अपनी आज़ादी को हम, हरगिज़ मिटा सकते नही…..

एज़ाज़ क़मर, एडिटर-ICN 
सर पर मैला ढोने और शवो का अंतिम संस्कार करने जैसे अमानवीय कार्य करने वाले भारतीय जब अघोषित आरक्षण से बदहाल हुई अपनी आर्थिक और सामाजिक स्थिति को सुधारने के लिए मिले संवैधानिक आरक्षण को बचाने के लिए सड़को पर आते है तब उन्हे असामाजिक तत्व कहकर पेड मीडिया के माध्यम से बदनाम किया जाता है।
जल-जंगल-भूमि के संविधानिक अधिकार की रक्षा के लिए संघर्षरत आदिवासियो को तानाशाही राजनीतिज्ञो ने आतंकवादी बना दिया फिर उसकी आड़ मे ब्यूरोक्रेसी द्वारा आदिवासियो पर किए गए अत्याचारो ने ऐसी इबारत लिखी जिसने कलम की नीली रोशनाई को खून का लाल रंग दे दिया।
संसद भवन से लेकर टीवी चैनलो के न्यूज़ रूम तक मुसलमान असुरक्षित है और उसे पता नही होता है कि कब बलि का बकरा बनाकर वोटो की राजनीति शुरू हो जाए?
पता ही नही चला कि कब देश का अन्नदाता जनता का पेट भरते-भरते देश की सुरक्षा के लिए खतरा बन गया है? सर की पगड़ी जो भारतीय पुरुष के सम्मान का प्रतीक थी कैसे वह पगड़ी इस संघर्षरत किसान को खालिस्तानी आतंकवादी बना गई?
आजतक न्यायाधीश की बगल मे बैठे हुए पेशकार द्वारा रिश्वत लेने पर पाबंदी नही लगी किंतु प्रशांत भूषण को सच बोलने की सजा भुगतनी पड़ी हालांकि जुर्माने के रूप मे उन्हे एक रुपए का भुगतान करना था किंतु वह एक रूपया भ्रष्टाचार मुक्त भारत का सपना देखने वाले एक अरब वयस्क भारतीय मतदाताओ के मुंह पर ज़ोरदार तमाचा था।
लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहलाने वाली मीडिया ज़ंक खाए लोहे के खंभो की तरह लोकतंत्र की इमारत गिरने का कारण बन सकती है क्योकि इस पेड-मीडिया ने पत्रकारिता की सारी मर्यादाओ को ताक पर उठाकर रखते हुए मानवीय मूल्यो की हत्या कर डाली है।
आज हर देशभक्त भारतीय का मन रो-रो कर प्रश्न कर रहा है क्या यही दिन देखने के लिए हमारे पूर्वजो ने आज़ादी की लड़ाई लड़ी थी क्योकि चंद लोगो के दुष्कर्मो की वजह से आज आजादी बे-मायने हो चुकी है। लोकतांत्रिक मूल्यो को क्षति पहुचाने वाले अपराधियो की सफलता ने फासीवादी तथा अलगाववादी शक्तियो को अवसर दे दिया है और वह भारत मे लोकतंत्र की हत्या करके तानाशाही व्यवस्था को जन्म देना चाहती है।
सात दशको के अंदर ही हमे आज़ादी बोझ लगने लगी है और यह सोच खतरे की घंटी बजा रही है क्योकि समस्या कितनी भी ज़्यादा क्यो ना हो लेकिन वह आजादी कीमत से ज्यादा नही हो सकती है इसलिए हर कीमत पर हमे अपनी बहुमूल्य आजादी को बचाना होगा और हालात से मायूस देश की जनता को समझाना होगा।
1964 मे रीलीज़ हुई हिंदी फिल्म लीडर मे शकील बदायूंनी द्वारा लिखी गई पंक्तियां हमे हर भारतीय को रटाते हुए आज़ादी के मुजाहिदो की कुर्बानियां याद करानी होगी….
“हमने सदियो मे ये आज़ादी की नेमत पाई है,
सैकड़ो कुर्बानियां देकर ये दौलत पाई है,
मुस्कुराकर खाई है सीनो पे अपने गोलियां,
कितने वीरानो से गुज़रे है तो जन्नत पाई है,
ख़ाक मे हम अपनी इज़्ज़त को मिला सकते नही।
अपनी आज़ादी को हम,
हरगिज़ मिटा सकते नही।
सर कटा सकते हैं लेकिन,
सर झुका सकते नही।।”
स्वतंत्रता एक ईश्वरीय कृपा है जिसका मूल्यांकन असंभव है आज़ादी की अहमियत वही लोग जानते है जो आज भी आज़ादी के लिए संघर्ष कर रहे है और अपने प्राण निछावर करने के लिए तत्पर है। लाखो भारतीय शहीदो ने अपनी जिंदगी कुर्बान करी थी तब जाकर 15 अगस्त 1947 को देश स्वतंत्र हुआ किंतु आज हम इतिहास बदलने के षड्यंत्रो तथा चंद हिंसक घटनाओ के कारण निराश होकर ऐतिहासिक आंदोलन को नजरअंदाज कर रहे है कि जैसे हिंदुस्तान की आज़ादी कोई बहुत मामूली सी घटना हो अर्थात बहुत सरलता से स्वतंत्रता के लक्ष्य को प्राप्त कर लिया गया हो।
आज हमारी आबादी 140 करोड़ है और अगले दशक मे देढ़ अरब हो जाएगी किंतु जिले मे दो-तीन हिंसक घटनाएं हो जाए तो पूरे शहर का वातावरण तनावपूर्ण हो जाता है और मीडिया पर बहस तथा ट्रायल शुरू हो जाता है लेकिन क्या हमने कभी सोचा है कि उस दौर के भारतीय मुसलमानो विशेषकर सर सैयद अहमद खां साहब के ऊपर क्या गुज़री होगी जब वह 1857 की असफल क्रांति के बाद दिल्ली से अलीगढ़ जा रहे थे तब सड़क के किनारे मौजूद हर पेड़ पर मुस्लिम नौजवान लड़को की लाशे लटक रही थी जिन्हे अंग्रेज़ो ने स्वतंत्रता संग्राम की ज्वाला प्रज्वलित करने के अपराध मे फांसी दे दी थी। ऐसा माना जाता है कि लगभग 27000 मुस्लिम नौजवानो को दिल्ली के आसपास के पेड़ो पर अंग्रेजो ने फांसी पर लटकाया था जबकि कुछ विद्वानो का मत है कि यह संख्या एक लाख से अधिक हो सकती है।
पूर्व सांसद एहसान जाफरी और उनके पड़ोसियो को गुजरात दंगे के दौरान ज़िंदा जलाए जाने की घटना से व्यथित बुद्धिजीवी वर्ग को अंग्रेजो द्वारा किए गए ऐसे ही अत्याचारो की जानकारी क्यो नही है? क्योकि महान क्रांतिकारी क़ाज़ी अब्दुल रहीम की माता असग़री बेगम जैसी कुर्बानी की दूसरी मिसाल इतिहास मे नही मिलती है जब असग़री बेगम मुजफ्फरनगर के थाना भवन मे मुस्लिम महिला क्रांतिकारियो का नेतृत्व कर रही थी तब उन्हे अंग्रेजो ने 225 महिलाओ के साथ जिंदा जला दिया था।
बिहार के सुल्तानगंज मे ‘तिलकपुर’ नामक गाँव मे 11 फरवरी, 1750 को एक संथाल परिवार मे जन्मे तिलका मांझी का नाम 1% भारतीय भी नही जानते है जबकि इस महान भारतीय ने सशस्त्र क्रांति की नींव रखी थी और साल 1770 मे जब भीषण अकाल पड़ा तो तिलका ने अंग्रेज़ी शासन का खज़ाना लूटकर उसे आम गरीबो मे बाँट दिया जिससे कारण आदिवासी उनको अपना हीरो मानते हुए संथाल-हुल अर्थात सशस्त्र आंदोलन से जुड़ गए फिर साल 1784 मे उन्होने भागलपुर पर हमला करते हुए 13 जनवरी 1784 मे ताड़ के पेड़ पर चढ़कर घोड़े पर सवार अंग्रेज़ कलेक्टर ‘अगस्टस क्लीवलैंड’ को अपने जहरीले तीर का निशाना बनाकर मार गिराया, जिससे अंग्रेज सरकार की जड़े हिल गई फिर उन्होने फूट डालो राज करो की नीति अपनाते हुए तिलकामांझी के साथियो को रिश्वत देकर खरीद लिया फलस्वरूप तिलका मांझी गिरफ्तार हुए और 13 जनवरी 1785 को उन्हे एक बरगद के पेड़ से लटकाकर फांसी दे दी गई थी।
15 नवम्बर 1875 को ग़रीब किसान परिवार मे जन्मे बिरसा मुण्डा ने 1 अक्टूबर 1894 को सभी आदिवासियो को एकत्र करके अंग्रेजो से लगान (कर) माफी के लिये आन्दोलन किया जिसके कारण 1895 मे उन्हे गिरफ़्तार कर लिया गया और हजारीबाग केन्द्रीय कारागार मे दो साल के कारावास की सजा दी गयी लेकिन बिरसा और उसके सहयोगियो ने क्षेत्र की अकाल पीड़ित जनता की सहायता करने की ठान रखी थी और अपनी कुर्बानियो से उन्होने अपने छोटे से जीवन काल मे ही एक महापुरुष का दर्जा पा लिया था इसलिए उन्हे देश के सभी आदिवासी “धरती बाबा” अर्थात सर्वोच्च पुरखा के नाम से पुकारा करते थे। 1897 से 1900 के बीच मुंडाओ और अंग्रेज सिपाहियो के बीच युद्ध होते रहे जिसमे हज़ारो आदिवासियो ने अपने प्राण निछावर कर दिए फिर जनवरी 1900 डोम्बरी पहाड़ पर संघर्ष हुआ और वह 3 मार्च 1900 को चक्रधरपुर मे गिरफ़्तार कर लिये गये इसलिए अंग्रेज़ो को अवसर मिल गया और उन्होने रांची मे 9 जून 1900 को ज़हर देखकर  बिरसा मुंडा की हत्या कर दी।
प्लासी की ऐतिहासिक जंग लड़ने वाले नवाब सिराजुद्दौला ने 24 वर्ष की अल्पायु और दक्षिण के शेर टीपू सुल्तान ने 47 वर्षीय की आयु मे अपने प्राण मातृभूमि की रक्षा के लिए अर्पित कर दिए थे। मुस्लिम सूफी संतो ने फकीर का रूप धारण करके सन्यासी-आंदोलन को चरम सीमा पर पहुंचा दिया जिससे अंग्रेज बौखला गए थे फिर लाल-रुमाल और खिलाफत जैसे आंदोलनो के सहारे मुसलमान स्वतंत्रता संग्राम सेनानियो ने अंग्रेज़ो की नींदे हराम कर दी थी और उन्हे भारत को छोड़ने जैसे विषय पर सोचने के लिए मजबूर कर दिया था। काकोरी घटना मे अशफ़ाकउल्ला ने अपनी जिंदगी कुर्बान करके हिंदू मुस्लिम एकता की अद्भुत मिसाल कायम करी थी जिसको गदर आंदोलन ने मजबूत करते हुए कांग्रेस को हिंदू-मुस्लिम एकता स्थापित करने के लिए ज़मीन मुहैया करवाई।
बेगम हज़रत महल की तरह दूसरी मुसलमान महिलाओ ने आज़ादी की लड़ाई के लिए अपना सर्वस्व निछावर कर दिया जिनमे मौलाना मोहम्मद अली जौहर की माता बी-अम्मा का नाम भुलाए से नही भूलता है हालांकि उनकी बहू अमजदी बेगम की कुर्बानी भी किसी से कम नही थी। डॉक्टर लुकमानी की पत्नी और बदरूद्दीन तैयब की बेटी सकीना लुकमानी तथा मौलाना अबुल कलाम आजाद की पत्नी जुलेक़ा बेगम का संघर्ष भी प्रेरणा का स्रोत है।
बदरुद्दीन तैयब जी की पोती सुरैया तैयब ने हमारे तिरंगा ध्वज का डिजाइन तैयार किया था हालांकि यह विवादास्पद विषय है लेकिन यह भी कड़वा सच है कि हम हज़ारो मुसलमान स्वतंत्रता सेनानियो के नाम भी नही जानते है जिन्होने हमारी आज़ादी के लिए अपनी जिंदगी कुर्बान कर दी थी और आजतक उनको उसका श्रेय भी नही मिला जिसके वह हक़दार थे इसलिए हमारा दायित्व है कि हम उन सभी नायको तथा नायिकाओ को सलाम करे जिन्होने भारत के स्वतंत्रता संग्राम के लिए अपनी जिंदगी कुर्बान कर दी थी।
कुछ फासीवादी बौद्धिक कुटिलता का उपयोग करते हुए तर्क देते है कि सिराजुद्दौला, टीपू सुल्तान तथा बहादुर शाह जफर की लड़ाई तो अपनी सत्ता को बचाने के लिए थी। यदि हम इन कुतर्को को स्वीकार कर ले तो फिर मंगल पांडे की लड़ाई कैसे स्वतंत्रता संग्राम की शुरुआत हो सकती है क्योकि मंगल पांडे तो अंग्रेज़ो का नौकर था और अगर अंग्रेज़ गाय की चर्बी का उपयोग नही करते तो मंगल पांडे जीवन भर उनकी सेवा करता रहता?
सतर्कता हटी दुर्घटना घटी के सिद्धांत पर चलते हुए हमे बांटने वाली शक्तियो के षड्यंत्र मे फंसने के बजाय जोड़ने वाली ताकतो का समर्थन करना चाहिए और अपने शहीदो को याद करते हुए अपनी आजादी पर गर्व करना चाहिए।
हर नमाज़ के बाद हमे दुआ करना चाहिए कि “ए परवरदिगार! हमारी आज़ादी और मुल्क को सलामत रख”,आमीन या रब्बुल आलमीन।। 

एज़ाज़ क़मर (रक्षा, विदेश और राजनीतिक विश्लेषक)

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