गीत-गीता : 20

तरुण प्रकाश श्रीवास्तव , सीनियर एग्जीक्यूटिव एडीटर-ICN ग्रुप 

 

(श्रीमद्भागवत गीता का काव्यमय भावानुवाद)

तृतीय अध्याय (कर्म योग)

(छंद 01-43)

 

श्रीकृष्ण : (श्लोक 16-21)

 

पार्थ! जो पुरुष सृष्टि का चक्र

न समझे, करे कर्म आचार।

करे जो रमण भोग में मात्र,

पूर्ण जीवन उसका बेकार।।(16)

 

किंतु कर्तव्य नहीं कुछ और,

अगर जन रहे आत्म में लीन।

रहे संतुष्ट सदा हर भाँति,

तृप्ति के साथ रहे तल्लीन।।(17)

 

कर्म करना, न करना कर्म, 

प्रयोजन उसका एक समान।

विरत रहता निज हित से और,

स्वार्थ से वंचित मनुज महान ।।(18)

 

इसलिये श्रेष्ठ यही है पार्थ,

बिना आसक्ति कर्म संधान।

मात्र होता ऐसा ही व्यक्ति,

परमसत्ता में अंतर्ध्यान।।(19)

 

जनक जैसे ज्ञानी के कर्म,

बिना फल इच्छा के सम्पन्न ।

हुये थे वे सद्गति को प्राप्त,

कर्म का कर विचार उत्पन्न।।(20)

 

पुरुष जो श्रेष्ठ करे व्यवहार,

अनुकरण उसका करते लोग।

वही मानक रचता है और,

आचरण का उससे ही योग।।(21)

 

क्रमशः

 

विशेष :गीत-गीता, श्रीमद्भागवत गीता का काव्यमय भावानुवाद है तथा इसमें महान् ग्रंथ गीता के समस्त अट्ठारह अध्यायों के 700 श्लोकों का काव्यमय भावानुवाद अलग-अलग प्रकार के छंदों में  कुल 700 हिंदी के छंदों में किया गया है। संपूर्ण गीता के काव्यमय भावानुवाद को धारावाहिक के रूप में अपने पाठकों के लिये प्रकाशित करते हुये आई.सी.एन. को अत्यंत प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है।

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