समय का गीत: 5

तरुण प्रकाश श्रीवास्तव, सीनियर एग्जीक्यूटिव एडीटर-ICN ग्रुप

मैं समय के सिंधु तट पर आ खड़ा हूँ,

पढ़ रहा हूँ रेत पर,

मिटते मिटाते लेख, जो बाँचे समय ने।

 

शेक्सपीयर, जॉन मिल्टन, कीट्स, शैली बोलते हैं।

आज भी वुड्सवर्थ अपनी पुस्तकें खुद खोलते हैं।।

गोर्की की “माँ” अभी भी जागती है पुस्तकों में।

गू़ँजते हैं शेर ग़ालिब के अभी तक महफ़िलों में।।

 

‘सूरसागर’ सूर गाते, गूँजते कबिरा के ‘निर्गुन’।

और मीरा के पदों में कृष्ण वंशी की सहज धुन।।

सौंपते ‘मानस’ जगत को,भक्त तुलसी राम के हैं।

छंद तो रसखान के मीठे, ललित ब्रजधाम के हैं।।

 

‘प्रेम’, ‘जयशंकर’,’निराला’,’भारती’ यशपाल’,’बच्चन’।

‘मुक्ति’, ‘दिनकर’, ‘भगवती’, ‘नागर’, ‘महादेवी’, ‘सुदर्शन’।।

मैथिली, साहिर, जिगर, मोमिन, त्रिलोचन, मीर, भूषण।

पंत, धूमिल, दाग़, खुसरो,  माचवे, राकेश मोहन।।

 

सो गये ‘नीरज’ मगर वह कारवाँ गुज़रा कहाँ है?

है ‘किशन’ को नींद आई, किंतु चंदनवन‌ यहाँ हैं।।

है मुड़ी हिंदी ग़ज़ल जिस मोड़ से, दुष्यंत है वो।

लेखनी शाश्वत सदा हेै, आदि का भी अंत है वो।।

 

मैं समय के सिंधु तट पर आ खड़ा हूँ,

पढ़ रहा हूँ रेत पर,

मैं मुस्कुराते लेख, जो बाँचे समय ने।

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