कैंसर

अखिलेश कुमार श्रीवास्तव ‘चमन’, सेवानिवृत्त अधिकारी एवं लिटरेरी एडिटर-ICN हिंदी                           

कहानी

‘‘अच्छा ये बताओ…..नूरी नाम तुम्हें कैसा लगता है….?’’ अचानक ही बातचीत का विषयान्तर कर के अमोल ने प्रश्न किया।

‘‘नूरी….? अच्छा नाम है…बहुत अच्छा….। लेकिन बात क्या है….?’’ रजिया ने चैंक कर पूछा । 

‘‘यह नाम नूरी पसन्द है तुमको…?’’

‘‘अरे बाबा…..कहा तो मैंने कि बहुत अच्छा….प्यारा सा नाम है यह। लेकिन माजरा क्या है….? अचानक कबाब में हड्डी की तरह यह बात कहाॅं से आ गयी बीच में….?’’

 ‘‘यदि आज के बाद मैं तुम्हें नूरी कह कर बुलाऊॅं तो तुम्हें कोई एतराज तो नहीं….?’’ 

‘‘अच्छा तो ये बात है…..?’’ एकदम से खिलखिला कर हॅंस पड़ी रजिया। उसकी खनकती हॅंसी पक्के फर्श पर ऊॅंचाई से गिरे काॅंच के बरतन की सी आवाज करती पूरे हाॅल में बिखर गयी। हाॅल में पसरा सन्नाटा सहसा भंग हो गया और अगल-बगल की मेजों पर बैठे लोग अचकचा कर उसकी तरफ देखने लगे। लेकिन किसी की भी परवाह किए बगैर वह काफी देर तक बेतहाशा खिलखिलाती रही मानो हॅंसी का कोई दौरा पड़ गया हो उस पर। फिर बड़ी मुश्किल से अपनी हॅंसी रोक कर बोली-‘‘अरे जनाब ! मेरे पापा, मम्मी ने मुझे एक अच्छा-खासा नाम दे रखा है ‘रजिया खातून’। घर में सभी मुझे प्यार से राजो कह कर बुलाते हैं। चाहो तो तुम भी मुझको इसी नाम से बुला सकते हो। यह अचानक मेरा नया नामकरण करने का ख्या़ल कहाॅं से आ गया तुम्हारे दिमाग में ?’’

‘‘क्यों कि तुम रजिया खातून नहीं नूरी हो….नूरी यानी नूरजहाॅं।’’

‘‘नूरजहाॅं….?’’

हाॅं….नूरजहाॅं….। चाल-ढ़ाल, बातचीत, शक्ल-सूरत, हर तरह से नूरी हो तुम। वही घने केश, वही बोलती आंखें, वही पतली नुकीली नाक, वही छरहरी काया, वही बीन सी मदहोश करती आवाज वही खनकती सी बेपरवाह हॅंसी,….सब कुछ तो वही है…। फिर तुम भला रजिया कैसे हो सकती हो….?  

‘‘यार ! तुम तो कविता करने लगे। जनाब ने कहीं गहरी चोट खायी है लगता है। मुझे तो ऐसा लगता है कि तुम यहाॅं गलत प्रोफेशन में आ गए हो। तुम्हें तो हिन्दी या संस्कृत में एम00, पी0एच-ड़ी0 कर के कहीं काॅलेज में टीचर होना चाहिए था….सारे दिन क्लास में लड़कियों को देख कर आहें भरते और रात के समय अकेले में आसमान, बादल तथा चाॅंद-सितारों को देख-देख कर कविता किया करते। .क्यों…?’’ रजिया ने चुहल की।

अमोल ने रजिया की बात का कोई उत्तर नहीं दिया। किसी और ही दुनिया में खोया, खामोश वह एकटक रजिया के चेहरे को निहारता रहा मानो उसने कुछ सुना ही न हो। अमोल की चुभती नजरों से रजिया कुछ असहज सी महसूस करने लगी और जब नजरें मिलाए रह सकना मुश्किल हो गया तो सामने रखा कप उठा कर कॅाफी सुड़कने लगी। 

मिनट, दो मिनट तक दोनों के मध्य गहरी चुप्पी छायी रही। अमोल न जाने किस दुनिया में खो गया था। माहौल बेवजह भारी हो आया था। आखिर रजिया ने ही चुप्पी तोड़ी और माहौल को हल्का बनाते हुए बोली-‘‘ठीक है ड़ाक्टर साहब ! आप मुझको नूरजहाॅं या मुमताज महल जो इच्छा हो कह कर पुकारिए….मुझे कोई एतराज नहीं। लेकिन अभी तो यहाॅं से तुरन्त उठिए और क्लास रूम में चलिए क्यों कि प्रोफेसर बजाज के क्लास का वक्त़ हो चुका है।’’

अमोल फिर भी खामोश बैठा रहा। मानों उसने कुछ सुना ही न हो। रजिया ने कैण्टीन की दीवार पर टॅंगी घड़ी पर एक नजर ड़ाली और उठ कर काउण्टर की तरफ बढ़ गयी। उसके पीछे-पीछे अमोल भी कैण्टीन से बाहर आ गया। 

कम नहीं होता है चार वर्षों का समय। विशेष रूप से तब जब वे चार वर्ष बेफिक्र बचपन के दिन हों। बचपन जिसका चिन्ता, फिक्र से दूर-दूर तक कोई परिचय नहीं होता। बचपन जिसमें दुनियादारी की बातों के लिए लेशमात्र भी जगह नहीं होती। बचपन जो भूत और भविष्य से बिलकुल बेखबर होता है। बचपन जहाॅं समय के एक-एक क्षण को भरपूर मस्ती, बेफिक्री और इत्मिनान के साथ जिया जाता है। गलत नहीं कहा है किसी ने कि बच्चों का मन एक कोरी स्लेट होती है जिस पर अच्छा, बुरा जो कुछ भी एक बार अंकित हो जाय वह सदा, सर्वदा के लिए अमिट हो जाता है। बचपन की स्मृतियाॅं, बचपन के संस्कार, और बचपन की आँखों से देखी गयीं घर, परिवार एवं समाज की तस्वीरें आखिरी साॅंस तक आदमी का साथ नहीं छोड़तीं। कहीं अचेतन की कोटर में गौरैये सी दुबकी बैठी रहती हैं और अवसर मिलते ही फुदक कर चेतना की ड़ाल पर आ बैठती हैं। ड़ा0 अमोल के साथ भी कुछ ऐसी ही बात थी। स्कूल के दिनों से लेकर मेड़िकल कालेज तक की यात्रा में लम्बी अवधि और अंतराल के वावजूद वह चार साल के नटखट लड़के बंटी और उसकी हमउम्र सहेली नूरी की स्मृतियों से मुक्त नहीं हो सका था। अपनी उम्र के चैथे वर्ष से ले कर नवें वर्ष तक के मध्य का एक-एक पल ड़ा0 अमोल की स्मृति में यूॅं सुरक्षित था जैसे फूल में सुगन्ध, मिट्टी में उर्वरापन, या बादल के अंदर वर्षा के कण। 

कहानी पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक छोटे से शहर की छोटी सी सरकारी कालोनी से प्रारम्भ होती है। चारों तरफ से पक्की चहारदीवारी से घिरी उस कालोनी के प्रवेश बिन्दु पर एक बड़ा सा फाटक लगा था जो उस कालोनी को शहर की शेष आबादी से पूरी तरह अलग कर देता था। शहर की तरफ से आने वाली ड़ामर की पक्की सड़क उस फाटक के अंदर घुसते ही एक छोटे से पार्क की दीवार से टकराती थी । फिर दायें, बायें दोनों दिशाओं में बॅंट कर पार्क को चारों तरफ से घेर लेती थी। पार्क के तीन तरफ सड़क के किनारे-किनारे पीले रंग की एक दो मंजिली सरकारी कालोनी थी जिसमें कुल सोलह फ्लैट बने थे। इसी कालोनी के फ्लैट संख्या सात में अमोल नाम का लगभग चार साल का एक चंचल लड़का रहता था जिसे घर में सभी बंटी के नाम से बुलाते थे।

बंटी नाम के उस नन्हे से बच्चे के सामने एक पहाड़ सी बड़ी समस्या थी। उसकी समस्या यह थी कि उस सरकारी कालोनी में रह रहे सोलह परिवारों के लगभग तीन दर्जन बच्चों में कोई एक भी बच्चा उसका हमउम्र नहीं था। या तो उससे बड़ी उम्र के बच्चे थे जो सवेरा होते ही लकदक कपड़े पहने, कंधे से पानी की बोतलें और बस्ता लटकाए रिक्सों में लद-फद कर स्कूल चले जाते थे या फिर कुछ इतने छोटे थे कि सारे दिन अपनी माॅं की गोद से चिपके दूध पीते रहते अथवा बिस्तर में पड़े सोते रहते थे। स्वयं बंटी के घर में भी उसका साथ देने वाला कोई नहीं था। पापा आफिस चले जाते, बड़ी बहन स्कूल चली जाती और मम्मी घर के अंतहीन कामों में व्यस्त हो जाती थीं। अकेला बंटी कमरे के अंदर बैठा खिलौनों से खेला करता, कभी पड़ोसियों के घर चला जाता, और जब मन ऊब जाता तो कालोनी के बीचोबीच स्थित पार्क में बैठा पेड़, पौधों, पक्षियों और खुले आसमान को निहारा करता। 

कहते हैं कि बच्चे ईश्वर के सबसे निकट होते हैं शायद इसीलिए उस छोटे से बच्चे बंटी की उदासी और अकेलापन देखकर विधाता का हृदय भी पसीज गया। हुआ यूॅं कि आवास संख्या तेरह में रहने वाले यादव जी का स्थानान्तरण हो गया और उनके बाद उस आवास में रहने के लिए जो परिवार आया उसके पास किसी गुड़िया सी सुन्दर, आकर्षक नैन-नक्श वाली गोरी, चिट्टी एक बेटी थी जो उम्र में लगभग बंटी के ही बराबर थी। एक दिन सवेरे बंटी अपना छोटा सा फुटबाल लिए कालोनी के पार्क में खेल रहा था कि सहसा उसकी निगाह सामने आवास संख्या तेरह की तरफ चली गयी। उसने देखा कि वहाॅं दरवाजे के बाहर खड़ी उसकी हमउम्र एक सुन्दर सी लड़की एकटक उसकी तरफ ही देख रही थी। बंटी से आॅंखें मिलते ही वह शरमा कर घर के अंदर भाग गयी। दो-तीन मिनट के बाद वह पुनः दरवाजे पर लौटी तो देखा कि हाथ में फुटबाल लिए खड़ा बंटी पूर्ववत उसकी तरफ ही देख रहा था। इस बार आॅंखें मिलीं तो बंटी ने हाथ हिला कर उसे पार्क में आने का ईशारा किया। उस नन्हीं सी लड़की को भी मानो उस आमंत्रण की ही प्रतीक्षा थी। सीढ़ियाॅं उतर कर वह आहिस्ता-आहिस्ता चलती आयी और पार्क के गेट के पास आ कर चुपचाप खड़ी हो गयी। 

‘‘आओ ! फुटबाल खेलोगी मेरे साथ….?’’ बंटी ने कहा तो बगैर कुछ बोले वह पार्क के अंदर आ गयी। मिनट, दो मिनट के अंदर ही उन दोनों के बीच की झिझक मिट गयी और वे साथ-साथ ऐसे खेलने लगे मानो वर्षों पुराने साथी हों। दोनों हम उम्र और अपने-अपने घरों में अकेले थे इसलिए दोनों का अच्छा साथ बन गया।

खेल-खेल में हुआ यह परिचय कब प्रगाढ़ मैत्री में बदल गया यह न तो बंटी जान पाया और न ही नूरी। जी हाॅं बड़ी-बड़ी आॅंखों वाली, दुबली-पतली, गुड़िया सी खूबसूरत उस लड़की का नाम नूरी ही था। उसके पिता आफताब अहमद और मम्मी ज़रीना ने फूलों सी कोमल, चाॅंद सी सुन्दर अपनी बेटी का नाम नूरजहाॅं रखा था लेकिन घर में सभी प्यार से उसे नूरी कह कर बुलाते थे। 

अब बंटी का अकेलापन दूर हो गया था। साथ खेलने के लिए उसे नूरी के रूप में एक साथी मिल चुकी थी। नूरी भी अपने घर में अकेली ही थी। उसे भी खेलने के लिए किसी दोस्त की जरूरत थी। अतः बहुत शीघ्र ही वे दोनों आपस में घुलमिल गए। अब बंटी रोज सवेरे नाश्ता करने के बाद अपने घर से निकलता और सीधे नूरी के घर पॅंहुच जाता था। नूरी को भी उसकी ही प्रतीक्षा रहती। नूरी के घर में वे दोनों घंटों साथ-साथ खेलते रहते थे। बंटी के लिए सबसे बड़ा आकर्षण नूरी के पास मौजूद तरह-तरह के ढ़ेर सारे खिलौने थे जिनकी लालच में वह अपने आप खिंचा चला आता था। लेकिन बंटी की यह खुशी बहुत अधिक दिनों तक नहीं टिक सकी। दरअसल बंटी की मम्मी को इस बात की जरा भी जानकारी नहीं थी कि वह खेलने के लिए नूरी के घर जाता है। वह यही समझती रहीं कि बंटी ग्यारह नम्बर वाले शुक्ला जी या बारह नम्बर वाले गुप्ता जी के घर जाता है। यह राज उस दिन खुला जिस दिन परिणाम से बेखबर, उत्साह में भरा बंटी नूरी को साथ ले कर अपने घर आ गया। फिर तो गजब ही हो गया, आसमान फट पड़ा उस दिन। 

‘‘यह कौन है…..?’’ नूरी को देखते ही बंटी की मम्मी चैंक पड़ीं।

‘‘मम्मी….! यह नूरी है….। उधर सामने वाले घर में रहती है।’’ बंटी ने चहकते हुए बताया।  

‘‘ऐं….क्या यह उस तेरह नम्बर वाले मुसल्ले की बेटी है ? इसका मतलब कि तुम रोज इसके घर जाते हो खेलने के लिए..?’’ बंटी की मम्मी एकदम से हत्थे से उखड़ गयीं और गुस्से में दाॅंत पीसने लगीं।

मम्मी का गुस्सा देख बंटी के सारे उत्साह पर पानी फिर गया। वह तो बड़े चाव से अपनी दोस्त को अपना घर और अपने खिलौने दिखाने के लिए ले आया था लेकिन यहाॅं तो सब कुछ उल्टा-पुल्टा हो गया। पास-पास खड़े बंटी और नूरी एक दूसरे का मुॅंह ताकने लगे। वे दोनों ही मम्मी के गुस्से का कारण नहीं समझ पा रहे थे। इतने में मम्मी ने बंटी का कान उमेठ कर उसे एक थप्पड़ लगाया और नूरी के पास से उसे अपनी तरफ खींच लिया। फिर गुस्से में आॅंखें तरेरते हुए नूरी से बोलीं-‘‘चल भाग यहाॅं से….म्लेच्छ कहीं की। अगर आज के बाद फिर मेरे घर में धुसी तो तुम्हारी टाॅंगें तोड़ कर रख दूॅंगी।’’

नूरी ड़र के मारे थर-थर काॅंपने लगी। उसकी आॅंखों से आॅंसू छलक आए। अपराधी की भाॅंति खड़ा बंटी बिटर-बिटर ताकता रहा और आॅंसू बहाती, सुबकती नूरी अपने घर चली गयी। बात क्या थी, मम्मी अचानक गुस्सा क्यों हो गयीं, उसको थप्पड़ क्यों मारा, नूरी को ड़ाॅंट किस बात के लिए पड़ी यह न तो बंटी समझ पाया और न ही नूरी। उस दिन के बाद से बंटी पर मम्मी की कड़ी निगरानी रहने लगी। नूरी के घर उसके आने- जाने पर पूरी तरह से प्रतिबन्ध लग गया। 

‘‘बेटा ! वे लोग मुसलमान हैं….वे लोग बहुत गंदे होते हैं…..उनके घर नहीं जाना चाहिए।’’ एक दिन नूरी के घर जाने की जिद पर अड़े बंटी को मम्मी ने समझाया। 

‘‘नहीं मम्मी….नूरी तो बहुत अच्छी है। उसकी मम्मी भी बहुत अच्छी हैं। वह मुझे बिस्किट और चाकलेट देती हैं। नूरी मुझे खेलने के लिए अपने खिलौने देती है। नूरी के पास खूब ढ़ेर सारे खिलौने हैं।’’ बंटी ने मम्मी की बात का प्रतिवाद किया। 

 ‘‘तुम समझते नहीं बेटा…वे लोग बहुत गंदी-गंदी चीजें खाते हैं…। वे लोग जानवरों का माॅंस खाते हैं। वे लोग गाय, भैंस, बकरा, मुर्गा और चिड़ियों को मार कर खा जाते हैं।’’  

‘‘नहीं मम्मी ! उनके घर भी हमारे ही घर की तरह खाना बनता है। मैंने खुद देखा था उस दिन नूरी की मम्मी लौकी की सब्जी काट रहीं थीं। एक दिन गोभी की सब्जी बना रही थीं।’’

‘‘तुम बेवकूफ हो। बेकार की बहस मत करो। बस मैंने कह दिया कि उसके घर नहीं जाना है तो नहीं जाना है। समझे….?’’ बंटी की दलीलों से उसकी मम्मी झुॅंझला उठीं।

मम्मी के लाख समझाने के बावजूद भी बंटी का मन नूरी को गंदी या खराब मानने को तैयार नहीं हुआ। मम्मी की चैकसी के कारण तथा ड़ाॅंट, मार के भय से अब वह नूरी के घर तो नहीं जाता था लेकिन जब भी मौका लगता अपना फुटबाल ले कर सामने के पार्क में चला जाता। नूरी भी वहीं आ जाती और दोनों साथ-साथ खेला करते। मम्मी अगर नूरी के साथ खेलते देख लेतीं तो उसे ड़ाॅंटतीं, मारतीं, पार्क में जाने से रोकतीं लेकिन उस ड़ाॅंट-मार का असर बस एक, दो दिनों तक ही रहता। जरा सी ढ़ील मिली नहीं कि फिर वही पुराना राग शुरू। 

दरअसल उस छोटी सी सरकारी कालोनी में आफ़ताब अहमद के परिवार के आते ही वहाॅं के शान्त माहौल में एक तूफान सा आ गया था। यह संयोग की ही बात थी कि उस कालोनी में अभी तक हिन्दू समुदाय के ही लोग रहते चले आ रहे थे। यह पहला अवसर था जब उस कालोनी में कोई मुस्लिम परिवार रहने आया था। कालोनी के मर्द लोग तो सुबह अपने-अपने आफिस निकल जाते थे और शाम को लौटने के बाद हाट, बाजार एवं घर, परिवार के कार्यों में व्यस्त हो जाते थे लेकिन पतियों को आफिस तथा बच्चों को स्कूल भेजने के बाद फुरसत में बैठी औरतों के मध्य सारे दिन कानाफूसी होती रहती थी। जहाॅं भी दो औरतें मिलतीं निन्दापुराण शुरू हो जाता और जब से कालोनी में आफताब अहमद का परिवार आया था औरतों को बातचीत का एक नया मुद्दा मिल गया था। बात चाहे जहाॅं से भी शुरू हो घूम-फिर कर आफताब अहमद के परिवार पर आ कर ठहर जाती थी। आफताब अहमद की पत्नी कालोनी की सारी महिलाओं की ईष्र्या का सबब बनी हुयी थी। उनकी ईष्र्या का प्रमुख कारण शायद यह था कि आफताब अहमद की पत्नी बेहद खूबसूरत थीं, बिल्कुल किसी फिल्मी नायिका की तरह, और वह रहती भी बहुत सलीके से थीं। ऐसे में ‘मोहे न नारि, नारि के रूपा’ वाली उक्ति का चरितार्थ होना स्वाभाविक ही था। शायद यही कारण था कि पहले ही दिन से कालोनी की महिलाओं की आॅंखों में वह काॅंटे की तरह चुभने लगी थीं। 

जुलाई का महीना आते ही शहर के एक मात्र अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय में बंटी का नाम लिखा दिया गया। दुनिया, जहान की चिन्ताओं से बेखबर सारे दिन खेल-कूद में मस्त रहने वाले बंटी को विद्यालय जाना बिल्कुल भी पसंद नहीं था। विद्यालय जाने के नाम पर वह चीख, चिल्ला कर आसमान सर पर उठा लेता था। उसके पापा, मम्मी बड़ी मुश्किल से समझा, बुझा कर, बहला, फुसला कर, लालच दे कर उसे विद्यालय भेजते लेकिन अगले दिन वह फिर विद्यालय न जाने की जिद पर अड़ जाता। उसे विद्यालय भेजना एक टेढ़ी खीर हो गयी थी। हफ्ते, दस दिनों तक ऐसे ही चलता रहा। बंटी को जबरन विद्यालय भेजा जाता रहा। तभी अचानक एक दिन बंटी को अपनी कक्षा में नूरी दिखलायी पड़ गयी। 

‘‘अरे ! क्या तुम भी यहीं पढ़ती हो ?’’ खुशी से चहकते बंटी ने नूरी के पास जा कर पूछा। 

 ‘‘हाॅं…।’’ नूरी ने उत्तर दिया और साथ ही स्वीकृति में अपना सर भी हिला दिया। एक दूसरे को देख दोनों की ही आॅंखें खुशी से चमक उठीं।

फिर तो अगले दिन से स्थिति ही बदल गयी। अब बंटी को स्कूल जाना अच्छा लगने लगा। सवेरा होते ही वह स्वतः स्कूल जाने के लिए तैयार होने लगता और खुशी-खुशी स्कूल चला जाता। बंटी के स्वभाव में आए इस परिवर्तन से उसके मम्मी-पापा प्रसन्न तो बहुत हुए लेकिन उसका कारण नहीं समझ सके।

अब बंटी और नूरी विद्यालय में साथ-साथ ही रहते, कक्षा में साथ-साथ ही बैठते, और दोपहर के अवकाश में अपना टिफिन भी एक साथ ही बैठ कर, मिल-बाॅंट कर खाते थे। एक दिन नूरी ने ज्यों ही अपना टिफिन का ड़ब्बा खोला एक विशेष किस्म की गंध बंटी की नाक से आ टकरायी। 

‘‘यह क्या चीज है नूरी…?’’ नूरी के टिफिन-बाक्स में रखे घी में तर, सफेद, चिकने टुकड़े को देख कर बंटी ने आश्चर्य और कौतूहल से पूछा। 

‘‘यह….? यह तो आमलेट है….। तुम्हारी मम्मी नहीं बनातीं क्या….?’’ नूरी ने बताया।

ना…मेरी मम्मी तो कभी भी नहीं बनातीं….। ऐसी चीज मैंने कभी भी नहीं खायी। यह खाने में बहुत अच्छा लगता है क्या….?’’

‘‘हाॅं…बहुत अच्छा लगता है….। लो, खाओगे…..? यह कहते हुए नूरी ने अपना टिफिन- बाक्स बंटी की तरफ बढ़ा दिया। बंटी ने एक टुकड़ा तोड़ कर मुॅंह में रखा तो उसे बहुत स्वादिष्ट लगा। फिर तो थोड़ा-थोड़ा कर के वह सारा ही आमलेट खा गया और नूरी मुग्ध भाव से उसे खाते हुए देखती रही।  

उस दिन स्कूल से वापस आते ही बंटी ने अपनी मम्मी से प्रश्न किया-‘‘मम्मी…! तुम कभी आमलेट क्यों नहीं बनाती…

‘‘आमलेट….? यह क्या चीज होती है….?’’ बंटी की मम्मी बिल्कुल ही अनजान बनती हुयी बोलीं। 

‘‘वही….सफेद पराठे जैसी चीज जो नूरी की मम्मी उसे टिफिन में देती हैं ।’’ बंटी ने बताया।  

‘‘छिःछिःछिः तुमने छुआ तो नहीं उसकी टिफिन…..? तुमने खायी तो नहीं आमलेट ?’’ बंटी की मम्मी ने कड़कती आवाज में पूछा। आमलेट का नाम सुनते ही वह यूॅं उछल पड़ीं जैसे पैरों के नीचे जिन्दा साॅंप आ गया हो। मम्मी के तेवर देख बंटी सकपका गया। उसे आभास हो गया कि हो न हो अनजाने में उससे कोई गलती अवश्य हो गयी है। ड़र के मारे उसकी बोलती बंद हो गयी। 

‘‘बोलो…। बोलते क्यों नहीं….? क्या नूरी के टिफिन से तुमने आमलेट खायी थी ?’’ गुस्से में बिफरीं मम्मी बार-बार पूछती जा रही थीं, उनकी आवाज लगातार तेज होती जा रही थी लेकिन बंटी एक चुप तो हजार चुप। वह अपराधी की भाॅंति सर झुकाए खामोश खड़ा रहा। 

मौन स्वीकार लक्षणम्’। बंटी की चुप्पी ने सब कुछ कह दिया। उसकी मम्मी समझ गयीं कि उसने अवश्य ही आमलेट खायी है। फिर क्या था तड़-तड़ा-तड़ बंटी के गालों पर मम्मी के थप्पड़ बरसने लगे। बंटी की पिटायी करने के बाद गुस्से में बड़बड़ातीं उसकी मम्मी लड़ने के लिए नूरी के घर पॅंहुच गयीं। 

‘‘इन हरामियों ने तो जीना मुश्किल कर रखा है…..सभी का धर्म भ्रष्ट कर के रहेंगे ये पापी। इन्हें मरने के लिए कोई और ठौर नहीं मिला जो यहाॅं आ टपके। बिना अण्ड़ा, मुर्गा खाए इन राक्षसों का पेट ही नहीं भरता…। भगवान करें कीड़े पड़ें इनके शरीर में….।’’ नूरी के घर के सामने खड़ी बंटी की मम्मी ने चीख-चीख कर सारा मुहल्ला इकट्ठा कर लिया। अपने दरवाजे पर शोर सुन कर नूरी की मम्मी भी बाहर आ गयीं। पीछे-पीछे नूरी भी आ कर अपनी मम्मी के पास खड़ी हो गयी । बंटी की मम्मी पानी पी-पी कर एक साॅंस में हजार गालियाॅं दिए जा रही थीं। कॅालोनी की अन्य महिलायें भी उनकी हाॅं में हाॅं मिलाए जा रही थीं। 

‘‘आखिर बात क्या है बहन जी जो इस कदर गालियाॅं दिए जा रही हैं….? कुछ हमें भी तो बताइए कि क्या बुराई हो गई हमसे।’’ बात से अनजान नूरी की मम्मी ने पूछा। 

‘‘खबरदार जो बहन कहा मुझको। कलिया, मछली खाने वालों से बहनापा नहीं रखना हमें। और बुराई पूछती है तो पूछ अपने उस बित्ते भर की छोकरी से जिसने आमलेट खिला कर मेरे बेटे का धर्म भ्रष्ट कर दिया। जरूर तूने ही सिखाया होगा इसे। तू इसी के लिए आयी ही है इस कालोनी में….हम सभी लोगों का धर्म, कर्म भ्रष्ट कर के छोड़ेगी तू।’’

बंटी की मम्मी की बातें सुन कर नूरी समझ गयी कि सारे फसाद की जड़ वही है इसलिए वह घर के अंदर भाग गयी। मामला समझ में आते ही गुस्से में फनफनातीं नूरी की मम्मी नूरी-नूरी आवाज लगातीं उसके पीछे लपकीं। बेड़रूम में दरवाजे के पीछे छुपी नूरी पत्ते की तरह काॅंप रही थी। उसकी मम्मी ने उसके बाल पकड़े और घसीटती हुयीं उसे बाहर ले आयीं। बाहर सभी के सामने उन्होंने नूरी के गाल पर चट् चट् चार, पाॅंच तमाचे लगाए और नूरी के साथ-साथ खुद भी रोने लगीं।

‘‘माफ कर दीजिए बहन जी….बच्ची है…..अभी हिन्दू, मुस्लिम का भेद नहीं समझती। मैं इसे खुद मना कर दूॅंगी कि आपके बेटे से बात न किया करे।’’ नूरी की मम्मी ने हाथ जोड़ कर भरे गले से कहा और नूरी को अंदर कर के दरवाजा बंद कर लिया। 

बंटी की मम्मी जैसे शोर करते, बड़बड़ाते  आयी थीं वैसे ही वापस चली गयी। 

बंटी और नूरी दोनों को ही अपनी-अपनी मम्मियों से यह सख़्त हिदायत मिली कि स्कूल में न तो वे एक-दूसरे के पास बैठें और न ही आपस में बातचीत किया करें। कारण से अनजान वे दोनों अगले ही दिन से कक्षा में अलग-अलग बैठने लगे। दोपहर के भोजनावकाश में भी वे एक, दूसरे से दूर ही बैठते और अपना-अपना टिफिन चुचचाप खा लेते थे। लेकिन उन पर थोपा गया यह प्रतिबंध अधिक दिनों तक नहीं चल सका। चार-छः दिनों के बाद एक दिन कक्षा में प्रवेश करते समय बंटी ने देखा कि अपनी सीट पर गुमसुम बैठी नूरी दरवाजे की तरफ ही ताक रही थी। बंटी से नजरें मिलते ही वह झट दूसरी तरफ देखने लगी मानो उसकी चोरी पकड़ी गयी हो। बंटी अपने आप खिंचा सा आया और नूरी के बगल वाली सीट पर बैठ गया। दोपहर के अवकाश तक वे दोनों एक-दूसरे से बोले बगैर चुपचाप पढ़ाई करते रहे। दोपहर के अवकाश में नूरी ने जैसे ही अपना टिफिन बाक्स खोला आमलेट की तेज गंध बंटी की नाक से आ टकरायी और उसके मुॅंह में पानी भर आया। ललचाया बंटी मिनट, दो मिनट तक चोर निगाह से नूरी के टिफिनबाक्स की तरफ देखता रहा फिर अपना टिफिनबाक्स खोलते हुए फुसफुसा कर बोला-‘‘नूरी….हलवा लोगी ?’’ 

नूरी बंटी का आशय समझ गयी। बंटी की बात का कोई जबाब दिए बगैर उसने अपना टिफिन बाक्स उसकी तरफ बढ़ा दिया। बंटी ने चैकन्नी निगाह से चारों तरफ देखा, अपना टिफिन बाक्स नूरी की तरफ खिसकाया और नूरी के टिफिन बाक्स से जल्दी-जल्दी आमलेट खाने लगा। नूरी ने बंटी के हलवे को हाथ तक नहीं लगाया बस आमलेट खाते बंटी को एकटक देखती रही। उस दिन के बाद पुनः धीरे-धीरे वे दोनों पहले की ही तरह घुलमिल गए।

क्रमशः

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