फिराक़ गोरखपुरी को क्यो नही काबुलीवाला पसंद आई

धीरज मिश्र (हृदय से किशोर लेखक और फिल्मकार)

मुंबई: एक ऐसा लेखक जिन्होंने शुरुआत तो फारसी से की लेकिन जब हिंदी के नज़दीक आये तो उसी के हो कर रह गए। फिराक़ गोरखपुरी ने उर्दू के आधुनिक काव्यधारा को एक प्रवाह दी , सन 1896 की 28 अगस्त को गोरखपुर में अहीरों के मोहल्ले में उनका जन्म हुआ। अपने आस पास हमेशा गरीब मजदुर, मोची, और चरवाहों को ही देखा और अंत तक वैसे ही लोग इनके दिल के करीब रहे , फिराक़ की मूर्खता से सदा दुश्मनी थी वो नवीनता की हमेशा वकालत करते थे। बाल गंगाधर तिलक का उन पर गहरा प्रभाव था वो उनका रथ तक खींच चुके थे।फिराक़ बेबाक थे प्रेमचंद के बारे में उन्होंने ने कहा था की भले ही उनका नाम प्रेमचंद हो लेकिन प्रेम छोड़ सब अच्छा लिखा उन्होंने, रबिन्द्रनाथ टैगोर के बारे में कहा की वो इतना सुंदर लिखते हैं की हम गरीबों पर अहसान करते हैं लेकिन मुझे काबुलीवाला पसंद नही आई।तुलसीदास को संस्कृत युग को बदलने वाला सबसे बडा लेखक करार दिया। कालीदास और शेक्सपियर को समान दर्जा का लेखक मानते थे उनके अनुसार दोनों में कौन बड़ा हैं ये कहना मुश्किल हैं।अपनी उपलब्धियों को उन्होंने कभी कोई तवज्जो नही दी उनके अनुसार हिंदुस्तान का उस वक़्त सबसे अच्छा लेखक बंकिम बाबू थे।

फिराक़ ने जीवन की तकलीफों को कविताओं के माध्यम से बड़े सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया।

गुलिस्तां ,गुले- ए- नग्मा, गुलबाग और ज़िंदगी रंगे शायरी उनकी प्रमुख कृतियाँ रही । 1969 में उन्हें उनकी कृति गुल – ए- नग्मा के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला।

अब दौरे आसमां है न दौरे हयात है
ए दर्दे – हिज्र तू ही बता कितनी रात हैं
अब वो हमारे बीच तो नही लेकिन आज भी आधुनिक शायरों में उनका नाम बड़ी इज्जत से लिया जाता है।

उनकी कुछ कविताएं

जो बात है हद से बढ़ गयी है
वाएज़ के भी कितनी चढ़ गई है
आँखों में जो बात हो गयी है
एक शरहे-हयात हो गयी है।

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