मैं और मेरी कविता

आकृति विज्ञा ‘अर्पण’, असिस्टेंट ब्यूरो चीफ-ICN U.P.
बहुत देर तक मेरी कविता
मेरे साथ टहलती रही
हम दोनों ने ख़ूब बातें की
तुम्हारी बात आते ही
झगड़ गये हम दोनो
फिर दोनो ख़ामोश थे…..
आज तक कायम है ख़ामोशी
मुझको मनाना चाहती है वो
उसे मनाना चाहती हूँ मैं
मेरे पास छूट गयी है उसकी लय
वो ले गयी है मेरा बिखरना…..
इन दिनो चाँद तारे सब
 बनाते हैं समद्विबाहु त्रिभुज
एक दूसरे को सोचकर मौन हैं
आधार के दोनो कोनों पर
 टिकी सी मैं और मेरी कविता…….
मैं देखती हूँ आजकल
आस पास ,चारो तरफ़
क्षण क्षण बनती बिगड़ती
ऐसी ही बहुत सी
समद्विबाहु त्रिभुज की आकृतियां…..
यही तो होता है न!
जब हम पर बीतती है
तब हमें महसूस होती हैं
आस पास की बारीकियां
पनपता है एक नया दृष्टिकोण……
फिर भी ये कौन सी दीवार है
जो रोकती है मुझे
रोकती है मेरी कविता को
इसे ढहाकर ही संभव हो सकेगा
कविता को लय की पायल पहनाना
मैं समेटूंगी अपनी बिखरन
और हवायें बाचेंगी यह महाकाव्य।
    #आकृति_विज्ञा_अर्पण

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