सहनशीलता, दानशीलता और त्यागशीलता का पर्व है; “रमज़ान”

एज़ाज़ क़मर, एसोसिएट एडिटर-ICN
नई दिल्ली: ‘मोमिन के लिये दुनिया इम्तिहान का मुक़ाम है” बुजुर्गो का यह वाक्य बचपन से ही हर मुसलमान बालक के मस्तिष्क पर अंकित हो जाता है, हालाकि युवा मन बड़ा कोमल किंतु चंचल होता है फिर भी वह मासूम अपनी कल्पना की उड़ानो को लगाम लगाता है, क्योकि उसे संदेश मिल चुका है कि यह संसार सिर्फ एक परीक्षा स्थल है।चूँकि घर व्यक्ति के लिये सबसे बड़ी पाठशाला होती है, इसलिये बचपन से ही बच्चो को शिक्षित किया जाता है, कि अपनी ‘इच्छाओ पर नियंत्रण रखे, ‘महत्वाकांक्षाओ को पैदा ही ना होने दे’, ‘अभावो मे जीना सीखे’ और ‘विषम परिस्थितियो मे भी कोई शिकायत ना करे’।
“मां के पैर के नीचे जन्नत है” और “बाप जन्नत का दरवाज़ा है”, मां-बाप के लिये उसके दायित्व समझाते हुये नैतिक शिक्षा का पहला पाठ पढ़ाया जाता है, यह शिक्षा कितनी असरकारक है? इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है, कि सबसे कम वृद्धा-आश्रम मुस्लिम समाज मे ही मिलते है।
बचपन से ही बच्चे का जीवन माँ के आस-पास केंद्रित रहता है, माँ उसे पैगंबर हज़रत मोहम्मद साहब (ﷺ) की कुर्बानियो के बारे मे समझाती है, सात साल के अबोध बालक के मन मे तब से ही यह विचार पैदा हो जाता है, कि ‘जीवन मौज-मस्ती करने के लिये नही है’ बल्कि “मनुष्य बलिदान देने के लिये ही पैदा हुआ है”।
बारह वर्ष की आयु मे उसे मस्जिद मे नमाज़ पढ़ने का सौभाग्य मिलता है, फिर धर्मगुरु उसे बताते है, कि बलिदान क्यो दिया जाता है?
बलिदान कैसे दिया जाता है?
बलिदान कब तक दिया जायेगा अर्थात उसकी सीमा क्या होगी?
बलिदान के परिणाम स्वरूप उसे क्या पुरस्कार मिलेगा?
युवा सीखता है कि इस दुनिया मे अल्लाह ने इंसान को कर्म करने के लिये भेजा है, उसके कर्मो के फल के आधार पर ही उसकी सफलता और असफलता निर्भर करती है,अर्थात जीवन रूपी परीक्षा की कर्म रूपी उत्तर पुस्तिका ही उसे स्वर्ग और नर्क का भोगी बनायेगी।
सहनशीलता के साथ पराक्रम करते हुये इस परीक्षा को सफल बनाया जा सकता है।मोमिन को अपनी अंतिम सांस तक त्याग के साथ बलिदान करते रहना है अर्थात पूरा जीवन ही परीक्षा है।
यह परीक्षा चार प्रश्नपत्रो मे है :-
पहला प्रश्नपत्र “फर्ज़” का है, जो खुदा ने उसके लिए पाँच अनिवार्य कर्म निश्चित किये है, जिसमे कलमा, नमाज़, रोज़ा, ज़कात और हज है।
दूसरा प्रश्न पत्र “हुकू़कुल-आबाद” अर्थात “मानवाधिकार” का है, जिसके अंतर्गत परिवार, संबंधियो, पड़ोसियो, साथियो, मित्रो और समाज के अन्य लोगो के साथ किये गये व्यवहार के आधार पर आपके प्रश्न पत्र का मूल्यांकन होगा।
तीसरा प्रश्न पत्र “अम्र बिल मारूफ नही अनिल मुनकर” का है, जिसके अंतर्गत समाज के चरित्र निर्माण के लिये आपके द्वारा दी गई कुर्बानी के आधार पर आपके प्रश्न पत्र का मूल्यांकन होगा।
चौथा प्रश्न पत्र संघर्ष (जिहाद) का है, जो आपके पराक्रम का परीक्षण है,चाहे इंद्रियो पर नियंत्रण का मुद्दा हो और या किसी बुराई को जड़ से खत्म करने का मुद्दा हो,बलिदान के आधार पर ही इस प्रश्न पत्र का मूल्यांकन होगा।
पहले दो चरण स्वयं के चरित्र निर्माण के लिये किये गये त्याग का परीक्षण है, तीसरा चरण ‘नैतिक शिक्षा’ के द्वारा समाज कल्याण के लिये किये गये आपके प्रयासो का आंकलन है,चौथा चरण व्यवस्था परिवर्तन का है, जिसमे सिर्फ आपके शौर्य पराक्रम और बलिदान की पराकाष्ठा का मूल्यांकन है।
सुबह भोर मे फजर की नमाज़ पढ़ो और सूर्य उदय के बाद पृथ्वी पर रोज़ी तलाशने के लिये निकल जाओ,सूर्यास्त तक नमाज़ भी पढ़ते रहो और रोज़ी-रोटी के लिये मेहनत भी करते रहो, फिर घर आकर अपने परिवार वालो का हाल-चाल पूछो।
दिन-भर की मेहनत के बाद अगर तुम्हारे पास सोलह रोटी उपलब्ध हुई है, तो आठ रोटी अपने माता-पिता तथा भाई-बहन को खिलाओ और बाकि आठ रोटी अपने परिवार (पत्नी-बच्चो) के लिये ले जाओ,अगर परिवार को खिलाने के बावजूद भी सौभाग्य से चार रोटी उपलब्ध है और आपकी ख़ुराक भी (भूख) चार रोटी की है,तो भी आप सिर्फ तीन रोटी खाओ और चौथी रोटी पड़ोसी को खिला दो, या किसी मिसकीन या फकीर को दे दो अर्थात अपनी भूख का तीन चौथाई भाग ही ग्रहण करो।
इतना ज़्यादा त्याग करने के बावजूद भी अगर संपत्ति जमा हो जाये,तो फिर संपत्ति कर (जकात) दो और खोज-खोज कर भूखे, मिस्कीन, भिखारी तथा परदेसी को दान दो, किंतु दौलत बांटते-बांटते भी कम नही पड़ रही है तो अस्पताल-स्कूल खुलवाओ, सराय-सड़क-पुल निर्माण करवाओ, कुआं खुदवाओ और सड़क के किनारे पेड़ लगवाओ।
इतना त्याग करने बावजूद भी जान नही छूट जाती, बल्कि अब अस्पताल मे जाकर देखो वहां कोई भेदभाव और भ्रष्टाचार तो नही हो रहा है,स्कूल मे दी जा रही शिक्षा का बच्चो पर अनुकूल असर हो रहा है या नही?
कुआं मे साफ पानी है या नही?
सड़क साफ-सुथरी है या गड्ढे तो नही पड़ गये है?
सड़क के किनारे लगे पेड़ कही गाय-भैंस तो नही खा गई?
अगर अस्पताल मे सही दवा मिल रही है, तो ठीक है, वरना उन्हे सुधरने का भाषण दो, फिर भी ना सुधरे तो उन्हे कार्यवाही करके सुधार दो।
स्कूल जाओ और पता लगाओ कि बच्चे शिष्टाचारी और ज्ञानवान क्यो नही हो रहे है?
टीचर की गलती है तो उसे सुधारो अगर नही, तो बच्चो के घर जाकर शिकायत करो और बच्चो के ख़िलाफ घरवालो से कार्यवाही करवाओ, इसी तरह सारे जहां का बोझ अपने सर पर उठाए आगे बढ़ते रहो।
ऐसे लोग जिन्होने ना सुधरने की कसम खा रखी है, अगर वह तुम्हारे पीछे पड़ जाये तो मैदान छोड़कर भागो नही बल्कि उनसेे दो-दो हाथ करो,फिर अगर वह तुम्हे तुम्हारे अंजाम पर पहुंचा दे और तुम्हे चन्द मिनट बोलने का मौका मिले तो भी उन्हे गाली मत दो,बल्कि इस समय का उपयोग उनको भाषण देने मे करो और उनसे कहो कि “ऐ अज्ञानी मनुष्यो तुरंत सुधर जाओ!”
“तुम्हे लौट कर रब की तरफ ही जाना है और वह तुम्हारा हिसाब-किताब लेने वाला है”।
[“निस्संदेह हमारी ओर ही है उनका लौटना”।
(कुरान 88:25)]
[“फिर हमारे ही ज़िम्मे है, उनका हिसाब लेना”।
(कुरान 88:26)]
उपरोक्त लिखित शब्द किसी साहित्यिक उपन्यास की कहानी के नही है, बल्कि वह मोमिन अर्थात एक सूफीवादी मुसलमान की जीवनशैली के लिये बनाई गई आचार संहिता का व्यंगात्मक वर्णन है।
[“वह चीज़ न तुम्हारे धन है और न तुम्हारी सन्तान, जो तुम्हे हमसे निकट कर दे….”।
(कुरान 34:37)]
संसार मे मनुष्य को सबसे ज़्यादा प्रिय उसके बेटे और उसके द्वारा अर्जित की गई धन-संपत्ति होती है, किंतु एक मोमिन के लिये आदेश होता है कि यह दौलत और यह बेटे तो हमारा माल है और हम जब चाहेगे इसे वापस ले लेगे अर्थात यह तेरे किसी काम के नही है,परंतु तुझे तो परीक्षा उत्तीर्ण करके हमे प्रसन्न करना है और हमसे अपना पुरस्कार लेना है।
मोमिन से अभिप्राय मुसलमान नही होता है, बल्कि कोई भी व्यक्ति जो व्रत के साथ कलमा पढ़ लेता है, तो वह मुसलमान हो जाता है,दूसरे खलीफा उमर तीसरे खलीफा उस्मान और चौथे खलीफा अली की हत्या करने वाले व्यक्ति भी मुसलमान थे,पैगंबर साहब के नाती और अध्यात्मिक उत्तराधिकारी इमाम हुसैन के हत्यारे भी मुसलमान थे।
मोमिन वह मुसलमान होता,जो मन-वचन-कर्म से किसी मानव, पशु और पेड़-पौधो को कष्ट नही देता है और हमेशा सच्चाई के मार्ग पर चलते हुये राष्ट्र कल्याण की बात करता है, अत: सरल शब्दो मे भावार्थ है, कि जो व्यक्ति प्रथम तीन परीक्षाएं उत्तीर्ण लेता है वही मोमिन बनने के लिये आवेदन कर सकता है।
तप, पराक्रम और त्याग के बाद एक साधारण मुसलमान मोमिन बन सकता है और रमजान का महीना एक सुअवसर होता है, जब मुसलमान अपना स्तर बढ़ाकर अगले चरण मे जाने की कोशिश करते है ,इसलिये उन्हे परीक्षा का डर नही होता बल्कि अगली कक्षा मे जाने की खुशी, जोश और जुनून होता है,यही कारण है कि रमज़ान के आगमन की सूचना मिलते ही चारो तरफ हर्षोल्लास का वातावरण बन जाता है।
चाँद-रात की संभावित तिथि को युवा ऊंची इमारतो, छोटी पहाड़ियो और मोबाइल टावरो के ऊपर चढ़कर सूर्यास्त के आधा घंटे के बाद आसमान मे चाँद खोजने की कोशिश करते है,चाँद खोजने के बाद उसकी दिशा (स्थान) बुजुर्ग लोगो को बताई जाती है,फिर जैसे ही उनको चाँद नजर आता है, वह तुरंत चाँद की दुआ पढ़ते है;
[“अल्ला-हुम्मा अहिल लहू अलैना बिल अम-नि वल इमा-नि वस सला-मति वल इस्लामि वत तौफीकि लिमा तु-हिब्बु व तरज़ा रब्बी व रब्बुकल लाह”।
(ऐ अल्लाह !
हम पर इस चाँद को अम्नो-ईमान, सलामती और इस्लाम और उस चीज़ की तौफ़ीक़ के साथ तुलु फरमा, जो आप पसंद करते है और जिसमे आपकी रज़ा है,(ऐ चाँद) मेरा और तेरा रब अल्लाह है!)]
रमज़ान की शुरुआत चाँद दिखने से हो जाती है, छोटे बड़े सब एक दूसरे को रमज़ान की बधाई और शुभकामनाएं देते है। रोज़ा इफ्तार करने के लिये लगाये गये सायरन पूरे क्षेत्र मे ज़ोर-ज़ोर से बजने लगते है, फिर मस्जिद से मुअज़्ज़िन (अज़ान पढ़ने वाले मस्जिद के सेवक) “तरावीह” की नमाज़ का ऐलान करते है।
“फजर”, “ज़ुहर”, “असर”, “मग़रिब” और “ईशा” नामक पांच वक्त (Times) की नमाज़ होती है, हर वक़्त (Times) की नमाज़ मे चार प्रकार (Types) की नमाज़ हो सकती है, इसको “फर्ज़” (अनिवार्य), “वाजिब” (अर्ध-अनिवार्य), “सुन्नत” (कर्त्तव्यातिक्ति) और “नवाफिल” (स्वैच्छिक) कहते है, यह नमाज़ दो, तीन या चार “रकात” (आसन) की होती है, रकात की शुरुआत ‘खड़े होकर’ (क़याम) पहले ‘नीयत’ (व्रत) करने के बाद, ‘रफा-यदैन’ अथवा “तकबीर” (कानो तक दोनो हाथो को ले जाना) करने के बाद होती है, उसके बाद मंत्रोच्चारण किया जाता है, फिर “रुकू” (घुटनो पर हाथ रखकर खड़े होना) होता है, फिर पुनः सीधे खड़े होकर “सजदा” (जमीन पर सर रखना) किया जाता है, इस तरह पहली रकात पूरी हो जाती है।
हर दो रकात के बाद “तशहुद” (घुटने मोड़कर बैठना) मे मंत्रोच्चारण करके, फिर दोनो तरफ मुंह करके ‘सलाम’ किया जाता है, इस तरह दो रकात की नमाज़ पूर्ण हो जाती है।
ईशा की नमाज़ मे चार फर्ज़, छह सुन्नत, तीन वितर (वाजिब) और चार नवाफिल होते है, इसकी कुल सत्तरह (17) “रकात” होती है, किंतु “तरावीह” की नमाज़ मे बीस (20) अतिरिक्त रकात होती है, जो दो-दो रकात करके दस बार व्रत (नियत) करके साथ-साथ पढ़ी जाती है।
कुरान मे 30 पारा (खंड), 114 सुराह (अध्याय) और 6236 आयत (छंद) है, सामान्यता: 5-6 छंद (आयत) नमाज़ मे पढ़े (तिलावत/पारायण) जाते है, किंतु तरावीह की नमाज़ मे रमज़ान के एक महीना के अंदर पूरे 6236 छंद पढ़ना होते है अर्थात कुरान के तीस खंड पूरे करने होते है।
सामान्यता: नमाज़ मे कुरान की उन आयतो की तिलावत की जाती है जिनमे मे सजदा नही होता है, क्योकि इससे भ्रम की स्थिति पैदा हो सकती है,चूँकि तरावीह की नमाज मे पूरा कुरान पढ़ना होता है, इसलिये पूरे चौदह (14) सजदे करना अनिवार्य है, यह नमाज़ की हर रकात मे होने वाले दो सजदो से अतिरिक्त होते है।
{अबू हुरैरा ने सुनाया कि पैगंबर साहब ने कहा; “इंसान अपने रब के सबसे करीब उस वक़्त होता है, जब वह सज्दे मे हो, तो इस लिये उस वक़्त दुआएं ज़्यादा करो”।
(सही मुस्लिम संख्या 482)}
तरावीह की हर चार रकात के बाद एक दुआ पढ़ी जाती है, जिसे तरावीह की दुआ कहते है;
[(सुब्हा-नल मलिकिल क़ुद्दूस।
सुब्हा-न ज़िल मुल्कि वल म-ल कूत।
सुब्हा-न ज़िल इज्जती वल अ-ज़-मति वल-हैबति वल क़ुदरति वल-किब्रियाइ वल-ज-ब-रुत।
सुब्हा-नल  मलिकिल हैय्यिल्लज़ी ला यनामु व ला यमूत। सुब्बुहुन कुद्दूसुन रब्बुना व रब्बुल मलाइकति वर्रूह। अल्लाहुम्मा अजिरना मिनन्नारि। या मुजीरु या मुजीरु या मुजीर।)
(पाक है वो अल्लाह जो मुल्क और बादशाहत वाला है, पाक है वो अल्लाह जो इज्ज़त वाला, और अज़मत वाला, और हैबत वाला, और कुदरत वाला, और बड़ाई वाला, और रूआब वाला है,पाक है वो अल्लाह जो बादशाह है, जिंदा रहने वाला कि न उसके लिए नींद है और न मौत है, वो बे इन्तेहा पाक है और बेइंतेहा मुक़द्दस है, हमारा परवरदिगार फरिश्तो और रूह का परवरदिगार है
एे अल्लाह हमे आग से बचाना!
एे बचाने वाले!
एे बचाने वाले!
एे बचाने वाले!)]
तरावीह के बाद रमज़ान मे वितर की नमाज़ जमात से पढ़ी जाती है, वितर की नमाज़ तीन रकात की होती है,तीसरी रकात मे दुआ कुन्नूत पढ़ी जाती है;
[“अल्लाहुम-म इन्ना नस्तईनु-क व नस्तग्फिरु-क व नुउ मिनु बि-क व न-त-वक्कलु अलै-क व नुस्नी अलैकल खै-र व नश्कुरू-क व ला नक्फुरू-क व नख्लउ व नतरूकु मंय्यफजुरू-क”।
“अल्लाहुम-म इय्या-क नअबुदु व ल-क नुसल्ली व नस्जुदु व इलै-क नसआ व नहि्फदु व नर्जू रहम-त-क व नख्शा अजा-ब-क इन-न आजा-ब-क बिल कुफ्फारि मुलहिक”।
(ऐ अल्लाह!
हम तुझ से मदद चाहते है और तुझ से माफी मांगते है।
तुझ पर ईमान रखते है और तुझ पर भरोसा करते है और तेरी बहुत अच्छी तारीफ करते है और तेरा शुक्र करते है और तेरी ना-शुक्री नही करते और अलग करते है और छोड़ते है, इस शख्स को जो तेरी नाफरमानी करे।
ऐ अल्लाह, हम तेरी ही इबादत करते है और तेरे लिये ही नमाज़ पढ़ते है और सजदा करते है और तेरी तरफ दौड़ते और झपटते है और तेरी रहमत के उम्मीदवार है और तेरे आजाब़ से डरते है, बेशक तेरा आजाब़ नास्तिको को पहुंचने वाला है।)]
ईशा की नमाज़ के बाद घर आकर थोड़ा आराम करते है और फिर रात को सहरी के लिये उठ जाते है,पहले सहरी के वक्त जगाने के लिये कुछ लोग नात-ए-पाक, हमद-ओ-सना और कव्वालियो गाते हुये आते थे, उन्हे मसेहरी कहते थे, इसके बाद चौकीदार दरवाजा खटखटाकर चिल्लाते थे, कि “उठ जाओ, सहरी का वक्त हो गया है”।
फिर मस्जिदो से लाउडस्पीकर द्वारा ऐलान होने लगे, आज बहुत से लोग अपने घरो की छतो के ऊपर बड़े-बड़े स्पीकर लगाकर शोर मचाते है,महानगरो मे रहने वाले लोग पहले घड़ी मे अलार्म लगा दतेे थे और अब मोबाइल के अलार्म से ही काम चल जाता है।
सहरी मे सिवईया, खजला, शीरमाल, शाही-टुकड़े, फिरनी (इरानी खीर) और दूसरी मुग़लई मिठाईयो का सेवन होता है, खानेे मे खिचड़ी और जल्दी हज़म हो जाने वाले भोज्य पदार्थ लिये जाते है, जब अज़ान की आवाज आती है, तो तुरंत खाने-पीना बंद करके वुज़ु किया जाता है।
मस्जिद मे मुअज़्ज़िन अज़ान पढ़ते है;
[{ “अल्लाहु अकबर! अल्लाहु अकबर!
अश्हदु अल्ला इला-ह इल्लल्लाह, अशहदु अल्ला इला-ह इल्लल्लाह
अश्हदु अन-न मुहम्मदर्रसूलुल्लाह। अश्हदु अन-न मुहम्मदर्रसूलुल्लाह।
हय-य अलस्सलाह। हय-य अलस्सलाह।
हय-य अलल फलाह। हय-य अलल फलाह।
अल्लाहु अकबर। अल्लाहु अकबर।
ला इला-ह इल्लल्लाह”।।
“असिस्लातु खैरुम्मिनन्नौम, अस्सलातु खैरुम्मिन्नौस”।।}
{(”ईश्वर ही महान है। ईश्वर ही महान है।”
”मैं साक्षी हूं कि ईश्वर के सिवा कोई पूज्य-प्रभु नही है।
मैं साक्षी हूं कि ईश्वर के सिवा कोई पूज्य-प्रभु नही है।”
”मैं साक्षी हूं कि मुहम्मद (ﷺ) ईश्वर के सन्देष्टा है।”
”मैं साक्षी हूं कि मुहम्मद (ﷺ) ईश्वर के सन्देष्टा है।
”आओ नमाज की ओर।
आओ नमाज की ओर।
आओ सफलता एंव कल्याण की ओर। आओ सफलता एंव कल्याण की ओर ”।
” ईश्वर ही महान है। ईश्वर ही महान है”।
“ईश्वर के सिवा कोई पूज्य- प्रभु नही है”।)
(नोट- सूर्योदय के पूर्व की नमाज़ के लिये जो अज़ान दी जाती है, उसमे ये अतिरिक्त बोल शामिल किये जाते है:-
”नमाज़ नींद से ऊतम है।
नमाज़ नींद से ऊतम है”)}]
अज़ान सुनने के बाद दुआ पढ़ी जाती है;
[“अल्ला-हुम्मा रब्बा हाज़ि-हिद दा-वतित ताम-मह वस-सलातिल काइ-मह आ-ति मुहम्मदा-निल वसी-लता वल फ़जी-लता वब-अस-हु मक़ा-मम मह-मूदा अल्लज़ी व अत्तह इन्नका ला तुख-लिफुल मी-आद”।
(“एे अल्लाह!
इस पूरी पुकार और क़ायम होने वाली नमाज़ के रब हज़रत मुहम्मद (ﷺ) को वसीला और फ़ज़ीलत अता फरमा और उनको मक़ामे महमूद मे खड़ा कर, जिसका तूने उनसे वादा फ़रमाया है, बेशक तू वादा खिलाफी नही करता”।]
फिर रोज़ा का संकल्प (नीयत) लिया जाता है, सहरी के समय रोज़ा का व्रत (नीयत) की दुआ;
[‘’व बि सोमि गदिन नवई तु मिन शहरि रमजान’’  (मैंने माह रमज़ान के कल के रोज़े की नियत की है)] फिर फजर की नमाज़ पढ़ी जाती है जिसमे दो रकात सुन्नत और दो रकात फर्ज़ होते है।
फजर की नमाज़ के बाद इमाम साहब दुआ करते है, उस के बाद अधिकतर मुसलमान निम्नलिखित ‘आयतल कुर्सी’ की दुआ पढ़ते है; [“अल्लाहु ला इला-ह इल्लल्ला-हु-वल हय्युल क़य्यूमु ला तअ्-खुज़ुहू सि-न तुंव-व ला नौम लहू मा फि़स्समावातिं व मा-फ़िल अर्ज़ि मन-ज़ल्लज़ी यश्-फ़उ अिन-द-हू इल्ला बि-इज़्निही यअ्-लमु मा बै-न एेदीहिम व मा ख़ल-फ़-हुम व ला युहीतू-न बि-शैइम मिन अिल्मि-ही इल्ला बि-मा शा-अ व सि-अ कुर्सि-युहूस्समा-वाति
वल अर्ज़ि व ला यऊदु हू हिफ़्जुहुमा व हुवल अ़लीयुल अज़ीम!’
(अल्लाह है जिस के सिवा कोई माबूद नही!
वह आप ज़िंदा और औरो का क़ाइम रखने वाला,उसे ना ऊंघ आये ना नींद, उसी का है जो कुछ आसमानो मे है और जो कुछ ज़मीन मे, वोह कौन है? जो उसके यहां सिफ़ारिश करे बे उसके हुक्म के जानता है,जो कुछ उनके आगे है और जो कुछ उनके पीछे और वोह नही पाते, उस के इल्म मे से मगर जितना वह चाहे उसकी की कुरसी मे समाये हुये है,आसमान और ज़मीन और उसे भारी नही उनकी निगहबानी और वो ही बुलन्द बड़ाई वाला”।]
फजर की नमाज़ के बाद मज़दूर, मुलाज़िम और कारोबारी लोग अपने काम पर निकल जाते है, बच्चे पढ़ने चले जाते है, और बाकी लोग आराम करने के लिये सो जाते है,दोपहर मे ज़ोहर की नमाज़ मे चार फर्ज़, छह सुन्नत और दो नवाफिल होते है,अपराहन मे असर की नमाज होती है, जिसमे चार सुन्नत और चार फर्ज़ होते है,फिर कुछ लोग कुरान की तिलावत करते है।
सूर्यास्त से पहले विभिन्न प्रकार के पकवान तल या भूनकर बनाये जाते है,अधिक से अधिक फलो को साबुत या उनकी चाट बनाकर इस्तेमाल के लिये तैयार किया जाता है,रोज़ा के दौरान विशेष आकर्षण शरबत होते है,यह शरबत नींबू, तुखमे-रयां (सब्जा), रूह-ए-अफजा और फलो के होते है।
इफ्तार से पहले दस्तरखुअान पर सारे पकवान सजा दिये जाते है और सामूहिक इफ्तार करने की कोशिश होती है,अगर सारे सदस्य घर के अंदर है, तो समस्त परिवार एक साथ इफ्तार करेगा और घर से बाहर है तो दुकान/कारखाने के स्टाफ इफ्तार लोग साथ मे इफ्तार करते है,मुसाफिरो के लिये कुछ समाज सेवक सड़को पर विशेष इफ्तार की व्यवस्था करते है।
इफ्तार से पहले सभी लोग दुआ मांगते है, विशेषकर बुजुर्ग लोग तो रो-रोकर गिड़-गिड़ाकर दुआ मांगते है,फिर सायरन या नवाबो के जमाने की तोपे गोले दाग़ती है,आवाज़ सुनकर सभी लोग इफ्तार की दुआ पढ़ते है;
[”अल्लाहुम्मा इन्नी लका सुमतु,
व-बिका आमन्तु,
व-अलयका तवक्कालतू,
व- अला रिज़क़िका अफतरतू”।
(हे अल्लाह!
मैंने तुम्हारे लिये उपवास किया और मुझे तुम पर विश्वास है और मैंने तुम पर अपना भरोसा रखा है।)
कुछ पंथो मे लोग थोड़ा सा नमक ज़बान पर लगाते है और उसके बाद खजूर खाते है,बाकी मुस्लिम पंथ के रोज़दार खजूर खाकर पानी पीते और फिर दूसरा सामान खाते है।
इफ्तार के बाद मग़रिब की नमाज़ पढ़ी जाती है, जिसमे तीन फर्ज़, दो सुन्नत और दो नवाफिल होते है,इस तरह एक रोज़ा मुकम्मल हो जाता है।
रमज़ान मे वह दिन भी आता है जब कुरान मुकम्मल हो जाता है, मस्जिद मे जश्न का माहौल होता है, हाफिज साहब को लोग तोहफे देते है और मिठाई बांटी जाती है, 26 वें की रोज़ा की रात को मस्जिदे खूब सजाई जाती है, क्योकि यह शबे-क़दर की रात मानी जाती है,रात भर लोग जागकर इबादत करते है,क्योकि इस रात मे 1000 रातो के बराबर इबादत का सवाब मिलता है,
शबे-क़दर की दुआ;
[“अल्लाहुम-म इन्न-क अफ़ूवुन करीमु तुहिब्बुल अफ़ व फ़अ्फ़ु अन्नी”।
(“बेशक तू  माफी फ़रमाने वाला, दर-गुज़र फ़रमाने वाला है और माफी करने को पसंद फ़रमाता है लिहाज़ा मुझे माफी फ़रमा दे!”)]
रमज़ान के अंतिम अशरा (10 दिन) के दौरान पुरुष मस्जिद मे निवास करते हुये मौन व्रत करते है,इस “एतेकाफ़” मे बैठने का मक़सद स्थानीय लोगो की अभ्युन्नती व कल्याण के लिये अल्लाह से दुआ (प्रार्थना) करना होता है, दूसरे मौन व्रत रखना भी ज़रूरी है,
क्योकि सूफीवाद का नियम है;
कम खाना! (रोज़ा),
कम सोना! (सहरी),
कम बोलना!(एतेकाफ़)।
[“बिस्मिल्लाहि दखल्तु व अलैहि तवक्कलतु व नवैतु सुन्नतल एतेकाफ़”।
(अल्लाह के नाम से दाख़िल होता हूँ और उसी पर भरोसा करता हूँ और सुन्नत एतेकाफ की नीयत करता हूँ)]
मुसलमान के लिये रमज़ान के उपवास (रोज़ा) का अभिप्राय सिर्फ खाना-पीना छोड़कर अपना वज़न कम करना, प्रोटीन और चर्बी घटाना, खून साफ करना, फेफड़े की रगो को मज़बूत करना, दिमाग की नसो को सुकून देना और रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाना नही है,बल्कि यह उपरोक्त वर्णित कार्य कभी भी खाना-पीना छोड़ कर किये जा सकते है, वास्तव मे मुसलमान के रोज़ा रखने का उद्देश्य “मोमिन” (सूफी) बनना होता है।
“नर ही नारायण है” की तर्ज़ पर मानव सेवा करके पुण्य अर्जित करतेे हुये अल्लाह को प्रसन्न किया जा सकता हैे, इसलिये रोज़ा मानव जाति की सेवा करने के लिये संकल्प और संघर्ष है।
उसके (रोज़दार) विचारो पर लगाम लगे और सेवा भाव मे कोई रुकावट ना आये, इसलिये रोज़ा “इंद्रियो और अंगो पर नियंत्रण करने” का संकल्प (नीयत) है,ताकि “वह अपने मन-वचन-कर्म से किसी दूसरे जीवधारी (इंसान, जिन्न, जानवर और पेड़-पौधे) को कष्ट ना दे”,जिससे ख़ुश होकर “अल्लाह पाक उसकी (रोज़दार) इबादत को कुबूल करतेे हुये उसके दरजात को बुलंद फरमाएं और उसे मुसलमान से मोमिन बनाऐ”।
मुसलमान इम्तिहान मे कामयाब होने के लिये आचरण संहिता (Code of Conduct) का पालन करने का प्रयास करता है,इसलिये उसका संकल्प होता है, कि वह किसी के ऊपर हाथ ना उठाये, किसी को पैर से ठोकर ना मारे, अपनी वासना को मिटाने के लिये किसी का शारीरिक शोषण ना करे, अपने कानो का इस्तेमाल पराई बाते सुनने और किसी की जासूसी करने मे ना करे, अपनी आंखो की हरकतो से दूसरे को कष्ट ना दे, अपनी नाक की क्षमता का दुरुपयोग ना करे, अपने मस्तिष्क मे ऐसा विचार ना आने दे जिसके कारण किसी जीवधारी को कष्ट पहुंचे और सबसे खतरनाक इंद्रिय ‘ज़बान’ का सदुपयोग करे,क्योकि जिस तरह सारी बीमारियो की जड़ पेट है,उसी तरह सारी समाजिक बीमारियो अथवा झगड़ो की जड़ ज़बान है,
“ज़बान शीरी, मुल्लाह गिरी”
(भावार्थ :- एक मीठी ज़बान मनुष्य को नेता बना सकती है और बुरी भाषा एक राष्ट्र को भी बर्बाद कर सकती है)।
रोज़ा व्यक्ति मे अच्छे व्यवहार को विकसित करने मे मदद करने के साथ-साथ भ्रातृत्व और एकजुटता की भावना पैदा करता है, क्योकि रमज़ान मे मुसलमान खुद को एक परिवार जैसा महसूस करते हुये अपने जरूरतमंद और भूखे भाई-बहन की समस्याओ का एहसास करके गंभीरता से उनकी मौलिक समस्याओ (रोटी, कपड़ा और दवा) का समाधान करने का प्रयास करते है।
इस्लाम की शुरुआत मे मुसलमान हर महीने मे तीन रोज़ा रखते थे,फिर दूसरी हिजरी मे शाबान के महीने मे रोज़ा फर्ज़ हुआ,शुरुआत मे अगर इफ्तारी के वक्त रोज़दार सो जाता था, तो फिर वह कुछ नही खा सकता था,दूसरे दिन ही उसे रोज़ा इफ्तार करना होता था।
एक बार एक बूढ़ा मुसलमान जिसका नाम ‘सुरमा बिन मलिक’ था,वह इफ्तार के वक्त सो गया, नियमानुसार अब उसे दूसरे दिन ही इफ्तार करना था, भूख के कारण उसकी दशा काफी बिगड़ गई, तो मुसलमान बहुत परेशान हो गये।
तब अल्लाह ने संदेश भेजकर रोज़ा की समय अवधि निर्धारित कर दी।
[“….और (रमज़ान मे) खाओ और पियो यहाँ तक कि तुम्हे उषाकाल की सफ़ेद धारी (रात की) काली धारी से स्पष्ट दिखाई दे जाये। फिर रात तक रोज़ा पूरा करो और जब तुम मस्जिदो मे ‘एतिकाफ़’ की हालत मे हो, तो तुम उनसे (पत्नियो से) ना मिलो। ये अल्लाह की सीमाए है। अतः इनके निकट न जाना….”।
(कुरान 2:187)]
कुरान की आयत नाज़िल होने के बाद रोज़ा सुबह सादिक (भोर) से पहले शुरू होता और सूर्यास्त के बाद खत्म हो जाता।
{अबू क़ास ने बताया, हज़रत अम्र बिन अल-आस ने सुनाया, पैगंबर साहब ने कहा; कि हमारे और अहले-किताब के रोज़ा मे सहरी खाने का अंतर है”।
(सही मुस्लिम संख्या 1096)}
फिर सहरी खाने की शुरुआत हुई, इससे पहले इसाईयो, यहूदियो और दूसरी कौम (राष्ट्र) भी रोज़ा रखते थे,लेकिन उनको सहरी की सुविधा नही दी गई थी,मुसलमान पहली अहले-किताब है, जिसको सहरी खाने की सहूलियत दी गई।
{अनस इब्ने मलिक ने बताया, कि पैगंबर साहब ने कहा; “सहरी खाया करो इसमे बरकत है”।
(सही बुखारी संख्या 146)
सहरी की क्या समय सीमा होना चाहिए?
फिर इसके लिये भी नियम घोषित कर दिया गया; बीबी आयशा ने बताया, बिलाल रात को (फजर की) अज़ान देते थे,पैगंबर साहब ने कहा; “तब तक अपना खाना खाते रहो, जब तक बिलाल उम्मे मक़तूूम अज़ान ना दे, वह तब तक अज़ान नही देगे जब तक फजर ना हो जाएं”।
(सही मुस्लिम संख्या  146)
इस्लाम की सबसे बड़ी विशेषता (खूबी) यह है, यह एक व्यवहारिक धर्म है और किसी अवसर पर भी यह महसूस नही होगा, कि कर्मकांडो का बोझ मानव जाति पर बढ़ रहा है, इसी कड़ी मे इस्लाम ने सहरी और इफतार को बहुत सरल, सहज और व्यवहारिक बना दिया है।
{अबु हुरैरा ने सुनाया, पैगंबर साहब ने कहा; “अगर तुम मे से किसी के हाथ मे बर्तन हो और अज़ान की आवाज सुनाई दे, तो बर्तन को रखने के बजाय पहले अपनी जरूरत पूरी कर लो”
(अबु दाऊद संख्या 2350)}
सहरी मे देरी और इफ्तार मे जल्दबाजी, यही पैगंबर साहब का आदेश है।
{अबु हुरैरा ने सुनाया, कि
पैगंबर साहब ने कहा; जब तक लोग रोज़ा इफ्तार (उपवास तोड़ने) करने लिये जल्दबाजी करते रहेगे, तब तक धर्म जारी रहेगा, क्योकि यहूदी और इसाई ऐसा करने मे देरी करते है।
(सुनन अबु दाऊद संख्या 2353)}
रोज़ा खजूर से इफ्तार करना सुन्नत है और कोशिश यही होना चाहिये, कि पहले खजूर का इस्तेमाल करे।
{सलमान इब्ने अमीर ने सुनाया, पैगंबर साहब ने कहा; जब आप मे से कोई एक रोज़दार हो, तो उसे अपना इफ्तार खजूर से करना चाहिये, लेकिन अगर उसे कोई खजूर नही मिल सकती है, तो पानी से इफ्तार करना चाहिये….”।
(सुनन अबु दाऊद संख्या 2355)}
रोज़दार को किसी तरह की बेहूदगी, बदतमीजी, झगड़ा या कोई बद-अम्ली नही करना चाहिये।
{अबू हुरैरा ने सुनाया कि पैगंबर साहब ने कहा; “अगर तुम मे से कोई झूठ और बदकारी नही छोड़ता है, तो अल्लाह को कोई ज़रूरत नही कि तुम्हारा खाना-पानी छुड़वाये….”।
(सुनन अबू दाऊद संख्या 2662)}
अबू हुरैरा ने सुनाया, कि पैगंबर साहब ने कहा; कि “रोज़ा (उपवास) एक ढाल है, जब आप मे से कोई रोज़दार हो, तो उसे न तो बेहूदा (अश्लील) व्यवहार करना चाहिये और न ही मूर्खतापूर्ण व्यवहार करना चाहिये। अगर आपसे कोई आदमी लड़ता है या आपकाे गाली देता है, तो उस से आपकाे कहना चाहिए, मै रोज़ा से हूं! (उपवास कर रहा हूं), मै रोज़ा से हूं! (उपवास कर रहा हूं)”।
(सुनन अबू नंबर 2363)}
सच्चा मुसलमान बनने के लिये चरित्र निर्माण ज़रूरी है, इसकी पहली सीढ़ी है शर्म (हया) अर्थात जिसके पास हया (शर्म) नही है, उसके पास ईमान नही है।
{अबू हुरैरा ने सुनाया, कि पैगंबर साहब ने कहा, “ईमान (विश्वास) मे साठ से अधिक शाखाये (यानी भाग) है और हया (शर्म) ईमान का एक हिस्सा है।”
(सही-बुखारी, खंड 1, संख्या 8)}
सच्चे मुसलमान बनने के लिये जरूरी है कि पहले अच्छे इंसान बने;
{अब्दुल्ला बिन अम्र ने सुनाया, कि एक शख्स ने पैगंबर साहब से पूछा,
“किस तरह के कर्म” या “कौन से गुण इस्लाम की नज़र मे अच्छे है?”
पैगंबर साहब ने जवाब दिया; “गरीबो को खिलाना और उन लोगो को सलाम करना जिन्हे आप जानते है और उन्हे भी सलाम करना जिन्हे आप नही जानते है”।
(सही अल-बुखारी, खंड 1, संख्या 11)}
रमज़ान के महीने मे अल्लाह ने रहमत और नेमतो की बरसात कर दी है, बस अल्लाह यह चाहता है, कि इंसान चरित्रवान और जिम्मेदार बने,उसमे सहनशीलता,त्यागशीलता और दानशीलता के गुण होना चाहिये।
{अबू हुरैरा ने सुनाया, कि हज़रत मुहम्मद साहब (ﷺ) ने कहा; “जब रमज़ान शुरू होता है, तो जन्नत के द्वार खोल दिये जाते है”।
(सही बुखारी संख्या 1898)}
रोज़ा का इनाम अल्लाह खुद देगा।
{सहल ने सुनाया, कि पैगंबर साहब ने कहा, “स्वर्ग मे एक दरवाज़ा (द्वार) है जिसे ‘अर-रेयान’ कहा जाता है और आखिरत (पुनरुत्थान) के दिन रोज़दार ही उसमे से दाखिल होगे, रोज़दार के अलावा कोई उसमे से दाखिल नही हो सकेगा।
आवाज लगाई जायेगी कि कहां है रोज़दार?
वे उठेगे और दाखिल हो जायेगे।
उनके दाखिले के बाद दरवाजा बंद हो जायेगा।
(सही बुखारी संख्या 1896)}
क़द्र वाली रात का महत्व :-
इस पवित्र रात मे अल्लाह ने कुरान को “लोह़-ए-महफूज़” (आकाश) से दुनिया पर उतारा फिर 23 वर्ष की अवधि मे आवयश्कता के अनुसार मुहम्मद साहब (ﷺ) पर उतारा गया।
[“हमने इस (कुरान) को क़द्र वाली रात मे नाज़िल (अवतरित) किया है।”
(कुरान 97:1)]
“….और तुम क्या जानो कि क़द्र की रात क्या है?
क़द्र की रात हज़ार महीनो की रात से ज़्यादा उत्तम है”।
(कुरान 97:3)]
इस रात मे अल्लाह के आदेश से लोगो के नसीबो (भाग्य) को एक वर्ष के लिये दोबारा लिखा जाता है,
इस वर्ष किन लोगो को अल्लाह की रहमते मिलेगी ?
यह वर्ष अल्लाह की क्षमा का लाभ कौन लोग उठाएंगे?
इस वर्ष कौन लोग अभागी होगे?
किस की इस वर्ष संतान जन्म लेगी और किस की मृत्यु होगी?
जो व्यक्ति इस रात को इबादतो मे बितायेगा तथा अल्लाह से दुआ करेगा और प्रार्थनाओ मे रात गुज़ारेगा, बेशक उस के लिये यह रात बहुत महत्वपूर्ण होगी। जैसा कि अल्लाह का इरशाद है।
[“फ़रिश्ते और रूहे उस मे (रात) अपने रब (अल्लाह) की आज्ञा से हर आदेश लेकर उतरते है”।
(कुरान 97:4)]
[“यह वह रात है जिस मे हर मामले का तत्तवदर्शितायुक्त निर्णय हमारे आदेश से प्रचलित किया जाता है”।
(कुरान 44:4-5)]
दूसरे खलीफा उमर फारूक़ ने जब देखा कि लोग अलग-अलग तरावीह पढ़ रहे है,तो उन्होने सारे सहाबा को ‘ओबये बिन काब’ की इमामत मे जमा किया और इशा के फराएज़ के बाद वित्र से पहले बा-जमात 20 रकात नमाज़ तरावीह मे क़ुरान करीम पूरा करने का आदेश दिया,तब से सिलसिला जारी है,
1) पूरे रमज़ान तरावीह पढ़ना। (जिस पर पूरी उम्मत का अम्ल है)
2) तरावीह का मुस्तक़िल जमात के साथ पढ़ना।
(जिस पर पूरी उम्मत का अम्ल है)
3) रमज़ान मे वित्र जमात के साथ पढ़ना।
(जिस पर पूरी उम्मत का अम्ल है)
4) 20 रकात तरावीह पढ़ना।
{अबू हुरैरा ने सुनाया, कि पैगंबर साहब ने कहा; “जो कोई भी इमान के साथ और इनाम के लिये रमज़ान मे (तरावीह) क़याम (खड़ा) करेगा, उसके पिछले गुनाहो को माफ कर दिया जायेगा…”।
(सुनन अन नसई संख्या 5027)}
इस्लाम के पांच फर्ज़ मे से चौथा फर्ज़ जक़ात है जिसका अर्थ होता है;
“पाक या शुद्ध करना”,
जक़ात की अहमियत इस बात से भी समझी जा सकती है,कि समाज मे आर्थिक बराबरी के उद्देश्य से कुरान मे करीब 32 जगहो पर “नमाज़ के साथ जक़ात का ज़िक्र” भी आया है।
[“नेकी यह नही है, कि तुम अपने मुंह पूरब या पश्चिम की तरफ कर लो, बल्कि नेकी तो यह है कि ईमान लाओ अल्लाह पर और कयामत के दिन पर और फरिश्तो पर, किताबो पर और पैगंबरो पर।
अपने कमाए हुये धन से मोह होते हुये भी उसमे से अल्लाह के प्रेम मे, रिश्तेदारो, अनाथो, मुहताजो, और मुसाफिरो को और मांगने वालो को दो और गर्दन छुड़ाने मे खर्च करो।
नमाज़ स्थापित करो और जकात दो। जब कोई वादा करो, तो पूरा करो, मुश्किल समय, कष्ट, विपत्ति और युद्ध के समय मे सब्र करे। यही लोग है, जो सच्चे निकले और यही लोग डर रखने वाले है”।
(कुरान 2:177)]
[“….उनके माल से ज़कात लो ताकि उनको पाक करे और बाबरकत करे उसकी वजह से और दुआ दे उनको”।
(कुरान 9:103)]
[“…अल्लाह सूद को मिटाता है और ज़कात और सदक़ात को बढ़ाता है”।
(कुरान  2:276)]
ज़कात का निसाब:-
52.5 तोला यानी 512.36 ग्राम चांदी या 7.5 तोला सोना या उसकी क़ीमत का नक़द रूपया या ज़ेवर या सामाने तिजारत वगैरह, जिस शख्स के पास मौजूद है और उस पर एक साल गुज़र गया है,तो उसको “साहबे निसाब” कहा जाता है। औरतो के इस्तेमाली ज़ेवर मे ज़कात के फर्ज़ होने मे उलमा की राय मुख्तलिफ है,चूंकि ज़कात की अदाएगी न करने पर क़ुरान व हदीस मे सख्त वईदे (चेतावनी) आई है,इसलिये इस्तेमाली ज़ेवर पर भी ज़कात अदा करनी चाहिए।
ज़कात कितनी अदा करनी है?
ऊपर ज़िक्र किये गये निसाब पर सिर्फ ढाई फीसद (2.5%) ज़कात अदा करनी ज़रूरी है।
ज़कात के हक़दार यानी ज़कात किस को अदा करे?
अल्लाह ने सूरह तौबा की आयत 60 मे 8 तरह के आदमियो को ज़कात का हक़दार बताया है :-
1) फक़ीर यानी वह शख्स जिसके पास कुछ थोड़ा माल व असबाब है,
लेकिन निसाब के बराबर नही।
2) मिसकीन यानी वह शख्स जिसके पास कुछ भी न हो।
3) जो लोग ज़कात वसूल करने पर मुतअय्यन (कर्मचारी) है।
4) जिनकी दिलजोई करना मंजूर हो।
5) वह गुलाम जिसकी आज़ादी मतलूब हो।
6) क़र्ज़दार यानी वह शख्स जिसके ज़िम्मे लोगो का क़र्ज़ हो और उसके पास क़र्ज़ से बचा हुआ बक़दरे निसाब कोई माल न हो।
7) अल्लाह के रास्ते मे संघर्ष करने वाला।
8) मुसाफिर जो हालते सफर मे तंगदस्त हो गया हो।
पांच फर्ज़ मे से यह एकमात्र फर्ज़ है जो समाज कल्याण से जुड़ा है, इसलिये इसे तुरंत अदा कर देना चाहिये वरना सारी इबादत बर्बाद हो जायेगी।
रमज़ान रुखसत होने को है, रमज़ान के खत्म होने से पहले हमारे बुजुर्ग रोने लगते थे,
उन्हे लगता था कि काश!
उन्हे मुसलमान से मोमिन बनने के लिये थोड़ा समय और मिल गया होता? अर्थात थोड़ा और अवसर मिल गया होता?
ख़ैर! अब परीक्षा खत्म होने वाली है, यह तो वक्त ही बतायेगा कौन सफल हुआ और कौन असफल हुआ?
किंतु इतना तो निश्चित है, कि सहनशीलता, त्यागशीलता और दानशीलता का मास है; “रमज़ान”।

एज़ाज़ क़मर (रक्षा, विदेश और राजनीतिक विश्लेषक)

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