐसी नज़ीरे (उदाहरण)  मौजूद हैं जिनके बारे में पढ़कर आज का शिष्य यह समझ सकता है  कि हम से पहले किस तरह के गुरु और शिष्य गुजरे हैं आज के अपने इस लेख में, मैं गुरु और शिष्य के दरमियान उच्च कोटि के  प्रेम, स्नेह भाव  व सेवा भाव को दर्शाने की  एक छोटी सी कोशिश कर रहा हूं।
गुरु और शिष्य के बारेे में जब कुछ लिखा जाए या कहा जाए तो स्वामी विवेकानंद का नाम ना आए  ऐसा हो ही नहीं सकता अपने पिछले लेख स्वामी विवेकानंद द लीजेंड ऑफ इंडिया में मैंने स्वामी विवेकानंद और उनके गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस  के प्रति उनके उच्च कोटि के  प्रेम व सेवा भाव का वर्णन किया था कि जब स्वामी विवेकानंद के गुरु  स्वामी रामकृष्ण परमहंस अपने जीवन के अंतिम क्षणों में थे उस वक्त कैंसर की वजह से उनके गलेे में बहुत ज्यादा तकलीफ थी  और मुंह से रक्त बलगम  व थूक निकल रहा था स्वामी विवेकानंद पूरी श्रद्धा के साथ अपने गुरु जी की बीमारी की हालत में  सेवा कर रहे थे। एक दिन उनके एक अन्य शिष्य ने स्वामी जी की तरफ हीन भावना से देखते हुए मुंह मोड़ लिया। यह देख कर  स्वामी विवेकानंद ने अपनेे सहपाठी को गुरु की सेवा भाव का पाठ पढ़ाते हुए गुरुुुजी के बिस्तर के पास रखी हुई रक्त और बलगम से भरी हुई थूक दानी उठा कर स्वयं पी गए गए। स्वामी विवेकानंद का अपने गुरु के प्रति  अतुलनीय प्रेम व सम्मान तथा समर्पण अपने आप में बेमिसाल है।
गुरु और शिष्य के दरमियान सेवा भाव  असीम प्रेम व सम्मान का वर्णन करते हुए अपने पाठकों को एक ऐसे शिष्य के बारे में बताना चाहूंगा जो हिंदुस्तान का बादशाह होने के बावजूद भी एक शिष्य के रूप में अपने गुरु के प्रति सम्मान प्रेम व स्नेह भाव उस व्यक्ति के हृदय में कूट-कूट के भरा था। सन 1658 से 1707 तक लगभग 49 साल इस अजीम(महान) मुल्क हिंदुस्तान पर हुकूमत करने वाले   मुगल सल्तनत के छठे नंबर के बादशाह औरंगजेब आलमगीर की एक घटना अपने पाठकों को बताना चाहूंगा। एक बार  मुगल बादशाह औरंगजेब के गुरु औरंगजेब से मिलने के लिए उनके दरबार में पहुंचे। दरवाजे पर खड़े हुए सिपाही ने औरंगजेब के गुरु को रोक दिया और उनसे कहा बड़े मियां कहां जा रहे हो?  उनके गुरु ने कहा मुझे औरंगजेब से मिलना है। सिपाही ने गुरु जी से कहा बड़े मियां तमीज से बात करो बादशाह का नाम मेरे सामने ले रहे हो। औरंगजेब के गुरु जी ने कहा हां, मैं नाम ले रहा हूं अंदर जाओ और औरंगजेब से कहना एक बूढ़ा व्यक्ति तुम्हारा नाम लेकर तुम्हें बुला रहा है। सिपाही घबरा गया वह सोचने लगा कि आखिर यह व्यक्ति कौन है जो इतनी निडरता से बादशाह का नाम लेकर बुला रहा है। सिपाही डरते डरते दरबार में गया और बड़ी विनम्रता से बादशाह औरंगजेब से कहा,” हुजूर एक वृद्ध व्यक्ति आपका नाम लेकर आपको बुला रहे हैं।” औरंगजेब फौरन अपने सिंहासन से उठे और उन्होंने कहा मेरा नाम या तो मेरे  वालिद-ए- मोहतरम ले सकते हैं या मेरे उस्ताद।यकीनन वह मेरे उस्ताद ही होंगे इतना कहकर औरंगजेब दौड़ते हुए बाहर आए और फटे पुराने कपड़े पहने हुए अपने बूढ़े उस्ताद(गुरु) को गले से लगा लिया। यह किस्सा काफी बड़ा है कभी औरंगजेब के ऊपर लिखे गए अपने लेख में पूरा किस्सा बयान करूंगा। कहने का तात्पर्य यह है कि एक बादशाह होने के बावजूद भी औरंगजेब के दिल में अपने उस्ताद (गुरु) के प्रति जो सम्मान था वह अपने आप में अनुकरणीय है।
गुरु और शिष्य का जब जिक्र हो रहा हो तो ऐसी स्थिति में गुरु द्रोणाचार्य और शिष्य एकलव्य का जिक्र(उल्लेख) न हो तो वह जिक्र (उल्लेख) और लेख अधूरा रहेगा। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि गुरु द्रोणाचार्य पांडवों के गुरु थे और अर्जुन को धनुष विद्या सिखाते थे। गुरु द्रोणाचार्य  ने अर्जुन को आशीर्वाद दिया था कि धनुष विद्या में अर्जुन का कोई मुकाबला (प्रतिस्पर्धा) नहीं कर सकता।  एकलव्य जो एक भील जाति से ताल्लुक रखने वाला बालक था। उसने गुरु द्रोणाचार्य से  विनती की, कि गुरु द्रोणाचार्य उसे अपना शिष्य बना ले मगर गुरु द्रोणाचार्य ने एकलव्य को अपना शिष्य बनाने से यह कहकर इंकार कर दिया कि वह केवल हस्तिनापुर के  राजकुमारों को ही धनुष विद्या सिखाते हैं। यह सुनकर भी एकलव्य ने हिम्मत नहीं हारी और गुरु द्रोणाचार्य का एक पुतला बनाकर उसे ही अपना गुरु मान लिया और उस पुतले के सामने ही धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगा। होनी को कौन टाल सकता है  प्रतिभा  (Talent) किसी भी धनी व्यक्ति की जागीर (सम्प्पति) नहीं है यह झोपड़े में रहकर भी महल वालों से आगे निकल जाती है। ठीक है ऐसा ही एकलव्य और अर्जुन के साथ हुआ एकलव्य अभ्यास करते करते धनुर्विद्या में निपुण हो गया एक दिन एकलव्य  धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहा था  तभी एक कुत्ता जोर जोर से  भौक कर अभ्यास में खलल (विद्म) डालने लगा  एकलव्य ने अपनी प्रतिभा का प्रयोग करते हुए अपने तीर से उस कुत्ते का मुंह बंद कर दिया। अर्जुन ने जब उस कुत्ते को देखा तो वे अचंभित हो गए और सोचने लगे कि धनुर्विद्या में ऐसा कौन व्यक्ति है जो उनसे भी अधिक धनुष विद्या में निपुण हैं। वह तुरंत अपने गुरु द्रोणाचार्य के पास आए और उनसे घबराते  हुए कहा आपने मुझे आशीर्वाद दिया था कि धनुष विद्या में मेरा कोई मुकाबला नहीं कर सकता और दूसरी ओर आपने किसी ओर को अपना शिष्य बना कर उसे मुझसे ज्यादा निपुण बना दिया।  यह सुनकर गुरु द्रोणाचार्य बहुत  अचंभित हुए और उन्होंने अर्जुन से कहा यह तुम्हारा भ्रम है मैंने किसी ओर को अपना शिष्य नहीं बनाया। इस पर अर्जुन ने कहा तो फिर  ऐसा कौन व्यक्ति  धनुष विद्या में इतना निपुण है जो अपने तीर के द्वारा कुत्ते की आवाज को बंद कर सके।  गुरु द्रोणाचार्य उस  स्थान पर गए जहां पर एकलव्य  धनुष विद्या का अभ्यास किया करता था। गुरु द्रोणाचार्य को देखकर एकलव्य ने उनके चरण स्पर्श किए और उनके पूछने पर एकलव्य  ने गुरु द्रोणाचार्य को बताया कि उसने  ही अपने तीर के द्वारा कुत्ते का मुंह बंद किया ओर गुरु द्रोणाचार्य का पुतला बनाकर उन्हें अपना गुरु माना और धनुर्विद्या का अभ्यास किया।  गुरु द्रोणाचार्य एकलव्य की धनुष विद्या से बहुत प्रभावित हुए और उन्हें इस बात का भी एहसास हो गया था कि एकलव्य धनुर्विद्या में अर्जुन से ज्यादा निपुण है।  चूंकि गुरु द्रोणाचार्य अर्जुन को इस बात का आशीर्वाद दे चुके थे कि अर्जुन को धनुर्विद्या में कोई हरा नहीं सकता इसलिए उन्होंने एकलव्य से कहा, “एकलव्य तुम मुझे अपना गुरु मानते हो तो क्या मुझे गुरु दक्षिणा ना दोगे।” एकलव्य ने सिर झुका कर अपने गुरु जी से कहा गुरु जी आप आदेश करिए आपको क्या चाहिए गुरु द्रोणाचार्य ने एकलव्य से गुरु दक्षिणा के रूप में उसके दाएं हाथ का अंगूठा मांग लिया। अपने गुरु के प्रति सेवा भाव व भक्ति भाव दर्शाते हुए एकलव्य ने तुरंत कटार से अपना दाएं हाथ का अंगूठा काटकर गुरु द्रोणाचार्य के चरणों में रख दिया इस तरह के अपने गुरु के लिए समर्पित शिष्य आज हमारे लिए प्रेरणा स्रोत हैं। इतिहास के पन्नों में अपना अंगूठा काटकर अपने गुरु द्रोणाचार्य के चरणों में गुरु दक्षिणा के रूप में  रखने वाले शिष्य झोपड़ी में रहने वाले एकलव्य महल में रहनेेे वाले अर्जुन से कहीं आगे निकल गए। इस घटना से हमें यह सीख मिलती है कि गुरु का हमारे प्रति कैसा भी व्यवहार रहे मगर हमें किसी भी परिस्थिति में गुरु का अनादर नहीं करना है और हर हाल में अपने गुरु का आदेश का पालन करना है। दरअसल शिष्य के दिल में अपने गुरु के प्रति सम्मान व प्रेम की  भावना को उत्पन्न करने के लिए घर का माहौल और माता-पिता द्वारा अपने बच्चों को  दी गई तबीयत (संस्कार) का बहुत बड़ा योगदान होता है। ऐसा भी दौर गुजरा है जब शिष्य अपने गुरु या उस्ताद के पास जंगलों में स्थित आश्रम या कुटिया तथा मदरसों में पढ़ते थे तो उनकी उन की तरबियत (संस्कार) के लिए बच्चों के मां-बाप विशेषकर इस बात की गुरुजी से प्रार्थना करते थे कि दिनचर्या के सभी कार्य आप हमारे बच्चे से ही कराइएगा ताकि जीवन में हमारा बच्चा यह सीख सकें कि घरेलू कार्य किस प्रकार किए जाते हैं और आश्रम तथा मदरसों में पढ़ने वाले बच्चे अपने गुरु जी  के दिनचर्या के कार्य जैसे नहाने के लिए पानी की व्यवस्था करना गुरु जी के पैर दबाना भोजन करते वक्त दस्तरखान बिछाना और दस्तरखान पर भोजन सामग्री के साथ साथ पानी की व्यवस्था करना, उस्ताद के लिए वुजु के पानी का इंतजाम करना इतना ही नहीं अपने गुरु जी के लिए  बैतूल खला (शौचालय) तक में पानी भर कर रखना तलबा (शिष्यों) की ज़िम्मेदारी थी और यह सारे कार्य सभी तालिबे इल्म (शिष्य) बड़ी प्रसन्नता के साथ किया करते थे। हमारे अज़ीम ( महान) मुल्क हिंदुस्तान के अजीम  मुगल बादशाह जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर नेे अपने जानशीन नूरुद्दीन मोहम्मद सलीम को उनकी वालिदा मोहतरमा महारानी जोधा बाई के रेशमी आंचल और महल की तमाम ऐशो आराइश (सुुुख सुविधाओं) से दूर परवरिश (पालन पोषण)  सिर्फ इसलिए करवाया ताकि नूरुद्दीन मोहम्मद सलीम  एक कुशल सेनापति बन सके। यही नूरुद्दीन मोहम्मद सलीम बाद में मुगल बादशाह जहांगीर के नाम से मशहूर हुए  और उनके नाम से ज्यादा जहांगीर का इंसाफ मशहूर हुआ। पहले जमाने के असात्ज़ा हजरात (गुरुओ)  का स्वाभिमान इतना बलंद हुआ करता कि  आम लोगों की तो बात ही छोड़िए बड़ेेे-बड़े राजा महाराजा और बादशाहों के बच्चे पढ़ने के लिए आश्रम और मदरसों में खुद जाया करते थे।
मेरी प्रारंभिक शिक्षा दिल्ली में हुई है और कक्षा 1 से  कक्षा 10 तक की पढ़ाई सीबीएसई बोर्ड दिल्ली की थी। मेरे  मरहूम वालिद-ए- मोहतरम ऐफाद अली खान दिल्ली के लाल कुआं बल्लीमारान स्थित हमदर्द दवाखाना में सर्विस करते थे। जिस समय, मैं कक्षा 6 का विद्यार्थी था हमारी कक्षा के अध्यापक श्री कालीचरण सर थे।उस समय वह किराए के मकान में रहा करते थे। किसी कारणवश कालीचरण सर को दो या तीन बार मकान बदलना पड़ा 3 सााल के अंतराल में हमारे सर ने दो या  3  बार  मकान बदला क्योंकि बचपन से ही मैं अपने अध्यापकों के बहुत ही  निकट रहा और यही स्थिति आज भी बनी हुई है जहां तक संभव होता है मैं अपने अध्यापकों के संपर्क में रहने की पूरी कोशिश करता हूं।हालांकि दिल्ली मैं जिन अध्यापकों ने मुझे पढ़ाया था उनसे मिलने को और उन्हें देखने को  मेरा दिल बेताब रहता है मगर ट्रांसफर की प्रक्रिया के कारण  मैं उनसे मिल नहीं पाता  और वैसे भी ज्यादातर अध्यापक सेवानिवृत्त हो गए होंगे  मगर आज भी जब कभी भी मैं दिल्ली जाता हूं,  मैं उस विद्यालय में अवश्य जाता हूं  जिस विद्यालय से मेंने जमीन  पर  टाट पर बैठकर  मैंने अपनी  प्रारंभिक शिक्षा हासिल की उस विद्यालय को देखकर जो मुझे खुशी हासिल होती है वह सिर्फ मैं ही महसूस कर सकता हूं हालांकि अब विद्यालय की इमारत पहले जैसी नहीं रही उस जगह बहुत शानदार विद्यालय की नई इमारत बन गई है।  हमारे कक्षा अध्यापक श्री कालीचरण सर जब कभी भीअपना मकान खाली करते थे तो वह अपने मकान का सामान एक जगह से दूसरी जगह स्थानांतरित करने के लिए मजदूरों की जगह हमारी कक्षा के अन्य विद्यार्थियों को बुलातेे थे। मुझे याद है  कि मैं और मेरी कक्षा के अन्य सहपाठी  जैसे कि मुहीनउद्दीन, पवन त्यागी, सुरेंद्र कुमार, नसीम अंसारी, अली अहमद बड़ी खुशी खुशी  अपने सर के घर का सामान एक जगह सेेे दूसरी जगह हाथों में पकड़ कर पर  सिर पर रखकर ले जाते थे ओर हमें जरा सा भी इस बात का ख्याल नहीं आता था कि हमारे सर हमसे यह काम करवा रहे हैं। अपने सर के घर के सामान को सिर पर उठा कर उस समय हमें जो खुशी मिलती थी उसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता। नियमित रूप से इंटरवल मेंअपने सर के लिए  होटल से चाय लाना जरूरत पड़ने पर सर को पानी पिलाना यह छोटी-छोटी बातें सोच कर आज मेरा दिल  रब से यही दुआ करता है कि काश वो दिन फिर वापस आ जाएं।
मैं अल्लाह  का शुक्रगुजार हूं कि मुझे  ICN International Media group में  काम करने का शुभ अवसर प्राप्त हुआ जिसके कारण मैं अपने लेख के जरिए छात्र जीवन के उन सुनहरी क्षणों को और अपने उन सम्मानित अध्यापकों  को याद कर रहा हूं जिन्होंने मुझे इस लायक बनाया कि आज मैं एक अध्यापक के साथ – साथ ICN International Media group जैसे reputed organisation में Associate Editor के पद पर कार्य कर रहा हूं।  छात्र जीवन मेंं जिन अध्यापकों ने मुझे पढ़ाया  जैसे कि दीक्षित सर, सतीश सर, कालीचरण सर, भगवान दास त्यागी सर, होतीराम सर, नागर सर, आरके सिंह सर, प्रेमपाल सर, बत्रा मैडम, भारद्वाज मैडम, हरिकेश कुंतल सर, ओपी गर्ग सर, हनीफ सर, जेटली सर, हमारे प्रधान अध्यापक किशनलाल सर, रामपाल सर, प्रधानाचार्य सुरेश चंद्र मिश्रा सर, दबीरूल हसन  सर,  नसीम अहमद खान सर,  यतीश चंद्र सक्सेना सर, पुत्तू लाल सर, चिरंजीलाल सर, जाने आलम सर, विजयपाल सर। मैं अपने इन सभी सम्मानित अध्यापकों को कोटि कोटि प्रणाम करता हूं और अल्लाह ताआला से  सेहत के साथ  उनकी लंबी आयु की दुआ करता हूं वे जहां भी हो खुश रहे आबाद रहे।
मेरी तालीम व तबीयत में अगर सबसे बड़ा किसी का योगदान है  तो वह मेरी मरहूमा वालिदा मोहतरमा मिर्जा शफीक फातमा है जिनकी वजह से  मैं पढ़े लिखे लोगों के बीच में खड़ा होने के काबिल हुआ। बचपन की एक घटना मुझे याद आ रही है जब मैं कक्षा 3 का विद्यार्थी था तो एक दिन हमारे कक्षा अध्यापक दीक्षित सर अनुपस्थित थे तभी हमारे प्रधानाध्यापक हमारी कक्षा में आए और कहा आज दीक्षित साहब नहीं आए हैं इसलिए आपकी क्लास सतीश कर लेंगे। दीक्षित सर का व्यवहार जितना नरम था सतीश सर का व्यवहार उतना ही सख्त था। मैं मन ही मन बहुत डर गया क्योंकि सतीश सर बच्चों की पिटाई करने के मामले में पूरे विद्यालय में मशहूर थे और मेरे डर को मेरे एक सहपाठी जमाल ने यह कहकर और बढ़ा दिया की सलीम सतीश सर तो बहुत मारेंगे और उसने मुझे मशवरा दिया कि आज स्कूल से भाग जाते हैं। इस बेवजह के डर की वजह से मैं और जमाल दोनों स्कूल से भागकर घर चले गए। उस दिन शुक्रवार था और शुक्रवार को मेरे वालिद साहब की छुट्टी होती थी मेरी वालिदा ने मुझसे पूछा,  “क्या हुआ,  क्या स्कूल की छुट्टी हो गई?”
मैंने सब सच सच बता दिया  मेरे वालिद साहब जितने नरम थे  वालिदा साहिबा उतनी ही सख्त थी। उन्होंने तुरंत मुझे मेरे वालिद साहब के साथ विद्यालय वापस भेज दिया और मैं  खौफ वा डर के साए में रोता हुआ विद्यालय वापस गया।  मेरे वालिद साहब ने सतीश सर से कहां यह बच्चा आपके डर की वजह से क्लास छोड़कर घर चला गया था लिहाजा इसे क्लास में बैठा लीजिए और इसे मारना मत इसके बावजूद भी जब पीरियड पूरा हो गया तो सतीश सर ने मुझे बुलाकर  मेरी अपनी छड़ी से पिटाई की मैं घर आकर बहुत रोया और अपनी वालिदा साहिबा पर बहुत नाराज हुआ मगर इस के बावजूद भी मेरे  माता पिता  विद्यालय  शिकायत करने के लिए  सतीश सर के पास नहीं गए। यह अपनी  व्यक्तिगत घटना  इसलिए  बयान की  कि आजकल  यदि कोई अध्यापक  बच्चे को  उसकी भलाई के लिए थोड़ा सा भी दंड देता है  तो उसके अभिभावक  विद्यालय आकर फौरन शिकायत कर देते हैं पिछले 20 साल के अंतराल में हर रिश्ते के दरमियान कहीं ना कहीं नैतिक मूल्यों में गिरावट आई है। मेंरी अम्मी की ख्वाहिश मुझे इंजीनियर बनाने की थी मगर हालात ने इस बात की इजाजत न दी कि मैं इंजीनियरिंग की पढ़ाई पढ़ सकूं मगर मैं अल्लाह ताआला का शुक्रगुजार हूं  कि उसने मुझे अध्यापन कार्य से जोड़ा  मैं तो इंजीनियर नहीं बन पाया मगर अल्हम्दुलिल्लाह मेरे द्वारा पढ़ाए हुए विद्यार्थी इंजीनियर डॉक्टर और वकील बनकर देश की सेवा कर रहे हैं जो  मेरे लिए  एक सुखद अनुभूति का एहसास है।  अध्यापक के पास यदि कोई सबसे अनमोल धरोहर है तो वह सम्मान है जिसके साथ वे किसी भी इस स्थिति में समझौता नहीं करता।
बग़दाद के  ख़लीफा (बादशाह) हारून-अल-रशीद ने  तालीम व तबीयत  (शिक्षा एवं संस्कार) के लिए अपने पुत्र का दाखिला एक मदरसे में कराया। कुछ समय के बाद बादशाह हारून-अल- रशीद अपने पुत्र से मिलने के लिए मदरसे में गए। उस समय उनके पुत्र के उस्ताद ए मोहतरम (आदरणीय गुरु जी) वुजु कर रहे थे। बादशाह हारून-अल- रशीद का पुत्र पानी से भरा हुआ लोटा हाथ में लेकर अपने उस्ताद ए मोहतरम के पैरों पर पानी डाल रहा था। यह देख कर बादशाह हारून रशीद ने अपने पुत्र  को अपने पास बुलायाऔर अपने पुत्र से कहा, “बेटा आपको एक हाथ से  अपने उस्ताद के पैरों पर पानी डालना चाहिए और दूसरे हाथ से उस्ताद के पैर धोना चाहिए से।”बादशाहों ने और राजा महाराजाओं ने अपनेेे बच्चों को इस तरह की मैंयारी (उच्च कोटि) की तरबियत (संस्कार) दिए जिसके कारण बादशाहों के बच्चे भी  अपने गुरुओं का सम्मान अपने माता पिता की तरह ही किया करते थे।
आइए अब एक नजर डालते हैं आजकल के आधुनिक अध्यापक और विद्यार्थियों की कार्यशैली पर। इस बात से हरगिज़ इनकार नहीं किया जा सकता कि प्राचीनकाल काल  की तुलना में आजकल के आधुनिक युग के संसार में हर रिश्ते में सिर्फ माता और पिता का रिश्ता छोड़कर नैतिक गुणों प्रेम  स्नेह व सहानुभूति में जबरदस्त गिरावट आई है। गिरते हुए नैतिक स्तर के आग की लपटों से आजकल के अध्यापक और विद्यार्थीयो का रिश्ता भी नहीं बच पा रहा हैं। चूंकि मैं खुद एक अध्यापक हूं और अल्लाह  का शुक्रगुजार हूं उसने मुझे ऐसे सम्मानजनक पेशे से जोड़ा जिसमें सम्मान बहुत मिलता है। अध्यापक को राष्ट्र का निर्माता कहा जाता है और यह बात सत्य भी है कि दुनिया के किसी भी  व्यवसाय का व्यक्ति चाहे वह आगे चलकर कोई भी सरकारी या गैर सरकारी कर्मचारी बने अध्यापक बने, डॉक्टर बने, वकील बने, इंजीनियर बने, जर्नलिस्ट बने, लेक्चरर बने,प्रोफेसर बने, किसी यूनिवर्सिटी का  वाइस चांसलर बने, पी सी एस आईपीएस आईएएस अधिकारी बने, हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट  का मुख्य न्यायाधीश बने,मुख्यमंत्री बने, प्रधानमंत्री बने  या राष्ट्रपति बने इन तमाम शिखर के पदों पर पहुंचने का रास्ता विद्यालय से होकर गुजरता है और इन शिखर के पदों पर आसीन होने वाला व्यक्ति अध्यापक की उंगली पकड़कर ही आगे बढ़ता है।
माता पिता अपनी संतान को जन्म देने के बाद कच्ची व कोमल मिट्टी के समान अपने बच्चे  के सुनहरे भविष्य निर्माण हेतु अपने बच्चे को अध्यापक के हवाले करते हैं और जिस तरह से एक कुम्हार कच्ची व कोमल मिट्टी को अपने हाथों से एक सुंदर स्वरूप प्रदान करता है ठीक उसी तरह से एक अध्यापक उस मासूम बच्चे का हाथ पकड़कर उसे लिखना सिखाता है और पढ़ना सिखाता है।  मां-बाप अपना खून पिलाकर बच्चे की परवरिश करते हैं ठीक उसी तरह से एक अध्यापक अपना खून जला कर अपने विद्यार्थी के उज्जवल भविष्य की संरचना करता है। खून जला कर शब्द इसलिए प्रयोग किया कई बार ऐसा भी होता है बार बार समझाने के बावजूद विद्यार्थी की समझ में नहीं आता ऐसी स्थिति में अध्यापक क्रोधित हो जाते हैं जो इंसानी फितरत है और उस स्थिति में अध्यापक का खून जलने लगता है फिर भी वह अपने क्रोध पर काबू पाकर उससे यह नहीं कहता कि मैं तुझे नहीं पढ़ाऊंगा।  इतनी मेहनत व समर्पण के बाद जब किसी भी अध्यापक का विद्यार्थी पढ़ लिख कर शहर का  सम्मानित नागरिक बन जाता है तो उस अध्यापक को खुशी उस बच्चे के माता-पिता से कम नहीं होती है।  बदलते हुए इस दौर में विद्यार्थियों के अंदर नैतिक मूल्यों  का अकाल सा पड़ गया है बड़े ही दुख के साथ लिखना पड़ रहा है कि कुछ विद्यार्थी अपने किरदार से इतनी गिर जाते हैं कि उन्हें बाद में अपने अध्यापक को सलाम या नमसते  करने मैं शर्म आती है और यदि वह किसी भी गली में या बाजार में अपने अध्यापक को सामने से आता हुआ देख लें या तो दाएं बाएं हो जाते हैं या गर्दन झुका कर निकल जाते हैं और कुछ  अशिष्ट विद्यार्थी तो ऐसे भी हैं जो अपने अध्यापक की आंखों में आंखें मिला कर बिना सलाम या नमस्ते किए हुए निकल जाते हैं। हो सकता है ऐसे विद्यार्थी इस गलतफहमी में हो कि मेरे सलाम या नमस्ते करने से वह छोटा हो जायेगा। इस तरह केअशिष्ट विद्यार्थी अपनेे साथ साथ अपने माता पिता के संस्कारोंं पर भी  प्रश्नचिन्ह लगवाते हैं। एक अध्यापक के रूप में मैंने व्यक्तिगत रूप से यह अनुभव किया कि शहर के मुकाबले गांव के विद्यार्थियों में  अपने गुरु के प्रति  ज्यादा सम्मान होता है।
गुरु और शिष्य के दरमियान कम होते नैतिक मूल्यों के लिए केवल आजकल के विद्यार्थी ही जिम्मेदार नहीं है उसके लिए अध्यापक भी जिम्मेदार हैं।व्यक्तिगत रूप से मैं यह लिखने में कोई संकोच नहीं कर रहा कि आजकल के  कुछ अध्यापकों ने अपने आपको कमर्शियल (व्यवसायी) बना लिया है। शिक्षण कार्य कभी भी व्यवसाय नहीं बन सकता। यह तो राष्ट्र के निर्माण का वह महान कार्य है जिसकी तुलना किसी की व्यवसाय से नहीं की जा सकती। बड़े ही अफसोस की बात है कि कुछ विद्यालयों में अध्यापकों द्वारा विद्यार्थियों पर इस बात का दबाव डाला जाता है यदि उन्होंने संबंधित विषय के अध्यापक से ट्यूशन नहीं पढ़ा तो उन्हें फेल कर दिया जाएगा और यह कोई धमकी नहीं होती वास्तव में विद्यार्थियों को फैल भी कर दिया जाता है। ऐसे अध्यापक जो 50 हजार से 80 हजार प्रतिमाह सरकार से वेतन लेते हैं और उसके बाद विद्यार्थियों पर ट्यूशन पढ़ने का नाजायज  दबाव बनाते हैं।
ऐसी स्थिति में बेचारे ऐसे विद्यार्थी भी ट्यूशन पढ़ने के लिए बाध्य होते हैं जिनके परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत ही दयनीय होती है। इस प्रकार के लालची अध्यापक न केवल विद्यार्थियों के हृदय से अपना सम्मान खो देते हैं बल्कि ऐसे शिक्षित बेरोजगार व्यक्तियों के पेट पर लात मारते हैं जो प्राइवेट ट्यूशन या होम ट्यूशन करके अपना और अपने परिवार का भरण पोषण करते हैं।  मैं किसी भी सरकारी/ गैर सरकारी अध्यापक के ट्यूशन पढ़ाने का विरोधी नहीं हूं,  हां  ऐसे अध्यापकों की कड़ी भर्त्सना करता हूं जो विद्यार्थियों पर ट्यूशन पढ़ने के लिए यह कहकर दबाव बनाते हैं यदि तुमने हम से ट्यूशन नहीं पढ़ा तो तुम फेल हो जाओगे यदि कोई विद्यार्थी अपनी मर्जी से अपने संबंधित विषय के अध्यापक से ट्यूशन पढ़ना चाहता है तो शौक से पढ़ें कोई बुराई नहीं है लेकिन प्रैक्टिकल में नंबर दिलवाने या पास कराने या फेल कराने की आड़ में विद्यार्थी का शोषण नहीं होना चाहिए।  कोचिंग की आड़ में जिस तरह से विद्यार्थियों का आर्थिक शोषण किया जा रहा है वह बिल्कुल गलत है। एक घंटे की कोचिंग में एक बड़े से हॉल में 80 विद्यार्थियों को बिठाकर पढ़ाना मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुमकिन है क्योंकि अभी ना तो साइंस ने इतनी तरक्की की है और ना ही इंसान ने और यकीनन किसी भी अध्यापक के पास कोई जादू की छड़ी भी नहीं होती जो हाल में बैठे हुए 80 विद्यार्थियों के सिर पर छड़ी घुमाए और विद्यार्थी को अंग्रेजी की ग्रामर और मैथ के फार्मूले समझ में आ जाएं।  जिस तरह से हम किसी गेंद को दीवार की जानिब फेकते हैं तो वह गेंद उसी गति से हमारी तरफ वापस आती है ठीक इसी तरह से संसार का नियम है यदि हम अपने  छोटो का  चाहे वह हमारा विद्यार्थी हो छोटा भाई हो मित्र हो पड़ोसी हो या कोई और, यदि हमें अपना सम्मान कराना है तो हमें अच्छा लगे या न लगे हमेंं अपने छोटो का सम्मान हर हालत में करना पड़ेगा क्योंकि इज्जत के तलबगार (इच्छुक) बढ़ो के साथ साथ छोटे भी होते हैं क्योंकि अभी तक किसी भी मेडिकल साइंस के रिसर्च सेंटर में इस बात की खोज नहीं हो पाई है की बबूल का पेड़ लगा कर  हमें आम की प्राप्ति हो सके।
“As we sow, so we will reap.”
 जैसा कि हम सभी जानते हैं की ताली एक हाथ से नहीं बजती संसार के किसी भी रिश्ते को हेल्दी एंड वेल्थी रखने के लिए mutual cooperation आपसी सामंजस्य और एक दूसरे के प्रति सम्मान की भावना का होना बहुत ही आवश्यक है। अक्सर छोटी-छोटी बातों से बड़े-बड़े रिश्ते टूट जाते हैं या यूं कहें रिश्तो में दूरियां हो जाती हैं चाहे वो रिश्ता विद्यार्थी और अध्यापक के दरमियान हो मित्रों के दरमियान हो या सगे संबंधियों के दरमियान हो।

 जरा अपने दिल को भी टटोलिए साहिब
 फासले यूं बेवजह नहीं होते।”
यह लेखक के अपने व्यक्तिगत विचार हैं यदि इस लेख में कोई त्रुटि हो या किसी भी सम्मानित पाठक के हृदय को कोई कष्ट पहुंचा हो उसके लेखक क्षमा चाहता है। मोहम्मद सलीम खान (एसोसिएट एडिटर) आईसीएन मीडिया ग्रुप।

Share and Enjoy !

Shares

Related posts