उर्दू शायरी में ‘आसमान’ : 1

तरुण प्रकाश श्रीवास्तव, सीनियर एग्जीक्यूटिव एडीटर-ICN ग्रुप

आखिर यह आसमान है क्या? सुनते हैं – दिन को नीला, रात को काला और कभी-कभी अपनी ही मनमर्ज़ी से रंग बदलने वाला यह आसमान सिर्फ़ एक फ़रेब भर है।

विज्ञान कहता है कि आसमान, आकाश, नभ, गगन, अंबर, फ़लक, अर्श या आप उसे जो भी कहते हैं, शून्य मात्र है। शून्य अर्थात ज़ीरो अर्थात कुछ भी नहीं। शून्य का कहीं कोई अस्तित्व नहीं होता लेकिन हमें तो सर के ऊपर इतना बड़ा आसमान दिखाई देता है जिसका न कोई ओर है न कोई छोर। जो दिखता है, वह है नहीं और जो है नहीं, वह हमेशा दिखता है – आखिर यह कैसी पहेली है? जो चीज़ है ही नहीं- क्या वह इतनी खूबसूरत हो सकती है? भोर का आसमान, प्रातः काल का आसमान, दोपहर का अासमान, सूरज के डूबने के समय का आसमान, रात में तारों से भरा आसमान, बारिश के समय का बादलों से भरा आसमान, सर्दियों में कोहरे में ठिठुरता आसमान – इतने अलग-अलग रूप – इतने अलग-अलग रंग – और उस पर यह स्थापित तथ्य कि आसमान तो है ही नहीं।

चलिये, मान लिया कि आसमान कुछ भी नहीं तो हमारी दुआयें कहाँ जाती हैं, हमारी प्रार्थनाओं का गंतव्य क्या है और … और हम स्वयं भी इस धरती पर अपना कार्यकाल पूरा करके कहाँ चले जाते हैं? आखिर यह जन्नत कहाँ है, यह स्वर्ग किधर है और ये सूरज, चाँद सितारे किसके दामन में टँके हुये हैं? हमारे माज़ी की तस्वीरें कौन चुरा ले जाता है, हमारी आवाज़ें कहाँ चली जाती हैं, समय किधर से आता है और फिर किधर चला जाता है? आखिर हमारी दुनिया में ज़िन्दगी कहाँ से आती है? आखिर हमारी मौत हमारी दुनिया से हमें कहाँ ले जाती है?

एक आसमान न होने से ढेर सारे सवाल खड़े हो जाते हैं। कितनी जटिलताएं हमें चिढ़ाने लगती हैं और बुद्धि और विवेक पर कितने ही भ्रम की घटायें छा जाती है। कितना आसान होता है कि जब कुछ समझ से परे हो तो उसे आसमानी शय करार दे दिया जाये और अपना पल्ला झाड़ लिया जाये लेकिन आसमान न होने से तो कुछ भी संभव नहीं।

मुझे तो लगता हेै कि आसमान अवश्य है वरना हमारे हज़ारों शायरों कवियों ने उसके सदके न किये होते, उसकी शान में क़सीदे न पढ़े होते। न जाने क्या-क्या देखा है उन्होंने आसमान में। हमारा ईश्वर, हमारा खुदा भी आसमान में ही है, हमारी आशायें और हमारी उम्मीदें भी आसमान में ही हैं और हमारी बरक़त और हमारे लिये क़हर, दोनों आसमान से ही आते हैं। कभी आपने सोचा है – जब आसमान नहीं होगा तो हमारी धरती कितनी अकेली रह जायेगी? हमारी दुनिया की छत हमेशा के लिये खो जायेगी और हमारे सिर कितने नंगे रह जायेंगे?

कितना दिलचस्प होगा उर्दू शायरी के यूनिकोन घोड़े से आसमान तक पहुँचना और शायरों की निगाह से वो हसीन मंज़र देखना जो हमारी हक़ीक़ी नज़र से देख पाना हर्गिज़ नामुमकिन है। तो आइये, आपके साथ शुरू करते हैं दुनिया का यह सबसे खूबसूरत सफ़र – उर्दू शायरी में ‘आसमान‘।

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी का जन्म वर्ष 1747 में व निधन वर्ष 1824 में हुआ। वे लखनऊ स्कूल के 18वीं सदी के महान् शायरों में एक थे व मीर तक़ी ‘मीर‘ के समकालीन थे। आसमान को समझना आसान नहीं है। जो है, वह नहीं है और जो नहीं है, वह है। अजीब शय है यह आसमान भी। आसमान पर उनका यह खूबसूरत शेर देखिये –

फ़लक की ख़बर कब है ना-शाइरों को,

यूँही घर में बैठे हवा बाँधते हैं।”

मोमिन खाँ मोमिन का जन्म वर्ष 1801 में दिल्ली में हुआ और 14 मई, 1852 को उनकी मृत्यु  हो गई। वे मुग़ल काल के अंतिम दिनों के शायरों में प्रथम पंक्ति  के शायर थे और ग़ालिब व ज़ौक़ जैसे बेमिसाल  शायरों के समकालीन  थे। उन्होंने उर्दू शायरी की दूसरी विधाओं, क़सीदे और मसनवी में भी अभ्यास किया लेकिन उनका असल मैदान ग़ज़ल है जिसमें वो अपनी तर्ज़ के अकेले ग़ज़लगो हैं।उनके कुल्लियात(समग्र) में छः मसनवीयाँ मिलती हैं और हर मसनवी किसी प्रेम प्रसंग का वर्णन है। आसमान पर उनका यह खूबसूरत शेर देखिये –

डरता हूँ आसमान से बिजली न गिर पड़े

सय्याद की निगाह सू-ए-आशियाँ नहीं ।”

लाला माधव राम जौहर का जन्म वर्ष 1810 में और उनका निधन वर्ष 1890 में हुआ। उनका फ़र्रुख़ाबाद (उ॰प्र॰) के एक दौलतमंद घराने से संबंध था जहाँ उनकी कोठी पर शायरों का जमघट रहा करता था। बाद में वे आख़िरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ‘ज़फ़र’ के दरबार में एक सम्मानित पद पर रहे। आज़ादी की पहली जंग लड़ने वालों का साथ देने के लिए उनकी जायदाद ज़ब्त कर ली गई। उनके बहुत से अशआर आम लोगों के बीच मुहावरों की शक्ल में घुल-मिल गये हैं। आसमान पर उनका यह शेर देखिये –

 

ज़र्रा समझ के यूँ न मिला मुझ को ख़ाक में

ऐ आसमान मैं भी कभी आफ़्ताब था ।”

ज़हीर देहलवी ज़ौक़’ और ‘ग़ालिब’ के बा’द की पीढ़ी के बहुत महत्वपूर्ण शायर हैं। उनका जन्म 1825 में हुआ। वे ‘दाग़’ के समकालीन थे और ‘ज़ौक़’ के शार्गिद थे। अख़िरी उम्र हैदराबाद में गुज़री और 18 मार्च, 1911 को वहीं पैवंद-ए-ख़ाक हुए। ‘अट्ठारह सौ सत्तावन‘, ‘दास्तान-ए-गदर‘ और ‘दीवान-ए-ज़हीर‘ उनकी पुस्तकें हैं। फ़लक और दुआ का गहरा रिश्ता है। यह खूबसूरत  शेर देखिये –

किस मुँह से हाथ उठाएँ फ़लक की तरफ़ ज़हीर‘,

मायूस है असर से दुआ और दुआ से हम।”

बयान मेरठी का जन्म वर्ष 1840 में तथा मृत्यु वर्ष 1900 में हुई। वे  मेरठ, भारत के बाशिंदे थे। वे दाग़ के समकालीन थे और उन्होंने उर्दू और फ़ारसी में शायरी की। आधुनिक शायरी के आंदोलन से प्रभावित होकर उन्होंने आधुनिक अंदाज़ की नज़्में भी लिखीं। आसमान के कैनवास पर प्रकृति की चित्रकारी की इससे खूबसूरत तस्वीर भला कहाँ मिलेगी  –

 

नैरंगियाँ फ़लक की जभी हैं कि हों बहम,

काली घटा सफ़ेद प्याले शराब-ए-सुर्ख़।”

रियाज़ ख़ैराबादी का जन्म 1853 में व इंतक़ाल 30 जुलाई,1934 में ख़ैराबाद (उत्तर प्रदेश) में हुआ। वे अमीर मीनाई के शागिर्द  थे। वे शराब पर शायरी के लिए बहुत प्रसिद्ध थे जब कि कहा जाता है कि उन्होंने शराब को कभी हाथ भी नहीं लगाया। ‘इंतख़ाब-ए-रियाज़ ख़ैराबादी‘ व ‘रियाज़-ए-रिज़वान‘ उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। आसमान पर उनका यह खूबसूरत शेर देखिये –

आई बोतल भी मय-कदे से रियाज़‘,

जब घटा आसमान पर आई।”

सय्यद इफ़्तिख़र हुसैन मुज़्तर ख़ैराबादी‘ का जन्म वर्ष 1869 में, ज़िला सीतापूर (उत्तर प्रदेश) के मश्हूर क़स्बे ख़ैराबाद में हुआ और उनका निधन निधन 29 मार्च, 1927 को ग्वालियर, मध्यप्रदेश में हुआ।  शिक्षा-दीक्षा उनकी माँ ने, की जो अरबी, फ़ारसी और उनकी उर्दू की विद्वान और शायरा थीं। ‘मुज़्तर’ अपनी शुरू’ की शायरी अपनी माँ ही को दिखाते थे, मगर बालद में ‘अमीर’ मीनाई को उस्ताद बनाया, हालाँकि ये उस्तादी सिर्फ़ एक ग़ज़ल तक सीमित थी। ‘मुज़्तर’ ने टोंक, ग्वालियर, रामपूर, भोपाल और इंदौर के रजवाड़ों और रियासतों में नौकरियाँ कीं। मश्हूर शायर और फ़िल्म-गीतकार जाँ-निसार अख़्तर उनके बेटे थे और फिल्म-कथाकार, गीतकार और शायर जावेद अख़्तर उनके पोते हैं। उनका एक शेर ‘वक़्त दो मुझ पर कठिन गुज़रे हैं सारी उम्र में, इक तिरे आने से पहले इक तिरे जाने के बाद‘ बहुत मशहूर है। कभी कभी सितम एक जंज़ीर की मानिंद होता है जिसकी एक कड़ी के बाद एक कड़ी और जुड़ी होती है। इस आसमान में न जाने कितने आसमान छिपे हुये हैं। यह शेर देखिये –

 

इक सितम मिट गया तो और हुआ,

आसमाँ आसमान से निकला।”

सर अल्लामा इक़बाल का वास्तविक नाम मोहम्मद इक़बाल था तथा उनका जन्म वर्ष 1877 में सियालकोट, पंजाब (अब पाकिस्तान में) में हुआ था। कहा जाता है कि सबसे पहले पाकिस्तान की स्थापना का विचार उन्हीं के मस्तिष्क में आया था। वर्ष 1938 में उनका निधन हुआ। पाकिस्तान की स्थापना के बाद उनकी मृत्यु हो जाने के बावजूद भी उन्हें पाकिस्तान के राष्ट्रीय कवि के सम्मान से नवाजा गया। उर्दू शायरी में मिर्ज़ा ग़ालिब के बाद अल्लामा इक़बाल का नाम बड़े ही ऐहतराम से लिया जाता है। आसमान पर उनका यह खूबसूरत शेर न केवल हौसलों की बात करता है बल्कि यह आध्यात्म की ओर भी संकेत करता है –

 

उक़ाबी रूह जब बेदार होती है जवानों में। 

नज़र आती है उन को अपनी मंज़िल आसमानों में॥”

क़मर जलालवी का का जन्म 1887 में अलीगढ़, भारत में हुआ तथा देश के विभाजन के पश्चात वे कराची,  पाकिस्तान चले गये जहाँ 24 अक्टूबर,1968 को उनका निधन हो गया। ‘रश्क़-ए-क़मर‘ उनका प्रसिद्ध दीवान है। ज़िंदगी  बहुत खूबसूरत है मगर बहुत मानीख़ेज़ भी है। कुछ लोग सारी उम्र केवल ज़िंदगी के अर्थ ढूंढते रह जाते हैं जबकि कुछ लोग ज़िंदगी को नया अर्थ दे देते हैं। उनका यह शानदार शेर देखिये –

 

वो चार चाँद फ़लक को लगा चला हूँ क़मर‘,

कि मेरे बअद सितारे कहेंगे अफ़्साने।”

वज़ीर आग़ा का जन्म जन्मतिथि 18 मई, 1922 को सरगोधा (पाकिस्तान) में व निधन 8 सितंबर, 2010 को लाहौर में हुआ। वे मशहूर साहित्यकार, निबंधकार, समालोचक व शायर थे। ‘चहक उठी लफ़्ज़ों की छागल‘, ‘ दस्तक उस दरवाज़े पर‘, ‘आधी सदी के बाद‘, ‘चोरी से यारी तक‘ और ‘घास में तितलियाँ‘ आदि उनकी पुस्तकें हैं। आसमाँ के पैमाने से रिश्तों की दूरियों की पड़ताल करता उनका यह खूबसूरत शेर देखिये –

 

ज़मीं के ताल सब सूखे पड़े हैं,

परिंदे आसमाँ-दर-आसमाँ हैं।”

अकबर हैदराबादी का जन्म 20 जनवरी,1925 को हैदराबाद में हुआ। उनका मूल नाम अकबर अली ख़ाँ है। उच्च शिक्षा के लिए वह 1955 में आक्सफ़ोर्ड चले गये और फिर यहीं के हो रहे। आर्किटेक्ट के शैक्षिक व व्यवहारिक सफ़र में वह बराबर शे’र कहते रहे। उनके कई काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं जिनमें ‘आवाज़ों का शह्र‘, ‘कर्जं माह-ओ-साल के‘, ‘नमू की आग‘ और ख़त-ए-रहगुज़र‘ प्रमुख हैं। उनकी शायरी के अंग्रेज़ी अनुवाद की दिलचस्पी से पढ़े गये। आसमान की खूबसूरती  का ज़िक्र देखिये –

रुत बदली तो ज़मीं के चेहरे का ग़ाज़ा भी बदला 

रंग मगर ख़ुद आसमान ने बदले कैसे कैसे ।”

 

‘गाज़ा‘ का अर्थ है – चेहरे पर लगाने वाला पाउडर।

मोहम्मद अल्वी का जन्म 10 अप्रैल 1927 को अहमदाबाद (गुजरात) में हुआ और 29 जनवरी, 2018 को उनकी मृत्यु हुई। 1947 में पहली ग़ज़ल लिखी जिससे उनकी, अपने ढंग की अनोखी शायरी, का सिलसिला चल निकला और उर्दू शायरी में एक नए अध्याय जुड़ा। ‘ख़ाली मकान’, ‘आख़िरी दिन की तलाश’, ‘तीसरी किताब’ और ‘चौथा आस्मान’  आदि उनके दीवान हैं। उनका कविता-समग्र ‘रात इधर-उधर रौशन’ नाम से प्रकाशित है। यह शेर देखिये –

 

आसमान पर जा पहुँचूँ ।

अल्लाह तेरा नाम लिखूँ ॥”

रसा चुग़ताई का जन्म अविभाजित भारत में वर्ष 1928 में हुआ था तथा विभाजन के बाद वे पाकिस्तान चले गये। उनका असली नाम मिर्ज़ा मुहताशिम अली बेग़ था। उनकी मृत्यु 5 जनवरी, 2018 को कराची में हुई। ‘रेख़्ता‘ और ‘तेरा इंतज़ार रहा‘ उनके दीवान हैं। ख़्वाब पर उनका खूबसूरत शेर देखिये –

 

हम किसी को गवाह क्या करते

इस खुले आसमान के आगे।”

अहमद फ़राज़ 12 जनवरी, 1931 में कोहाट के एक प्रतिष्ठित सादात परिवार में पैदा हुए। उनका मूल नाम सैयद अहमद शाह था। अहमद फ़राज़ ने जब शायरी शुरू की तो उस वक़्त उनका नाम अहमद शाह कोहाटी होता था जो बाद में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के मश्विरे से अहमद फ़राज़ हो गया। वे पाकिस्तान और भारत, दोनों ही मुल्कों में समान रूप से लोकप्रिय थे। ‘जानाँ-जानाँ’, ‘ख़्वाब-ए-गुल परेशाँ है’, ‘ग़ज़ल बहा न करो’, ‘दर्द-ए-आशोब’, ‘तन्हा तन्हा’, ‘नायाफ़्त’, ‘नाबीना शहर में आईना’, ‘बेआवाज़ गली कूचों में’, ‘पस-ए-अंदाज़ मौसम’, ‘शब ख़ून’, ‘बोदलक’, ‘यह सब मेरी आवाज़ें हैं’ और ‘मेरे ख़्वाब रेज़ा रेज़ा’  आदि उनके प्रसिद्ध दीवान हैं।  25 अगस्त, 2008 को इस्लामाबाद, पाकिस्तान में उनका निधन हो गया। आसमान पर उनका यह खूबसूरत शेर आपके लिये –

अब ज़मीं पर कोई गौतम न मोहम्मद न मसीह,

आसमानों से नए लोग उतारे जाएँ।”

क्रमशः

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