चिर-प्रतीक्षा

तरुण प्रकाश श्रीवास्तव, सीनियर एग्जीक्यूटिव एडीटर-ICN ग्रुप  

कहानी

हवा का एक तेज़ झोंका आया और खिड़की के नीले पर्दों को लहरा गया । कांच का फूलों का गुलदस्ता परदे से टकरा का नीचे गिर पड़ा। कांच बिखर गया फर्श पर । एक सम्मोहन से जैसे जागा मैं – विचारों की भीड़ में पहली बार मुझे यह अहसास हुआ कि मैं अकेला हूँ – बहुत अकेला । दूर तक चले हुए सफ़र में अब तक तो मेरे पांवों के निशान भी शेष नहीं हैं … समय की आंधी ने सब कुछ मिटा दिया है, सब कुछ समाप्त कर दिया है।

और अब आगे।

विभु अब स्वयं ही स्कूल जाने लगा था। बड़ा हो गया था न! किन्तु विभा, यह जानते हुए भी कि विभु बारह बजे से पहले घर नहीं लौटता है, पौने बारह से ही खिड़की खोलकर बैठ जाती थी। उसके वे पंद्रह मिनट किस बेचैनी से कटते थे, इसका अंदाज़ा केवल मुझे ही था । कभी-कभी सोचता था – ममता बहुत महान है। यदि पिताजी यह कहते हैं कि माँ मेरे कारण ही मर गयी तो हो सकता है – यही सत्य हो। और फिर मन अन्दर तक भीग जाया करता था। जब कभी विभु को किसी कारण स्कूल से लौटने में देर हो जाती थी तो विभा पलकों पर तिर आये आंसुओं को अपने आँचल से पोंछती रहती थी और जैसे ही विभु आता, उसे गोद में लेकर पूछती थी, क्यों रे ! कहाँ रह गया था? मेरी तो जान ही निकली जा रही थी।” और विभु उसके आँचल में दुबक कर कहता था, “माँ, मुझे बड़ी जोर की भूख लगी है।” और विभा अपना सारा क्रोध भूल जाती थी। 

जिस वर्ष प्रोफेसर के रूप में मेरी पदोन्नति हुयी, उसी वर्ष विभु ने कला क्षेत्र में एक बड़ा पुरस्कार जीता था। कितनी खुश हुयी थी विभा। कितनी बड़ी पार्टी दी थी उसने। वैसे तो विभु की प्रत्येक वर्षगाँठ पर ही पार्टी होती थी किन्तु उस पार्टी की तो शान ही निराली थी। विभा ने एक-एक व्यक्ति को विभु द्वारा जीता हुआ कप और सर्टिफिकेट दिखाया था।

विभु को दीपावली का त्यौहार बहुत पसंद था। तरह-तरह के रंगीन पटाखे, फुलझड़ियाँ, अनार और ढेरों मिठाइयाँ। अपने सारे दोस्तों को बुला लाता था और फिर घर में खूब धमाचौकड़ी मचती थी। विभा तो निछावर सी हुई जाती थी। तीन-चार दिन के इस त्यौहार की विभु बड़ी उत्कंठा से प्रतीक्षा करता था। मुझसे पूछता था, “पापा, क्या दीपावली रोज़-रोज़ नहीं आ सकती?” मैं हँसता हुआ और उसे प्यार करता हुआ कहता था, ”बेटे दीपावली प्रसन्नता का त्यौहार है। जो लोग दुखी रहते हैं, उनके लिए पर्व यह वर्ष में एक बार आता है, लेकिन जिनके पास विभु जैसा बेटा होता है, उनके घर दीपावली रोज ही आती है।”

विभु और बड़ा हो गया था। अब कालेज जाने लगा था। अपना कमरा बहुत सजा का रखता था। नीले परदे उसकी विशेष पसंद थे। विभा ने सारे घर के परदे नीले ही लगवाये थे। वह मेरी युनिवर्सिटी का छात्र था। सारे लेक्चरर्स उसकी प्रशंसा करते नहीं अघाते थे। तीक्ष्ण बुद्धि और सुन्दर व्यक्तित्व और फिर अपनी माँ जैसी नीली बिल्लौरी आँखें और उन आँखों में सदैव थिरकती हुई मुस्कान और झलकती हुई विनम्रता।  

मेरे रिटायरमेंट से पूर्व का अंतिम वर्ष था। विभु ने उस वर्ष पूरी युनिवर्सिटी में टॉप किया था। मेरी तो प्रसन्नता का ठिकाना ही नहीं था और उस समय तो मैं ख़ुशी से गदगद हो गया जब कुलपति महोदय ने मुझे यह बताया कि विभु की आगे की पढाई के लिए सरकर ने उसे सरकारी खर्च पर विदेश भेजना स्वीकार कर लिया है।

विभा बहुत प्रसन्न थी किन्तु मैं उसे यह न बता सका कि विभु की आगे की पढाई विदेश में होगी। सारा दिन वह हिरनी सी फुदकती रही। उसने विभु की पसंद के सरे व्यंजन अपने हाथ से तैयार किये थे। विभु के सारे मित्रों को बुलाया था और सबको पहला कौर अपने ही हाथों से खिलाया था। मैं सोचता रह गया। समझ नहीं पा रहा था कि कैसे कहूँ विभु के विदेश जाने के विषय में। “अरे! तुम कुछ नहीं ले रहे हों?” मुझे चुपचाप बैठे देख चहक कर बोली विभा।” “मेरा तो पेट ख़ुशी से ही भरा हुआ है विभा, अब क्या खाऊं।“ वह हंसी, “तो तुम दही बड़े खाओ। तुम्हारी कम से कम एक रूचि तो ऐसी है जो विभु की भी पसंद है।“ कितनी प्रसन्न थी वह । मैंने कहा था, “आओ, आज हम सभी साथ ही साथ खाना खायेंगे इससे ख़ुशी और बढ़ जाएगी।” वह मुस्कराती हुई मेरे पास बैठ गयी। कितनी आकर्षक और कितनी प्यारी लग रही थी वह। ठीक वैसी ही जैसी प्रथम बार वह मुझे कला प्रदर्शनी में मिली थी। 

“माई चिल्ड्रेन। क्या आप जानते हैं कि यह दावत विभु की माँ आज क्यों दे रही है?” मैंने पूछा।

“यस अंकल।” बहुत से लड़के-लड़कियां बोल उठे, “विभु फर्स्ट क्लॉस फर्स्ट जो आया है।”

“हाफ करेक्ट।“

सब मेरा मुंह देखने लगे। 

“यस माई चिल्ड्रेन। यह आधा सच है। और आधा सच यह है कि विभु को सरकर ने आगे की पढाई के लिए विदेश भेजने का फैसला कर लिया है।”

“हिप-हिप हुर्रे।” प्रसन्नतापूर्ण शोर मच गया वहां पर किन्तु मैं केवल विभा को निहार रहा था। उसके हाथ का कौर छूट गया था। एकाएक वह पत्थर की मूर्ति की भांति जड़ हो गयी। 

“क्या हो गया विभा क्या हो गया है तुम्हे?” मैंने झकझोरा ।

“कोई नहीं छीन सकता है मुझसे मेरे विभु को। वह मुझसे कभी भी अलग नहीं हो सकता – कभी नहीं। तुम क्या समझते हो, मैं अपने जिगर के टुकड़े को अपने से अलग कर दूंगी? मेरे विभु को कहीं नहीं जाना है।” वह रो पड़ी थी।

“विभा, … विभा! यह रोने का समय नहीं है। यह तो खुश होने का समय है। ज़रा सोचो तो, भला कितने लोग विदेश जा पते हैं?” मैंने समझाने का प्रयास किया ।

“मुझे कुछ नहीं सुनना है। मुझे कुछ नहीं सुनना है। तुम मेरे विभु को मुझसे अलग नहीं कर सकते हो ।” वह चीखी और ड्राइंग रूम से भाग गयी।

विभु चुप था … एकदम शांत। उठ कर गया था वह विभा के पास। मैं भी पीछे-पीछे पहुँचा था। देखा – वह तकिये में सिर दिए फूट-फूट कर रो रही थी ।

“विभा ! यह विभु के भविष्य का प्रश्न है। ऐसा भी प्यार क्या जो उसके भविष्य को ही नष्ट कर दे ।” मैं धीरे से बोला । विभु चुपचाप खड़ा था। वह रोती रही। मैं उसके बालों पर हाथ फेरता रहा … उसे समझाता रहा । काफी देर बाद रोते-रोते उसने पूछा था –“कब जाना है विभु को?”

विभु के विदेश जाने की तैयारियां हो गयीं थीं। विभा ने ढेर सारे पकवान बना रखे थे उसके लिए। जब मैंने कहा कि वह इतना सब साथ नहीं ले जा सकता है तो उसका चेहरा उतर गया था। जितना संभव था, उसके साथ बांध दिया और ढेरों उसके मुंह में इस तरह ठूंस दिया था जैसे विभु को सप्ताह भर भूख नहीं लगने देगी ।

और फिर विभु विदेश चला गया। एयरपोर्ट पर अनेक लोग उपस्थित थे। विभा विभु को गले से लगा कर फूट-फूट कर रोई थी। विभु विमान में सवार हो गया और विमान उड़ चला। जब तक विमान आँखों से ओझल नहीं हो गया,वह हाथ हिलाती रही। फिर एक बार मेरी ओर निहारा … उफ़ … कितनी शिकायत थी उसकी आँखों में …. कितनी विवशता थी। मैं अन्दर ही अन्दर रो उठा … किन्तु कुछ न बोली वह।

हवा के झोंके ने फिर खिड़की के नीले पर्दों को लहरा दिया। मैं अतीत से निकल कर फिर यथार्थ की पथरीली भूमि पर आ गया। एक बार विचार फिर बिखर गए। एक नि:श्वास छोड़ी मैंने। विभा की ओर देखा – वह वैसी ही बैठी थी …शांत, खिड़की से बाहर झांकती हुई …प्रतीक्षा कर रही थी…ओह, कैसी प्रतीक्षा … कैसा इंतजार। न जाने विभा सच को सच क्यों नहीं मान रही है। ठीक ही कहा था उसने एक दिन – “तुम उसे नहीं समझ सकते हो । तुम एक बाप हो, माँ नहीं।” किन्तु…किन्तु सच को सच न मानने से सच, झूठ नहीं हो जाता है … सत्य का अस्तित्व तो समाप्त नहीं हो जायेगा। ओह कैसी विवशता है …. कैसी घुटन ….

फिर प्रयास करता हूँ टूटी कड़ियों को जोड़ने का …..

विभा बहुत शांत रहती थी अब। रोज़ सवेरे सबसे पहले विभु का कमरा साफ़ करती थी। विभु की तमाम वस्तुओं को कलेजे से सहेज कर रखती थी। विभा की प्रसन्नतापूर्ण आवाजें अब घर में नहीं गूंजती थी। एक दिन मैंने पूछा था –“क्या हो गया है तुम्हे? इतना शांत क्यों रहती हो ?” पहली बार जैसे उसके घाव खुल गए थे-“तुमने मेरे बेटे को मुझसे अलग कर दिया। अब तो खुश हो न?” मैं सकपका गया। इतना तीक्ष्ण उत्तर सुनने की मुझे आशा नहीं थी। फिर मैं धीरे से बोला, “तुम्हारा ही बेटा नहीं, मेरा भी बेटा मुझसे अलग हुआ है। लेकिन यदि पंछी अपने बच्चों को अपने घोंसले में ही रखे तो वे उड़ना कभी नहीं सीख सकते। उन्हें उड़ना सिखाने के लिए यह ज़रूरी है कि उन्हें खुले आकाश में स्वतंत्र छोड़ दिया जाये।” वह मेरे सीने से सिर टिका कर रोती रही और मैं उसे सांत्वना देता रहा ।

विभा सारे-सारे दिन खिड़की खोल कर विभु के पत्र की प्रतीक्षा करती रहती थी और जब उसका पत्र आता था तो वह कितना प्रसन्न हो जाती थी । सारे घर में उछलती फिरती थी।

हम विभु के जन्मदिन पर अवश्य ही उसका कमरा सजाते थे और विभा उसकी पसंद के व्यंजन तैयार करती थी किन्तु सांझ के समय उसे गले से उतार कोई नहीं पाता था। विभा रोने लगती थी – “पता नहीं, विभु ने कुछ खाया भी हो या नहीं।”

दीपावली का त्यौहार आते-आते विभा की खुशियाँ जैसे लौटने लगती थीं। दीपावली को दीप सजाते, फुलझड़ियाँ व अनार छुडाते वह पूछती थी, “विंभु भी इस समय ऐसे ही फुलझड़ियाँ छुड़ा रहा होगा न?” मैं हंस कर कहता, ”वह अपनी माँ जैसा ही है। अगर माँ सोचती है तो कोई कारण नहीं है कि वह दीपावली न मना रहा हो।”

कभी-कभी विभु का फोन भी आ जाता था। एक बार उसने बताया था कि वह अपने मित्र के साथ कुछ उपहार भेज रहा है। कुछ दिनों के बाद उसका मित्र आया था। विभा के लिए सुन्दर-सुन्दर वस्त्र और मेरे लिए एक बहुत ही कीमती गाउन भेजा था। अपना एक रंगीन हँसता हुआ चित्र भी भेजा था। एक नीले कांच का बहुत ही कलात्मक गुलदस्ता भी था। विभा तो ऐसे विभोर हो गयी की वह उसके मित्र से खाना-पीना पूछने से पहले घंटों विभु के बारे में ही बातें करती रही। 

एक वर्ष और फिर दो वर्ष बीत गए। शायद ही कोई ऐसा सप्ताह गया हो जब विभा ने विभु को पत्र न लिखा हो। शायद ही कोई ऐसा दिन बीता हो जब उसने खिड़की खोल कर घघंटों विभु के पत्र की प्रतीक्षा न की हो। 

अंतिम वर्ष भी आ गया। विभा एक-एक दिन गिन रही थी। ऐसा प्रतीत होता था जैसे कौशल्या अपने निर्वासित राम की प्रतीक्षा की घड़ियाँ गिन रही हो। सोचता हूँ तो दोनों प्रसंगों में कोई अंतर नज़र नहीं आता है।

विभा ने विभु के लिए एक बड़ी सुन्दर और सुशील लड़की भी पसंद कर ली थी। सारे अरमान निकाल रही थी विभा जो वर्षों से उसने संजो कर रखे थे। जाने क्या-क्या था उसके मन में। एक दिन मेंरे साथ शापिंग करने गयी तो जैसे सारा बाज़ार ही खरीद लाई। सभी को एक-एक चीज़ दिखा कर बताया था –“ ‘यह’ मेरे विभु के लिए है, ‘यह’ मेरी बहू के लिए है और ‘यह’ मैंने अपने पोते के लिए खरीदा है।” मैं देखता था और प्रसन्नता से झूम उठता था।  

फिर एक दिन विभु का पत्र आया। उसकी पढ़ाई पूरी हो गई थी और वह घर वापस लौट रहा था। विभा के जीवन में जैसे बहार आ गई। धीरे-धीरे उसकी वापसी का दिन करीब आने लगा। साथ ही साथ विभा के चेहरे की मुस्कान और आँखों की चमक भी गहरी होती जा रही थी। बड़ी व्यवस्था की थी उसने। घर को विभु की पसंद के अनुसार ही सजाया था। नए नीले परदे लगाये गए थे। उसकी वापसी के दिन बहुत बड़े उत्सव का आयोजन किया गया था। ढेरों अनार, फुलझड़ियाँ और आतिशबाजी माँगा रखी थी उसने। 

विभु के आने से एक दिन पहले ही उसने सैकड़ों लोगों को निमंत्रण दे रखा था। हम लोग स्वयं देर तक कार्यों में जुटे रहे। विभा के पाँव नहीं पड़ रहे थे ज़मीन पर। मुझसे बार-बार बता रही थी, “तुम्हे यह कार्य करना है, तुम्हे वह कार्य करना है। देखो, भोजन की व्यवस्था वहां पर होगी, ठीक है न? और यह कमरा हम इस तरह सजायेंगे। गार्डन से घर तक फूल बिछा दें तो कैसा लगेगा ? मेरा विभु उनपर चलता हुआ आएगा ।” 

रात देर तक हम सब व्यवस्था करते रहे … घर सजाते रहे। चंपा की लड़ियाँ उसने अपने हाथों से पिरो-पिरो कर उसने घर में सजाई थीं । “यह गुलदस्ता इस नीले परदे के पास रख दूं तो कितना अच्छा कॉम्बिनेशन होगा। विभु को दोनों ही चीज़ें बहुत पसंद हैं ।” उसने विभु का भेजा हुआ गुलदस्ता खिड़की के पास ही सजा दिया। 

रात भर सो नहीं सकें हम, वह बात ही करती रही- विभु के बारे में। कैसे हम उसका स्वागत करेंगे। कितना खुश होगा वह हमसे मिलकर। कितना बदल गया होगा वह। क्या उसे अपनी सब पुरानी बातें याद होंगी? और इन बातों ही बातों में सवेरा हो गया।

सवेरे से ही चहल-पहल थी घर में। विभा बार-बार कह रही थी – “तुम अभी तक फूल नहीं लाये हो। अरे, मिस्टर अस्थाना से कह दिया था न पार्टी के बारे में। शुक्ल जी से कह देना – सबका भोजन यहीं होगा । खरे साहब से भी बता देना – हमारा विभु आ रहा है आज । आज तो वे सभी लोग हमारे यहाँ ही खाना खायेंगे।” उसकी बातों को पूरा करते – करते मेरे तो कदम ही नहीं टिक पा रहे थे।  

नौ बजे तक सब तैयारियां हो गयीं थीं। साढ़े दस बजे विभु की फ्लाइट आनी थी। विभा अपने सबसे अच्छे वस्त्र पहन कर तैयार हुई थी। मैंने भी अपना सबसे सुन्दर सूट पहना था और फिर हम अपनी कार से एयरपोर्ट की ओर चल पड़े। और भी कई लोग थे साथ में।

एयरपोर्ट पहुँचते ही विभा ने कार का दरवाज़ा खोला और तेज़ी से अन्दर प्रवेश कर गयी। मैं उसकी उत्कंठा देख-देख कर मन ही मन मुस्करा रहा था। मैं भी तेज़ी से अन्दर पहुँचा। मेरे पीछे-पीछे और भी मित्र एवं साथी थे। 

मैं विभा के साथ सीधे रिसेप्शन पर पहुँचा। एक नौजवान ऑफिसर उपस्थित था वहां पर।

“एक्स्क्यूज़ मी ।” मैंने टोका ।

“यस प्लीज़ ।” उसने धीरे से अपना सिर उठाया और बहुत आहिस्ता से बोला, “यू आर वेलकम सर ।”  

“साढ़े दस पर आने वाली फ्लाइट लेट तो नहीं है ऑफिसर? उसमें मेरा बेटा, मेरा विभु आ रहा है। पूरे चार साल के बाद।” मुझसे पहले ही विभा बोल उठी।

“आप?” ऑफिसर ने प्रश्नसूचक दृष्टि से मुझे ताका ।

“यह मेरी पत्नी है ऑफिसर। हमारा बेटा आज विदेश से वापस आ रहा है ।” 

कुछ पल चुप रहा वह। शायद वह उपयुक्त शब्द खोज रहा था, फिर वह धीरे से बोला- “माँ जी, आप थक गयीं हैं। आप वोटिंग रूम में चली जाइये ।”

“लेकिन मेरा बेटा ….?”

“आप चली जाइये माँ जी। आप में से कोई माँ जी को वोटिंग रूम में ले जाये प्लीज।” वह फिर बोला ।

मेरे एक मित्र विभा को ले जाने लगे।

“क्या बात है ऑफिसर? जल्दी बताओ – मेरी तो जान ही निकली जा रही है । मेरा वैभव ठीक तो है न?” मैं जल्दी से बोला ।

ऑफिसर ने एक बार मुझे ऊपर से नीचे तक देखा और फिर अपनी कैप उतार कर बोला, “आयम एक्स्ट्रीमली सॉरी सर। लेकिन यह अत्यंत दुखपूर्ण दायित्व मुझे ही निभाना है कि मैं आपको यह सूचना दूं कि साढ़े दस पर लैंड करने वाला जहाज रास्ते में क्रैश हो गया है और उसका कोई भी यात्री जीवित नहीं बचा … !”  

मेरे सामने अँधेरा छ गया। मैं आगे कुछ न सुन सका। लग रहा था … तेज़ आंधियां चल रही थीं मेरे कानों में । मैं केवल विभा की चीख ही सुन सका था – “विभु, मेरा बेटा, मेरा लाल।” शायद वह इतनी दूर नहीं जा पायी थी कि ऑफिसर के शब्द उसके कानों तक न पहुंचते। मुझे ऑफिसर ने संभाला वर्ना मैं गिर पड़ता किन्तु विभा अचेत हो गयी थी। सारे सपने, सारे अरमान खाक में मिल गए थे। हमारे जीवन में आग लग गयी थी। सब कुछ भभक-भभक कर जल रहा था और हम मूक दर्शक बने खड़े हुए थे …

मेरी आँखों में फिर गरम-गरम आंसू तैर आये थे। फफक-फफक कर रो पड़ा मैं। न जाने कितनी देर तक रोता रहा ….! सिर उठाया और फिर विभा की ओर देखा … तीन दिन से हम यहीं बैठे हैं। सब लोग वापस चले गए … सारे फूल मुरझा गए। कमरे की सजावट को मैंने ही अपने हाथों से नष्ट कर डाला। अपने हाथों से चंपा की लड़ियों को नोंच डाला। पागल हो गया था मैं – विभा जड़ हो गयी थी। रोती रही, रोती रही …फिर सिसकती रही … और अब तो सिसक भी नहीं रही थी। मेरी ओर उसकी पीठ थी। मुझसे नाराज़ जो थी। मैंने ही विभु को विदेश भेजा था न ! देखने लगा विभा को … कितनी शांत … कितनी निश्चल और कितनी नि:चेष्ट। 

“विभा !” पुकारा मैंने किन्तु कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई ।

“विभा !” कुछ तेज़ स्वर में पुकारा, “सुनो विभा! तुमने कहा था न कि विभु मेरा रूप है। देखो, क्या मैं विभु का रूप नहीं हूँ ?”

फिर गहन मौन ।

“विभा! ” इस बार बहुत तेज़ बोला मैं, किन्तु कोई प्रभाव नहीं ।

अंततः स्वयं उठा मैं और पीछे से उसके कन्धों को झकझोर कर बोला, “विभा !” किन्तु उसकी गर्दन लुढ़क गई। वह न जाने कब मर चुकी थी। उसकी आँखें अभी भी खुली हुईं थीं … दूर खिड़की के बाहर देख रहीं थीं … जैसे विभु की प्रतीक्षा कर रही हों …..

… चिर प्रतीक्षा।

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