लाॅकडाउन की मार से बदहाल मजदूर

अखिलेश कुमार श्रीवास्तव ‘चमन ‘

लखनऊ: 18 मई 2020 से लाॅंकडाउन पार्ट-4 की घोषणा हो गयी। सच कहें तो यह लाॅंकडाउन पार्ट-4 नहीं बल्कि लाॅंकडाउन पार्ट-5 है। एक दिन के लिए ही सही पहला लाॅंकडाउन 22 मार्च को हुआ था। उसके बाद 25 मार्च से 14 अप्रैल तक लाॅंकडाउन पार्ट-2, 15 अप्रैल से  3 मई तक लाॅंकडाउन पार्ट-3, फिर 4 मई से 17 मई तक लाॅंकडाउन पार्ट-4 और अब 18 मई से 31 मई तक लाॅंकडाउन पार्ट-5 की घोषणा हुयी है। लगातार इतने लाॅंकडाउन के बावजूद जैसी स्थितियाॅं देखने में आ रही हैं उनसे इस बात की पूरी संभावना है कि कुछ शर्तों के साथ यह लाॅंकडाउन आगे भी जारी रह सकता है। वैसे तो हनुमान की पूॅंछ की तरह से बढ़ते जा रहे इस लाॅंकडाउन के कारण हर कोई परेशान है लेकिन इसकी सर्वाधिक बुरी मार पड़ी है मजदूर वर्ग पर। उस मजदूर वर्ग पर जो देश के विकास की रीढ़ है। उस मजदूर वर्ग पर जिसकी मेहनत की बदौलत ही हमें सभी प्रकार की सुख-सुविधाएं उपलब्ध हैं। वही मजदूर वर्ग आज बदहाल है।

लाॅंकडाउन पार्ट-1 तक तो स्थिति सामान्य थी लेकिन उसके बाद अपने घर जाने के लिए मजदूरों की जो भगदड़ मची है और उन्हें जिन अमानवीय स्थितियों से गुजरना पड़ा है वह किसी पत्थर दिल इंसान को भी दहला देने के लिए काफी है। मई की चिलचिलाती धूप में हजारों की संख्या में भूखे-प्यासे मजदूर पैदल, सायकिल से या ट्रकों से जैसे भी बन पड़ा वैसे ही निकल पड़े। किसी के साथ नन्हें-नन्हें बच्चे थे तो किसी के साथ गर्भवती पत्नी। किसी के साथ किसी बीमार या विकलांग की जिम्मेदारी थी तो कोई स्वयं बीमार या विकलांग था। किसी को छः सौ-सात सौ किमी की दूरी तय करनी थी तो किसी को हजार-बारह सौ की। न तो दिशा का ज्ञान था न ही रास्ते का, न तो भोजन-पानी की व्यवस्था थी न ही गाॅंठ में पैसा, न तो सिर पर अंगौछा था न ही पैरों में चप्पल, फिर भी एक जुनून के वशीभूत सभी चलते चले जा रहे थे। कुछ रेल की पटरी पर कट कर मर गए तो कुछ सड़क दुर्घटना में, कुछ ने भूख-प्यास के मारे दम तोड़ दिया तो कुछ ने बीमारी और हताशा से, फिर भी बाकियों के कदम नहीं थमे। भूख, प्यास, घाम और थकान की परवाह किए बगैर चले जा रहे सभी मजदूरों की बस एक ही ख्वाहिश है कि चाहे जैसे भी हो अपने घर-परिवार में पहुँच जायें।

कोई लाख बातें बनाए और कृत्रिम कारण गिनाए लेकिन इसमें दो राय नहीं कि मजदूरों की इस दुर्दशा के लिए सिर्फ और सिर्फ इस देश की सरकारें जिम्मेदार हैं। सिर्फ केन्द्र सरकार ही नहीं, राज्यों की सरकारें भी इसके लिए समान रूप से जिम्मेदार हैं। जिन राज्यों की समृद्धि के लिए इन मजदूरों ने अपना खून-पसीना एक कर दिया उन्हीं राज्यों की सरकारों ने उनको बोझ समझा और मुॅंह फेर लिया। न सिर्फ इतना इन मजदूरों को अलग-अलग राज्यों में चल रहीं  अलग-अलग दलों की सरकारों की आपसी राजनीति का भी शिकार होना पड रह़ा है। बेचारे बेवस मजदूर मोहरा बन कर रह गए हंै। उनकी मदद के लिए हाथ बढ़ाने के बजाय सभी दलों के नेता बस बयानबाजी कर रहे हैं। सभी इस अवसर को अपने पक्ष में भुनाने में लगे हैं। 

पहली बात तो यह कि एक आम पढ़े-लिखे व्यक्ति को भी पता है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ राज्यों के लाखों मजदूर देश के कोने-कोने तक फैले हुए हैं। इन इलाकों में उद्योग की शून्यता, अवसर की अनुपलब्धता, प्राकृतिक आपदाओं (बाढ़, सूखा, अतिवृष्टि) की निरंतरता, जनसंख्या घनत्व की अधिकता अशिक्षा की विकरालता और आर्थिक असमानता आदि के कारण मसें भीगते ही यहाॅं के लाखों युवा काम की तलाश में पलायन करने के लिए विवश हो जाते हैं। उत्तर, दक्षिण, पूरब, पश्चिम देश का कोई भी ऐसा बड़ा शहर या कल-कारखाना नहीं होगा जिसकी खुशहाली को इन क्षेत्रों के मजदूर अपने पसीने से न सींचते हों। दूसरी बात यह कि एक आम व्यक्ति भी जानता है कि मजदूर सीमित आय वाले लोग होते हैं। इनकी आमदनी इतनी अधिक नहीं होती कि ये अपने भविष्य के लिए बड़ी पूॅंजी जोड़ कर रख सकें। बीमारी-हीमारी आदि आकस्मिक स्थितियों के लिए पेट और तन काट कर अधिक से अधिक दो-चार हजार रुपए बचाए रखते हैं। ऐसी दशा में हमारी सरकार में बैठे विद्वानों की समझ में यह बात क्यों नहीं आयी कि रोज कुॅंवा खोद कर पानी पीने वाले ये लोग बगैर कमाई और आमदनी के एक लम्बी अवधि तक जिन्दा नहीं रह सकेंगे। हमारे प्रधानमंत्री जी ने यह बात तो बहुत सहजता से कह दी कि लाॅकडाउन की अवधि तक जो जहाॅं है वहीं, जैसे है वैसे ही बना रहे। लेकिन उन्होंने यह क्यों नहीं सोचा कि आदमी चाहे जहाॅं भी रहे अगर जीवित रहेगा तो उसको भूख भी लगेगी और प्यास भी लगेगी। और जब भूख-प्यास लगेगी तो मजदूर बेचारा क्या करेगा ?

विचारणीय विंदु यह है कि आखिर चूक कहाॅं हुयी ? मेरा मानना है कि 25 मार्च से तीन सप्ताह के लाॅंकडाउन की घोषणा के तुरंत बाद ही सरकार को मजदूरों के समक्ष एक प्रस्ताव रखना चाहिए था कि जो लोग अपने घरों को जाने के इच्छुक हों उनके लिए विशेष ट्रेनें चलायी जायेंगी। मुझको पूरा विश्वास है कि उस समय कुल मजदूरों के अधिक से अधिक एक चैथाई ही अपने घर जाने के लिए तैयार होते क्यों कि तब मजदूरों के पास अभी पैसा भी होता और उनके मन में यह उम्मीद भी होती कि इक्कीस दिनों के बाद वे पुनः काम पर लग जायेंगे। सरकार उन एक चैथाई मजदूरों को सुगमता से उनके घर पहॅंुचा देती। उसके हफ्ते-दस दिनों के बाद सरकार फिर से वैसा ही प्रस्ताव मजदूरों के समक्ष रखती। हो सकता था कि इस बार भी एक चैथाई मजदूर वापस जाने के लिए तैयार होते। उन्हें भी बगैर किसी अफरा-तफरी के आराम से पहॅंुचा दिया जाता। उसके बाद फिर ऐसा किया जाता। यदि मजदूरों को इस प्रकार थोड़ा-थोड़ा कर के किश्तों में जाने की सुविधा उपलब्ध करायी गयी होती तो न तो ऐसी भगदड़ मचती, न मजदूर पैदल, सायकिल या ट्रकों आदि से असुरक्षित तरीके से जाने के लिए विवश होते और न ही सैकड़ों गरीब असमय ही काल की गाल में समाते। न सिर्फ इतना बल्कि इन मजदूरों के संक्रमित होने की संभावना भी अति न्यून रहती और बाहर से आने वाले मजदूरों की संख्या कम होने के कारण जिलों में स्थानीय प्रशासन को भी उन्हें सुरक्षित तरीके से सॅंभालने में आसानी रहती। लेकिन अफसोस कि हमारी सरकार ऐसी दूरदर्शिता नहीं दिखला सकी और स्थिति अनियंत्रित हो गयी।   

लाॅकड़ाउन की लगातार बढ़ती जा रही अवधि से परेशान मजदूरों की अनियंत्रित भीड़ जिस प्रकार जगह-जगह इकट्ठी हो रही है, धक्का-मुक्की कर रही है और बसों, ट्रकों में ठूॅंस कर जा रही है, वह छूत से फैलने वाली इस महामारी के लिए खुला न्यौता देने जैसा है। गाॅंवों को जा रहे इन मजदूरों में से कितने करोना के वाहक हैं, यह किसी को भी नहीं पता। कहने के लिए तो जिला स्तर पर और गाॅंवों के स्तर पर कोरोण्टाइन सेंटर खोले गए हैं लेकिन उन सेंटरों की वास्तविक स्थिति बहुत भयानक है। हजारों मजदूरों के एक साथ आ पहॅंुचने से स्थानीय प्रशासन के हाथ-पाॅंव ढ़ीले पड़ गए हैं। न तो उनके पास पर्याप्त साधन, सुविधा उपलब्ध है और न ही क्षोभ तथा आक्रोश से लबालब भरे मजदूरों पर प्रभावी नियंत्रण। जाॅंच के नाम पर भी महज खानापूर्ति ही हो रही है। तस्वीर का एक दूसरा पक्ष यह भी है कि कोरोण्टाइन सेंटरों में रखे जाने वाले मजदूरों के भोजन तथा देख-रेख के लिए प्राप्त बजट के बंदरबाॅंट का भी खेल चल रहा है। हम में से हर कोई जानता है कि बाढ़, सूखा, और अन्य आपदायें प्रशासन से जुड़े लोगों के लिए सुनहरा अवसर सिद्ध हुआ करती हैं। सच्चाई यह है कि विभिन्न जिलों में बाहर से आए मजदूरों की न तो उचित तरीके से जाॅंच हो रही है और न ही उन्हें ढ़ंग से पृथकावास में रखा जा रहा है। सब कुछ भगवान भरोसे चल रहा है।

यदि हम सोचें कि चाहे जैसे भी हो मजदूरों के अपने गाॅंव, घर तक पहॅंुच जाने के बाद यह समस्या समाप्त हो जाएगी तो यह हमारी भूल है। बल्कि समस्याएं तो अब शुरू होने वाली हैं। पहली समस्या तो यह कि इन मजदूरों के कारण गाॅंवों में करोना फैलने की संभावना बलवती हो गयी है। और यदि यह महामारी गाॅंवों में फैली तो फिर इसे नियंत्रित कर पाना असंभव हो जाएगा। गाॅंवों में जहाॅं एक या दो कमरों के घरों में आठ-आठ, दस-दस लोग रहते हैं वहाॅं न तो पृथकावास संभव होगा और न ही फिजिकल डिस्टेंस। ऐसे में एक संक्रमित व्यक्ति करोना का प्रसाद कितने लोगों को बाॅंटेगा, कुछ कहा नहीं जा सकता। 

गाॅंवों में दूसरी समस्या होगी बाहर से इतनी अधिक संख्या में आए लोगों के भोजन की। होता तो यह था कि ये बाहर गए मजदूर ही कमा कर पैसे भेजते थे तो गाॅंव के लोगों को भोजन मिलता था। लेकिन अब वे खुद दाने-दाने के लिए मोहताज हो गए हैं। जब दूसरों को खिलाने वाले खुद निराश्रित हो जायेंगे तब तो भूखमरी का आना तय ही है। ये मजदूर जिन इलाकों के हैं वहाॅं रोजगार की कोई संभावना नहीं है। सोचने की बात है, यदि स्थानीय स्तर पर रोजगार उपलब्ध होता तो ये बेचारे घर-परिवार छोड़ कर सैकड़ों किमी0 दूर जाते ही क्यों। कहना न होगा कि जब हाथों को काम नहीं मिलेगा और पेट को अन्न नहीं मिलेगा तो पारिवारिक कलह, मार-पीट, चोरी-ड़कैती, राहजनी-छिनैती आदि सामाजिक अपराधों की संख्या में वृद्धि होगी और कानून व्यवस्था के लिए मुश्किलें उत्पन्न होगी। 

श्री अखिलेश कुमार श्रीवास्तव ‘चमन’ प्रथम श्रेणी के सेवानिवृत्त अधिकारी हैं जिन्होंने विषम सेवा परिस्थितियों में भी अपने साहित्यकार से कभी कोई समझौता नहीं किया और उनके व्यक्तित्व का यह पहलू सदैव प्रखर व मुखर रहा। श्री चमन हिंदी साहित्य की लगभग हर विधा के मज़बूत कलमकार हैं और गद्य व पद्य दोनों में ही पूरी चमक के साथ उपस्थित हैं। बाल साहित्य से चल कर, गीतकार, ग़ज़लकार, सामाजिक आलेखों से होते हुये वे उपन्यासकार तक का सफ़र एक जैसी सधी चाल से तय करते हैं। हिंदी साहित्य को वे अब तक 32 अमूल्य पुस्तकें दे चुके हैं। वे आई.सी.एन. परिवार से जुड़े हैं। आई.सी.एन.परिवार उनका हृदय से स्वागत करता है और उनकी गरिमामयी सानिध्य से स्वयं को गौरवान्वित महसूस करता है।

 

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