अल्लाह का इस्लाम और मुल्लाह का इस्लाम के बीच मे रस्साकशी

एज़ाज़ क़मर

महान भूमि भारत का चुनाव अल्लाह ने प्रथम मनुष्य के निवास स्थान के लिये किया,फिर अपने प्रथम पैगंबर हज़रत आदम (स्वयंभू मनु) को जन्नत से पृथ्वी के इस स्थान पर उतारा।
अल्लाह ने खेती करने के लिये बाबा आदम को एक बैल भी दिया,फिर बैल के अधिकार भी तय कर दिये,ताकि उसे कष्ट ना दिया जाये,बल्कि बैल को खाने-पीने और आराम करने का स्थान और समय दिया जाये।
बाबा आदम अपने साथ जन्नत से कुछ पत्तियां लाये थे,उसे उन्होने भारत भूमि पर बो दिया और जिससे इत्र जैसे खुशबूदार पदार्थ पैदा हुये,बाबा आदम जन्नत से जो गेहूं लाये थे, उसको जमीन मे बोकर मानव जाति के लिये अन्न पैदा करने का रिवाज शुरू किया।
पैगंबर आदम ने पूरे जीवन पशु-पक्षियो और पेड़-पौधो के साथ नम्र और प्रेम पूर्वक व्यवहार किया,अंतिम समय मे उन्होने जीवधारियो (मनुष्यो, पेड़-पौधो और पशु-पक्षियो) की सुरक्षा के लिये अपने बेटे शिरीष को अपना उत्तराधिकारी चुना।
अल्लाह ने दुष्ट मानवो से नाराज़ होकर पैगंबर नूह (जल-प्लावन मनु) को एक नाव बनाने का आदेश दिया, ताकि जल-प्रलय के समय कुछ जीवधारियो की प्रजातियो को बचाया जा सके, तब पैगंबर नूह ने अल्लाह के आदेश का पालन करते हुये एक नाव बनाकर उसमे जीवधारियो को पनाह दी और जल-प्रलय के समय उनका जीवन बचाकर उन्हे दोबारा संसार मे बसाया।
अपने पूर्वजो की तरह पैगंबर साहब ने पेड़-पौधो और जानवरो के अधिकार सुनिश्चित किये,ताकि उन्हे दोहन और कष्ट से बचाया जा सके,पैगंबर साहब ने प्रकृति और जीवधारियो के बीच सम्बंध (निर्भरता) और उसके महत्व को समझाते हुये इनके संरक्षण के आदेश दिये।
{अनस इब्ने मलिक ने बताया, कि पैगंबर साहब ने कहा था; कि “अगर क़यामत भी सामने खड़ी है और तुम मे से किसी (इंसान) के हाथ मे पौधा है, ‘तो उसे पौधा लगाने दो”।
(अल-अल्बानी द्वारा अधिकृत सही मसनद अहमद संख्या 12491)}
वृक्षारोपण के लिये उपरोक्त हदीस से ज़्यादा महान शब्द हो ही नही सकते है।
{अनस बिन मलिक ने बताया, कि पैगंबर साहब ने कहा; “कोई व्यक्ति पेड़ लगाता है और जब उस पर फसल आ जाती है, तो (अगर) उसको कोई पक्षी, मनुष्य या मवेशी खा जाते है, तो यह (उस व्यक्ति के लिये) एक धर्माथ (सदका/दान) है”।
(सही बुखारी संख्या 2195, सही मुस्लिम संख्या 1553)}
पैगंबर साहब पेड़-पौधे लगाने और खेती करने को जीवन-भर प्रोत्साहित करते रहे, किंतु पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वालो को कठोर चेतावनी भी देते रहे।{बीवी आयशा आशा ने सुनाया गया, कि पैगंबर साहब ने कहा; “जो खारक (lote-trees) के पेड़ो को काटता है, वह नरक मे जायेगा”।
(अल-बाहकी द्वारा वर्णित हदीस, सही अल-जामी संख्या 1696)}
{इमाम बाहकी ने सुनाया, कि सैद बिन अल-मुसय्यब ने उन्हे बताया था, कि अबू बक्र सिद्दीक मुस्लिम सेना को जंग के लिये भेजते समय हमेशा यह कहते थे; कि “खजूर के पेड़ को मत गिराना-जलाना, फलदार पेड़ को मत काटना, किसी चर्च को ध्वस्त मत करना और किसी भी बच्चे, बूढ़े या महिला को मत मारना…..”।
(बाहकी द्वारा वर्णित हदीस अल-सुनन अल कुबरा संख्या 17904)}
चौदह सौ वर्ष पहले इस्लाम ने पर्यावरणीय स्वच्छता और जल संरक्षण का आदेश दिया,नदी-तालाब अथवा जल स्रोतो के पास मल-मूत्र विसर्जन को वर्जित किया,महान सुन्नी सूफी संत, छठवे शिया धर्मगुरु और पैगंबर साहब के पड़-प्रपौत्र इमाम ‘जाफर-ए-सादिक’ का मत है,कि “जीवन का आनंद तब तक नही है, जब तक तीन चीजे़ उपलब्ध ना हो, स्वच्छ ताज़ी वायु, प्रचुर मात्रा मे शुद्ध जल और उपजाऊ भूमि”
(बिहार-अल-अनवार खण्ड 75, पृष्ठ 234)
{अब्दुल्ला इब्ने अम्र ने सुनाया, कि जब सैद पैगंबर साहब के साथ एक नदी के किनारे वुज़ु (Half Ablution) कर रहे थे, तो उन्हे वुज़ु करतेे समय ज़रूरत से ज़्यादा पानी इस्तेमाल करतेे हुये देखकर पैगंबर साहब ने उनसे कहा; “क्यो इतना ज़्यादा (पानी)?साद कहा, ‘क्या वुज़ु के लिये यह ज़्यादा पानी है?’पैगंबर ने कहा; ‘हां, भले ही आप एक बहती नदी के किनारे पर ही क्यो ना हो”।
(सही सुनन इब्ने माजाह संख्या 425)}
पैगंबर साहब जल संरक्षण को लेकर बेहद संवेदनशील थे, घटना वाले दिन पैगंबर साहब का आदेश यह था,कि भले ही आप नदी के पास हो अर्थात “जल की प्रचुरता हो, फिर भी आप जल को व्यर्थ ना करे”।
एक बार पैगंबर साहब एक पेड़ के नीचे बैठे थे, तभी एक चींटी ने आपकाे काट लिया, आपने अपना सामान हटवाया और पेड़ के पास बनेे चीटियो के बिल के ऊपर आग लगवा दी, ताकि चीटियां पेड़ के पास से भाग जाये।इस घटना से तुरंत बाद पैगंबर साहब के पास संदेश भेजकर अल्लाह ने उनसे कहा; “एक चींटी ने तुम्हे काटा था, फिर भी तुमने अल्लाह की इबादत करने वाले चीटियो के राष्ट्र (समूह) को नष्ट कर दिया”?
(सही बुखारी संख्या 2241)
इस घटना के बाद से किसी भी मुसलमान के लिये काली चींटी की हत्या करना पाप है,मकड़ी और मधुमक्खी को मारना भी अक्षमनीय अपराध है।
{कुर्रा इब्ने अयाज़ ने बताया, कि एक आदमी ने कहा, “हे अल्लाह के रसूल! मुझे एक भेड़ को ज़िबा (वध) करना था, लेकिन मुझे उस पर दया आ गई”,
पैगंबर साहब ने कहा; “यदि आप भेड़ पर एकबार दया करते, तो अल्लाह आप पर दो बार दया करता है”।
(सही अल-अदब अल-मुफ़रद 368)}
{मिश्कात अल-मसाबीह ने “बुखारी” और “मुस्लिम” की हदीसो से निष्कर्ष निकाला, कि “एक जानवर की भलाई लिये किया गया कार्य उतना ही अच्छा है, जितना कि एक इंसान की भलाई के लिये किया गया कार्य,जबकि एक जानवर के ऊपर किया गया ज़ुल्म उतना ही बुरा है, जितना कि एक इंसान के ऊपर किया गया जु़ल्म”, और कहा कि; “जानवरो पर दया करने के बदले आख़िरत मे इनाम का वादा है”।
(मिश्कात-अल-मसाबीह, पुस्तक 6; अध्याय 7-8, संख्या 178)}
कुरान मे 30 ‘पारा’ (खंड), 114 ‘सूराह’ (अध्याय) और 6236 ‘आयत’ (छन्द) है, जिसमे से छह अध्याय (सूराह) जानवरो के नाम [ सूराह बक़र (गाय), सूराह अनाम (मवेशी), सूराह नहल (मधुमक्खी), सूराह नमल (चींटी), सूराह अनक़बत (मकड़ी), सूराह फील (हाथी) ] पर है,200 छंदो (आयत) मे जानवरो की चर्चा की गई है,30 पारा (खंड) मे से पहले ढाई खंड (सूराह बक़र) गाय के नाम पर है।
जानवरो के नाम पर अपने बच्चो के नामकरण की परंपरा भी मुसलमानो के दिल मे जानवरो के लिये सम्मान और अपार प्रेम को झलकाती है,पैगंबर साहब के बाद मुस्लिम इतिहास के दूसरे सबसे लोकप्रिय चरित्र ‘अली’ का नाम ‘असद’ अर्थात शेर (The Lion) था और इस सूची मे सर्वाधिक हदीस के स्रोत ‘अबू हुरैरा’ (The Father of Kittens) का नाम भी शामिल है,पैगंबर साहब के पालतू जानवरो की एक लंबी सूची है और पैगंबर साहब उनसे बहुत प्रेम करते थे।पैगंबर साहब अपनी बिल्ली ‘मुइज़्ज़ा’ (Muezza) का बच्चो की तरह ध्यान रखते थे,कभी-कभी वह उनके कपड़ो के ऊपर सो जाया करती थी,तो पैगंबर साहब अपने कपड़ो को नुकसान पहुंचा दिया करते थे,लेकिन बिल्ली की नींद खराब नही करते थे।
पैगंबर साहब के इस जहान से पर्दा कर लेने के बाद उनकी ऊँटनी ‘शब्बा’ (Shahbba) ने भोजन-पानी त्याग दिया और तब तक रोती और दौड़ती रही,जब तक एक कुएं मे गिरने से उसकी मौत नही हो गई।
पैगंबर साहब ने युद्धबंदियो को इतने अधिकार दिये थे,कि चौदाह शताब्दी गुज़र जाने के बाद, आज 21वीं शताब्दी मे भी वह अधिकार युद्धबंदियो को नही मिलते है,इस्लाम ने युद्धबंदियो के खाने-पीने, रहने और दवा की जिम्मेदारी बंधक बनाने वाले को दी है।
‘हनफी’ मसलक (वर्ग) और ‘मौलाना मौदूदी’ ने युद्धबंदियो को ‘मृत्युदंड’ (Capital Punishment) देने का विरोध किया है,उल्टे युद्धबंदी को अपने परिवार से मिलने, उनको अपने साथ रखने, नया विवाह करने और पुराना विच्छेद (तलाक) करने का अधिकार है,युद्धबंदी को अध्ययन करने, किताब लिखने, चित्र बनाने के साथ-साथ, अपने हुनर (Skill) से धन कमाने का भी अधिकार है।पैगंबर साहब के समय मे युद्धबंदियो को सज़ा के रूप मे तंग कपड़े पहना दिये जाते थे,क्योकि इस्लाम युद्धबंदियो के शारीरिक उत्पीड़न की इज़ाज़त नही देता है,युद्धबंदियो की पहचान के लिये उनकी कमीज़ के कोने काट दिये जाते थे,आज यह जींस (Jeans) जैसे तंग कपड़े ‘आरामदायक’  (Comfortable) और कोने कटी क़मीज़ ‘फैशन’ की निशानी मानी जाती है।
{जाबिर बिन अब्दुल्लाह ने सुनाया, कि जंगे बद्र के दौरान युद्धबंदियो को लाया गया, तो उसमे अर्धनग्न ‘अल-अब्बास’ भी शामिल थे।पैगंबर साहब ने उन्हे `अब्दुल्ला बिन उबैय्या’ की कमीज़ (shirt) पहना दी और अपनी कमीज़ ‘अब्दुल्लाह बिन उबैय्या’ को दे दी।
(सही बुखारी संख्या 3008)}
पैगंबर साहब ने कभी भी युद्ध को प्रोत्साहित नही किया,बल्कि हमेशा युद्ध को हतोत्साहित किया है,कमजोर शत्रु को युद्ध करके हराने के बजाय संधि करके शांति स्थापना का प्रयास किया।
इस्लाम के शुरुआती 13 वर्षो मे मुसलमानो के ऊपर बहुत अत्याचार हुये,जिसमे से अंतिम 3 वर्षो मे सामाजिक और आर्थिक बहिष्कार के चलते बहुत हानि उठानी पड़ी,इस उत्पीड़न के परिणाम स्वरूप पैगंबर साहब की प्रथम पत्नी ‘खदीजा’ का देहांत भी हो गया,फिर भी पैगंबर साहब ने अहिंसा का दामन थामे रखा।
अत्याचारो और उत्पीड़न के चलते पैगंबर साहब ने पंद्रह मुसलमानो (11 पुरूष और 4 महिला) को इसाई राज्य ‘अबीसीनिया’ (आधुनिक इथोपिया और इरिट्रिया गणराज्य) मे शरण लेने के लिये भेजा,किंतु अहिंसा को नही त्यागा।पैगंबर साहब की हत्या का असफल प्रयास हुआ,फिर सहाबा (साथियो) ने उनसे युद्ध करने का निवेदन किया,तो पैगंबर साहब ने यह कहकर अस्वीकार कर दिया कि “मुझे अल्लाह से हिंसा का आदेश नही प्राप्त हुआ है”, फिर भी अहिंसा को नही त्यागा।
अंत मे उनकी हत्या के लिये रचे जा रहे नये षड्यंत्र का सुराग लगने के बाद, उन्होने सुबह होने से पहले ही आधी रात मे मक्का छोड़कर मदीना के लिये ‘हिजरत’ (पलायन) करी,फिर उन्होने अपने साथी (सहाबा) अबू बक़्र के साथ एक गुफा (हीरा) मे पनाह ली,इतनी विषम परिस्थितियो मे भी उन्होने अहिंसा को अपनाये रखा।
किंतु जब शत्रुओ ने मदीना मे भी पीछा नही छोड़ा,तब मुसलमानो ने पहला युद्ध किया, जिसे जंग-ए-बद्र कहते है और 313 योद्धाओ की छोटी सी टुकड़ी ने हजार सैनिको वाले शत्रुओ के लश्कर को धूल चटा दी,किंतु फिर भी मानवाधिकारो का हनन नही किया।
{अबू बरदा के अनुसार, उनके पिता ने कहा था, कि “पैगंबर साहब ने मुअाज़ और अबू मूसा को यमन भेजते हुये यह कहा था; “लोगो के साथ सहजता से व्यवहार करना और उन पर सख़्त (कठोर) मत होना, उन पर ख़ुशीयो की बौछार करना और उनमे (दिल मे) नफरत मत भरना, एक दूसरे से प्यार करना और फर्क मत करना”।
(सही बुखारी संख्या 3030)}
पैगंबर साहब के अज़ीज़ चाचा ‘हमज़ा’ जंग-ए-उहद मे शहीद हो गये,तो रात मे ‘हिंदा’ (यज़ीद की दादी) ने उनके शव से नाक-कान काटकर गले का हार (नेकलैस) बनाकर पहन लिया,फिर उनका कलेजा चबाकर निगलने की कोशिश करी, किंतु उसे उबकाई (वमन) आ गई,अन्त मे उसने उनका दिल उबालकर खाया।इतनी क्रूरता के बावजूद जब ‘हिंदा’ मुसलमान बन गई, तो उसे नियमानुसार माफी मिल गई,हालाकि इस घटना ने पैगंबर साहब को बहुत पीड़ा दी थी और पैगंबर साहब ने हिंदा को अपने सामने आने से मना किया और कहा; कि “मै जब भी तुझे देखता हूं, तो मुझे अपने प्यारे चाचा (हमज़ा) की याद आती है”,चूँकि इस्लाम मे नियम सबके लिये समान होते है, इसलिये पैगंबर साहब ने अपनी भावनाओ पर नियंत्रण रखने का जीवंत उदाहरण पेश किया,यही इस्लाम की व्यवहारिकता है।
{बीवी आयशा ने सुनाया, कि “पैगंबर साहब ने कभी भी किसी भी मामले मे अपना बदला नही लिया जब अल्लाह द्वारा निर्धारित सीमा पार हो गई,तब अल्लाह की खातिर बदला लिया” अर्थात जो भी काम किया, वह अल्लाह के हुक्म से किया।
(सही बुखारी संख्या 6853)}
हदीस का भावार्थ है कि कोई भी व्यक्ति इस्लाम से बढ़कर नही है अर्थात “व्यक्ति के बजाय विचारधारा की प्राथमिकता” का सिद्धांत प्रचलित था।लगभग 500 ईसा पूर्व से लेकर हज़रत ईसा के समय के दौरान तक बहुत बड़े-बड़े पैगंबरो की बड़ी बेरहमी से हत्या कर दी गई थी,जिनमे आशिआ (Isaiah), जरेमिया (Jeremiah), धुल-किफ्ल (Ezekiel), दानियाल (Daniel), ज़करिया (Zechariah), याहया (John the Baptist) और ईसा (Jesus) शामिल है,ईसा (यीशु मसीह) को परमेश्वर ने आसमान पर उठा लिया और बाकी सारे पैगंबर ज़ालिम क़ातिलो का शिकार बन गये,इसलिये अंतिम पैगंबर की सुरक्षा के लिये युद्ध (जिहाद) जरूरी हो गया था।
इस्लाम मे जिहाद आत्मरक्षा के लिये था और विस्तारवाद के लिये कोई स्थान नही था,धार्मिक निमंत्रण (दावाह) के लिये पत्राचार या दूत द्वारा शांति पूर्ण ढंग से कार्य किया जाता था,किन्तु धर्म प्रचार के लिये दूसरे राज्य पर चढ़ाई नही की जाती थी।
कभी-कभी शांति स्थापना के लिये षड्यंत्रकारी और क्रूर क्षत्रपो को सबक सिखाना जरूरी होता था,उसके बावजूद भी इस्लाम ने जंगी-जुनून पैदा करने के बजाय योद्धाओ को चरित्र निर्माण, प्रेम-सद्भावना, सह-अस्तित्व और समाज सेवा की शिक्षा दी।
{ …फिर बीबी आयशा ने कहा, कि “हे अल्लाह के नबी! हम (महिलाये) सोचते है, कि संघर्ष (जिहाद) सबसे अच्छा अम्ल (कार्य) है”। “क्या हमे अल्लाह के लिये संघर्ष (जिहाद) नही करना चाहिये?”पैगंबर साहब ने कहा; “सर्वश्रेष्ठ संघर्ष (जिहाद) (महिलाओ के लिये) ‘हज-मबरूर’ है”।
(सही बुखारी संख्या 2784)}
{इब्ने अब्बास ने सुनाया, कि एक आदमी पैगंबर साहब के पास आया और कहा, “हे अल्लाह के नबी! मैने उस (आगामी) ग़ज़वा (सैन्य अभियान) के लिये सैनिक सूची मे नामांकन कराया है, और (किन्तु) मेरी पत्नी हज के लिये रवाना हो रही है?”
पैगंबर साहब ने कहा; “वापस जाओ और (पहले) अपनी पत्नी के साथ हज करो”।
(साही बुखारी संख्या 3061)}
{इब्ने उम्र द्वारा सुनाई गई हदीस के अनुसार अपनी पत्नी के बीमार होने के कारण उस्मान ने जंग-ए-बद्र मे हिस्सा नही लिया था, क्योकि पैगंबर साहब ने उन्हे उनकी बीमार पत्नी की सेवा करने का आदेश देते हुये कहा था,कि “तुम्हे (जंग मे शामिल हुए बग़ैर भी) इनाम और माले-ग़नीमत मे उतना ही हिस्सा मिलेगा, जितना जंग मे शामिल होने वाले योद्धा को मिलता”।
(सही बुखारी किताब 53, संख्या 359)}
{अब्दुल्लाह बिन अम्र के अनुसार एक व्यक्ति जिहाद (युद्ध) की इजाजत लेने के लिये पैगंबर साहब के पास आया,तो पैगंबर साहब ने पूछा, “क्या तुम्हारे मां बाप ज़िन्दा है?”
उसने जवाब दिया, “हां”, तो पैगंबर साहब ने कहा, “आपको अपने सर्वोत्तम प्रयासो को (उनकी) सेवा मे लगाना चाहिए” अर्थात सदैव माता-पिता की सेवा के लिये तत्पर रहना चाहिए और अधिकतर समय माता-पिता की सेवा मे व्यतीत करना चाहिए।
(सही मुस्लिम किताब 32, हदीस संख्या 6184)}
{इसी जैसी घटना का वर्णन अगली हदीस (सही मुस्लिम किताब 32, हदीस संख्या 6185) मे भी है।}
{यज़ीद बिन अबु हबीब द्वारा सुनाई गई हदीस के अनुसार बीबी सलमा के पूर्व गुलाम नईम ने बताया, उन्हे अब्दुल्लाह बिन अम्र ने कहा था,कि एकबार एक व्यक्ति पैगंबर साहब के पास आकर बोला, कि “मै अल्लाह से जिहाद का इनाम (पुरस्कार) लेने के लिये वहां जाने की आपसे इजाजत चाहता हूं”,पैगंबर साहब ने पूछा, “क्या तुम्हारे माता-पिता मे से कोई एक जीवित है?”उसने कहा, “हां दोनो जीवित है”,पैगंबर साहब ने फिर पूछा, क्या तुम अल्लाह से इनाम (पुरस्कार) चाहते हो?”उसने कहा, “हां”,तब पैगंबर साहब ने कहा, “उनके (माता-पिता) साथ उदार (प्रेम और सहानुभूति से सेवा) व्यवहार करो”।
(सही मुस्लिम किताब 32, हदीस संख्या 6186)}
उपरोक्त लिखित 4 हदीस का भावार्थ यह है कि इस्लाम सिर्फ जंग को ही संघर्ष (जिहाद) नही मानता, बल्कि इंद्रियो पर नियंत्रण के अतिरिक्त, मां-बाप की सेवा, बीमारो की सेवा, महिलाओ को हज-यात्रा करवाने इत्यादि को भी संघर्ष (जिहाद) की संज्ञा देता है।
[“इसी कारण हमने बनी इस्राईल पर लिख दिया (नियम बना दिया) कि ‘जिसने भी किसी प्राणी की हत्या की’, किसी प्राणी का ख़ून करने अथवा धरती मे विद्रोह के बिना, तो समझो ‘उसने पूरे मनुष्यो की हत्या कर दी’ और ‘जिसने जीवित रखा एक प्राणी को, तो वास्तव मे, उसने जीवित रखा सभी मनुष्यो को’……..”।
(कुरान 5:32)]
कुरान की इस आयत का अर्थ है, कि “अगर किसी व्यक्ति ने एक निर्दोष मानव की हत्या करी, तो उसने पूरी मानवता की हत्या करी”।
“अगर किसी व्यक्ति ने एक मानव का जीवन बचाया, तो उसने मानवता को बचाया”।
{अबू हुरैरा ने फरमाया, कि अल्लाह के रसूल ने कहा, अल्लाह(ईश्वर) पुनरुत्थान के दिन (Day of Judgment) इंसान से पूछेगा,कि “हे आदम के बेटे! मैं बीमार था लेकिन तू मेरी देखभाल (सेवा) करने मेरे पास नही आया?”इंसान कहेगा, “हे मेरे प्रभु! मैं तुम्हारी कैसे देखभाल कर सकता हूं, जबकि तुम तो सारे संसार की देखभाल करने वाले हो?”उसके बाद वह (ईश्वर) कहेगा, “क्या तू नही जानता, कि मेरा वह सेवक बीमार था, लेकिन तू उससे मिलने नही गया और क्या तू इस बात से अवगत नही था, कि यदि तू उससे मिलने गया होता, तो तू उसके द्वारा मुझे मिल जाता?”फिर ईश्वर इंसान से पूछेगा,”हे आदम के पुत्र! मैने तुझसे भोजन मांगा लेकिन तूने मुझे नही खिलाया”।
इंसान कहेगा, “हे मेरे प्रभु! मैं तुम्हे कैसे खिला सकता हूं, जबकि तुम दुनिया को भोजन खिलाने वाले हो?”उसके बाद वह (ईश्वर) कहेगा, “क्या तू नही जानता, कि मेरे उस सेवक ने तुझसे खाना माँगा था लेकिन तूने उसे खाना नही दिया, और क्या तू इस बात से अवगत नही था, कि अगर तूने उसे भोजन खिलाया होता, तो आज वही भोजन तुझको मेरे यहाँ मिलता”।
फिर ईश्वर इंसान से पूछेगा,”हे आदम के पुत्र! मैने तुझसे पेय पदार्थ मांगा लेकिन तूने मुझे प्रदान नही किया”।इंसान कहेगा, “हे मेरे प्रभु! मैं तुम्हे कैसे पेय प्रदान कर सकता था, जबकि तू दुनिया का ईश्वर है अर्थात पेय प्रदान करने वाला है?”उसके बाद वह (ईश्वर) कहेगा, “क्या तू नही जानता, कि मेरे उस सेवक ने तुझसे पेय पीने के लिये माँगा था, लेकिन तूने उसे पेय प्रदान नही किया था, अगर तूने उसे पीने के लिये वह पेय प्रदान किया होता, तो आज वही पेय तुझको मेरे यहाँ मिलता”।
(बुखारी पुस्तक 32, संख्या 6232)}
उपरोक्त हदीस भारत के मुस्लिम, सिक्ख और सनातन ‘सूफी-संतो’ मे बहुत लोकप्रिय है,क्योकि यह ‘समाज सेवा की धार्मिक व्याख्या’ करती है अर्थात “मानव-धर्म का मूल मंत्र है”।
पैगंबर साहब ने अध्यात्मिकता के साथ-साथ आर्थिक और शासकीय व्यवस्था का नमूना (मॉडल) अस्तित्व मे लाकर ‘मानवीय मूल्यो के संरक्षण’ के लिये अभूतपूर्व प्रयत्न किये,उन्होने अपने क्षेत्र के ‘आदिवासियो मे वंशवाद’, ‘प्रजातीय श्रेष्ठा’, ‘जातीय विद्वेष’, ‘संप्रदायिकता’ और ‘नस्लवाद’ जैसी “समस्याओ” का सफलता से समाधान खोजा, जो “सभ्यताओ के टकराव” को पैदा करके मानव जाति का विनाश कर सकती है।
पैगंबर साहब ने 622 ईसवी मे मदीना मे आठ अरब आदिवासी कबीलो, यहूदियो और मुसलमानो के बीच मे सह-अस्तित्व और शांति स्थापना के लिये एक लिखित अनुबंध अर्थात संविधान की रचना करी,यह “दस्तूर-ए-मदीना” (Constitution of Madina) “सहीफत-उल-मदीना” (Charter of Madina) और “मिसाक़-उल-मदीना” (Covenant of Madina) के नाम से प्रसिद्ध है,इसको “सभ्यताओ के टकराव” (Clash of Civilization) की समस्या के समाधान के लिये अभूतपूर्व प्रतिमान (नमूना) माना जाता है।
‘सामूहिक चरित्र निर्माण’ से मानवीय मूल्यो की “रक्षा” और ‘सह-अस्तित्व की भावना’ के विकास से “शांति स्थापना” के लक्ष्य की प्राप्ती के बाद इस्लाम ने ‘आर्थिक सुधारो’ से “अंत्योदय” की प्राप्ति का लक्ष्य निर्धारित किया, इसके लिये अर्थव्यवस्था मे प्रचलित परंपरागत आर्थिक नियमो मे व्यापक बदलाव किये गये,फिर इस्लाम ने ‘उत्पादन केंद्रित अर्थव्यवस्था’ के स्थान पर “धन के वितरण” (Distribution of Wealth) को केंद्र मे रखकर आर्थिक नीतियो का निर्माण किया और “ब्याज़ मुक्त अर्थव्यवस्था” (Interest Free Economy) की नींव रखी।
इस्लाम की आर्थिक व्यवस्था को सामान्यता: ‘ब्याज़-मुक्त समाजवादी अर्थव्यवस्था’ (Interest Free Socialist Economy) समझा जाता है’ किंतु यह ना तो ‘पूंजीवादी-साम्यवादी’ है और ना ही ‘समाजवादी’,क्योकि यह तीनो ही अर्थव्यवस्थाये ‘उत्पादन पर आधारित’ होती है,जबकि इस्लाम की अर्थव्यवस्था “संसाधनो के वितरण” (Distribution of Wealth) के सिद्धांत पर आधारित है।
इस्लामिक अर्थशास्त्र के मूल सिद्धांत है :-
1- “संपत्ति का मालिक ख़ुदा है”।
2- “मनुष्य सिर्फ संपत्ति का संरक्षक है”।
3- “धन का परिसंचरण” एक कर्तव्य है।
4- “जमाखोरी निषिद्ध है”।
5- “प्राकृतिक संपदा के उपयोग का सामूहिक अधिकार है”।
6- “पूंजी का व्यापार (Financial Market) और ब्याज़ (Interest) निषिद्ध है”।
7- “कृत्रिम सौदे और कृत्रिम वस्तुओ का व्यापार निषिद्ध है”।
8- “समान मूल्य की मुद्रा (विनिमेयता) ही वैध है”।
9- “सीमा से अधिक लाभ (मुनाफा) निषिद्ध है”।
10- “बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराना राष्ट्र की जिम्मेदारी है”।
11- “सट्टा, लॉटरी, पहेली या कोई भी जुआ (द्यूत) जैसा व्यापार (Maisir/Qimar) निषिद्ध है”।
12- “वादा-खिलाफी अथवा धोखाधड़ी (Gharar) निषिद्ध है”।
इस्लाम ने बारिश पर निर्भर रहने वाली खेती पर बीस प्रतिशत (20℅), साधारण खेती पर दस प्रतिशत (10℅) और अन्य चीज़ो पर मात्र ढाई प्रतिशत (2.5℅) ‘संपत्ति कर’ (ज़कात) लगाकर कम जोख़िम वाले व्यापार को प्रोत्साहित किया, फिर ‘मुनाफे (लाभ) की सीमा’ पच्चीस प्रतिशत (25%) निर्धारित करके, ‘जमाखोरी पर प्रतिबंध’ लगाकर और ‘फिजूलखर्ची को हतोत्साहित’ करते हुये “पूंजी के परिसंचरण” (Circulation of Money) का मार्ग प्रशस्त किया।
[ हे आदम की औलाद!
“……….खाओ-पियो और (लेकिन) फिज़ूल ख़र्ची मत करो, (क्योकि) ख़ुदा फिज़ूल ख़र्ची करने वालो को दोस्त नही रखता”।
(सूराह अल-अराफ 31)]
भिक्षावृत्ति और निकम्मेपन को हतोत्साहित करते हुये,फिर मज़दूरो को समय पर मजदूरी दिलवाते हुये शोषण से बचाकर,उन्हे अधिक मेहनत करने के लिये प्रोत्साहित किया, जिस से ‘श्रम की अनुपलब्धता’ की समस्या भी खत्म हो गई।
[ “…………फिर जब नमाज़ पूरी हो जाये,तो धरती मे फैल जाओ और अल्लाह का उदार अनुग्रह (रोज़ी) तलाश करो, और अल्लाह को बहुत ज़्यादा याद करते रहो, ताकि तुम सफल हो”।
(कुरान 62:10)]
मुसलमानो मे भिक्षावृत्ति का चलन बढ़ता जा रहा है,इस से यह विचार पैदा होता है कि शायद इस्लाम इसको प्रोत्साहन देता है,जबकि वास्तव मे इस्लाम भिक्षावृत्ति को हतोत्साहित करता है और पैगंबर साहब भीख मांगने की आदत को सख्त नापसंद करते थे।
{एक बार एक भिखारी पैगंबर साहब के पास कुछ मांगने आया, तो उन्होने उससे कहा; कि “तुम्हारे घर मे क्या (संपत्ति) है?”वह अपने घर से एक कंबल और एक पानी पीने का बर्तन ले आया।
पैगंबर साहब ने उस सामान को दो दिरहम मे नीलाम कर दिया और एक दिरहम उसे देकर कहा; “अपने घर के लिये अनाज खरीद कर ले जाओ”।दूसरे दिरहम से उन्होने एक कुल्हाड़ी का फलका खरीदवाया फिर अपने हाथ से कुल्हाड़ी का डंडा बनाकर उसे कुल्हाड़ी देते हुये कहा; कि “अब तुम इससे लकड़ी काटकर मजदूरी करो”। अर्थात भीख मांगना खत्म करो और मेहनत की रोज़ी-रोटी कमाकर खाओ।}
इस्लाम का लक्ष्य है, कि हर व्यक्ति को समान अवसर मिले और आय का वितरण समान हो जाये,जिस से हर व्यक्ति को भोजन, निवास, दवा और दूसरी ज़रूरी चीजे़ उपलब्ध हो जाये,ताकि वह ईर्ष्या, द्वेष, घृणा और अपराध से बचा रहे,फिर वह खुशहाल इंसान ज़्यादा से ज़्यादा अपना समय अपने खुदा की इबादत मे लगाये।
[{ सूराह अल-माऊन, कुरान 107:1 :- “हे नबी! क्या तुमने उसे देखा, जो प्रतिकार (बदले) के दिन (Day of Judgment) को झुठलाता है?”}
{सूराह अल-माऊन, कुरान 107:2 :- “यही वह है, जो अनाथ (यतीम) को धक्का देता है”।}
{सूराह अल-माऊन, कुरान 107:3 :- “और मिस्कीन (ग़रीब) को भोजन देने पर नही उभारता” (प्रयास नही करता।}
‘कुरान की इन आयतो मे नर्क मे जाने वालो की दशा (लक्षण) बताई गई है अर्थात जो मुसलमान बेसहारो (अनाथो) को सहारा नही देता है और भूखे-गरीब को खाना नही खिलाता है, वह पापी है’।
{सूराह अल-माऊन, कुरान 107:7 :- “तथा माऊन (उपयोग मे आने वाली चीज़े) भी माँगने से नही देते”।}]
सूराह अल-माऊन की अंतिम पंक्ति ‘समाजवाद की चरम सीमा’ को प्रदर्शित (रेखांकित) है,क्योकि यह आदेश देती है “जो बिस्तर आप उपयोग करते है, वैसा ही बिस्तर अपने नौकरो और दूसरे गरीब लोगो को भी उपयोग करने के लिये उपलब्ध करवाये”,”जो बर्तन आप इस्तेमाल करते है, वैसे ही बर्तन अपने नौकरो और दूसरे गरीब लोगो को इस्तेमाल करने के लिये उपलब्ध करवाये”,”जो वाहन (सस्ता) आप उपयोग करे, वह वाहन अपने नौकरो और दूसरे गरीब लोगो को उपयोग करने का अवसर दे”।
यद्यपि ‘माउन’ मे बहुत अधिक ‘पूंजीगत खर्च वाली संपत्ति’ जैसे महल, हवाई जहाज, जलयान, चिकित्सा और सुरक्षा उपकरण शामिल नही होते है,फिर भी पहले ‘चार (सच्चे) खलीफा’ ज़मीन पर सोते, मिट्टी के बर्तनो मे खाना खाते और साधारण कपड़े पहनते थे,ताकि शासक और प्रजा के रहन-सहन मे कोई अंतर ना हो अर्थात ‘समाज मे ऊंच-नीच का कोई भेदभाव (फर्क) ना हो’ (No difference in Social Status or life Style)।
किंतु तानाशाहो (ख़लीफा) के ज़माने मे “मुल्लाह वर्ग के उदय”(Development of Clergy) के बाद , ‘उपयोग की वस्तु’ (मामून) को सिर्फ “साधारण चीज़” (जैसे पानी, आग, नमक, डोल आदि) बना दिया गया और बड़ी कुटिलता से इस आयत की व्याख्या की गई,”व्यक्ति इतना तंग-दिल है, कि वह साधारण उपकार करने के लिये भी तैयार नही होता”।
धार्मिक विद्वानो द्वारा लगातार राजा (खलीफा) की चाटुकारिता करते रहने के कारण मुसलमान मनोवैज्ञानिक रूप से दो ख़ेमो मे बँट गये, ‘मानवता’ के समर्थक “अल्लाह का इस्लाम” वाले (सूफीवादी) और ‘सत्ता’ के समर्थक “मुल्लाह के इस्लाम” वाले (दरबारी) कहलाये गये।
फिर इस्लाम की यात्रा ‘समाजवाद से पूंजीवाद’ की तरफ चल पड़ी और आज तक जारी है,जिसमे यहूदियो क सारी बुराइयां (ब्याज़, कालाबाज़ारी, मिलावट, नशीले पदार्थो की तस्करी, जुआ-खोरी, भ्रष्टाचार, अय्याशी आदि) शामिल होती जा रही है।
“अल्लाह के इस्लाम” को मानने वाले सूफी-संतो ने स्थानीय संस्कृतियो को अपने अंदर मिलाकर गंगा-जमुनी तहज़ीब (सह-अस्तित्व) को जन्म दिया,किंतु “मुल्लाह के इस्लाम” को मानने वाले कट्टरपंथी शासको ने “सभ्यताओ के टकराव” (Clash of Civilization) को जन्म दिया।
“अल्लाह के इस्लाम” मानने वाले सूफी-संतो ने भूखे को खाना खिलाकर और पानी पिलाकर सह-अस्तित्व और इंसानियत की मिसाल कायम करते हुये प्रेम और सद्भावना को पूरे संसार मे फैलाया,किंतु “मुल्लाह का इस्लाम” मानने वाले शासक और नेताओ ने धर्म और पंथ का भेदभाव करते हुये हिंसा का मार्ग अपनाकर अलगाववाद को फैलाया।
“अल्लाह का इस्लाम” वाले ज्ञान का प्रकाश फैलाते है,किंतु मुल्लाह का इस्लाम” वाले ज्ञान के दुश्मन है और वह गणित-विज्ञान पढ़ाने वाले स्कूलो को सख्त नापसंद करते है,जिसके कारण दुनिया की एक चौथाई आबादी होने के बावजूद भी मुसलमान आज वैज्ञानिक और तकनीकी आधार पर पिछड़े हुये है।
यहूदियो जैसी प्रवृत्तिया रातो-रात़ मुसलमानो मे नही आ गई है,बल्कि कई शताब्दियो की मेहनत के बाद यह षड्यंत्र सफल हुये है,इसकी शुरुआत पैगंबर साहब के हिजरत करके मदीना पहुंचने के बाद ही हो गई थी।
जब इस्लाम मक्का से निकलकर मदीना गया तो सुनामी की रफ्तार से आगे बढ़ने लगा, जिससे विरोधी, विशेषकर यहूदी बौखला गये जिनका मदीने मे गढ़ था,उन्होने इस्लाम विरोधी शक्तियो के साथ गठबंधन करके इस्लाम का सफाया करने की असफल कोशिश करी।
विरोधियो को बुरी तरीके से हार का सामना करना पड़ा, तो एक यहूदी महिला ‘ज़ैनब बिंते हारिस’ (Zaynab bint Al-Harith) ने पैगंबर साहब को खाने मे ज़हर देकर उनकी हत्या करने की कोशिश करी,फिर पूछने पर उस षड्यंत्रकारी यहूदी महिला ने कुतर्क दिया,कि “मेरा विश्वास है, कि अल्लाह के नबी की हत्या नही हो सकती है, इसलिये मैंने यह जांचने के लिये आपको ज़हर दिया था, कि आप असली नबी (पैगंबर) हो या नही?
ज़हर का आंशिक असर हुआ,अल्लाह ने पैगंबर साहब की हर षड्यंत्र से रक्षा करी और विरोधियो को शर्मिदा किया,तब यहूदियो ने यह निर्णय लिया, कि वह फर्ज़ी मुसलमान बनकर घुसपैठ करेगे और अंदर ही अंदर इस्लाम की जड़ो को खोखला करेगे।
कुरान एक “ग्रंथ” (Epic) है और ‘किताब’ (ग्रंथ) की ज़बान नही होती है,ताकि वह अपने ऊपर उठाये गये प्रश्नो के जवाब दे सके।दूसरे कुरान एक “गद्य” (Prose) नही है,
बल्कि “पद्य”  (Poetry) है,पद्य (Poetry) के अलग-अलग अर्थ निकालकर सुविधानुसार व्याख्या की जा सकती है।
पैगंबर साहब का ‘व्यक्तित्व’ कुरान को ‘सत्यापित’ करता है और उनकी जीवनशैली अर्थात ‘हदीस’ इस्लाम को ‘प्रमाणित’ करती है,साधारण शब्दो मे पैगंबर साहब एक ‘जीवंत कुरान’ थे अर्थात एक ‘बोलती हुई किताब’। इसलिये अगर इस्लाम को कमज़ोर करना है,तो पैगंबर साहब के व्यक्तित्व को निशाना बनाना पड़ेगा,इस रणनीति को लेकर षडयंत्र शुरू हुये और आज तक जारी है।
पहला षड्यंत्र यहूदी से फर्ज़ी मुसलमान बने ‘अब्दुल्लाह बिन सबाह’ ने रचा,उसने पैगंबर साहब के दामाद ‘अली’ से कहा; कि “आप दैवीय शक्ति के मालिक है” अर्थात आप असाधारण मनुष्य है,फिर कहा; कि “वास्तव मे पैगंबर तो आप होते, क्योकि आपका जन्म ‘काबा’ (पवित्र स्थल) के अंदर हुआ है, किंतु फरिश्ते (जिब्राइल) ने आपको पहचानने मे भूल कर भी और ‘नबूअत’ (भगवान के दूत की पदवी) हज़रत मोहम्मद साहब (ﷺ) को दे दी”।
खलीफा अली ने ‘अब्दुल्लाह बिन सबाह’ को मुसलमानो मे फूट डालने के अपराध मे मृत्युदंड दे दिया,किन्तु उसके ‘रावज़ी’ ग्रुप के समर्थक क्षेत्र से बाहर आकर बस गये और आज भी अपने मूल-स्वरूप मे मौजूद है।उसी ‘रावज़ी’ ग्रुप से जन्मे (रूपांतरित) दूसरे ग्रुप पैगंबर साहब के परिवार के कुछ सदस्यो से जुड़कर प्रभावशाली ‘पंथ और वर्ग’ बनाने मे सक्षम हुये,आज ईरान, इराक और सीरिया मे इनका प्रभुत्व है।
दूसरा षड्यंत्र “अब्दुल्लाह बिन इबादी” के “ख़ारजी” (Khawarji) ग्रुप द्वारा किया गया,यह “व्यक्ति के बजाय पुस्तक की प्रधानता” के सिद्धांत का दावा करते हुये पैगंबर साहब की महत्ता को नजरअंदाज करते थे तथा उनके निकट रहे मुसलमानो को नापसंद करते थे।
इनका मत था, कि हक़ वाले (गम्भीर) प्रश्नो (मुद्दे) विशेषकर नेतृत्व के प्रश्न का “उत्तर” (हुकुम) अल्लाह से प्राप्त करने के लिये ‘जंग’ करना चाहिये (ला-हुकुम-इल्ला-लिल्लाह) अर्थात निर्णय सिर्फ युद्ध के मैदान मे ही होना चाहिये,क्योकि जो सच्चे मार्ग पर होगा अल्लाह उसे ही विजय (हुकुम) देगा अर्थात यह सिर्फ खून-खराबे को ही अन्तिम समाधान मानते थे,यह अपने विरोधियो को ‘मुर्तद’ (विधर्मी) कहते थे और इस विषय को आज “तकफीर” (Takfir) कहा जाता है।
जंग-ए-सिफ्फीन के बाद यह ‘ख़ारजी’ छुपकर गुरिल्ला लड़ाई लड़ते रहे,आज भी ‘इबादी’ के नाम से अपने मूल-स्वरूप मे मौजूद है,किन्तु रूपांतरित स्वरूप वाले इनके एक वर्ग का अब खाड़ी के देशो मे प्रभुत्व है।
इस्लाम को वैचारिक रूप से चोट पहुँचाने के लिये बहुत षड्यंत्र हुये, किंतु तीसरा सबसे घातक हमला ‘मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद’ ने करतेे हुये कादियानी (अहमदिया) संप्रदाय की नींव रखी,इसने पहले खुद को हज़रत ईसा का अवतार, फिर इमाम मेहंदी और अंत मे पैगंबर घोषित करके मुसलमानो को विश्व मे हास्य-पात्र बना दिया।इस्लाम विरोधी षड्यंत्रो मे पहली पद्धति (Method) के अंतर्गत ‘वैचारिक” (Ideological) रूप से नुकसान पहुंचाने का असफल प्रयास किया गया,तो दूसरी पद्धति मे “आर्थिक और राजनीतिक ढांचे” (Economical & Political Structure) का स्वरूप बदलने का सफल प्रयास किया गया,
कुरान द्वारा निर्देशित ‘लोकतांत्रिक व्यवस्था’ के बजाय “तानाशाही” और पैगंबर साहब द्वारा सिखाई गई ‘मिश्रित अर्थव्यवस्था’ (समाजवादी व्यवस्था के समतुल्य) बजाय ‘”पूंजीवादी-साम्यवादी अर्थव्यवस्था” को थोप दिया गया।
وَأَمْرُهُمْ شُورَىٰ
{……और उनका मामला उनके पारस्परिक परामर्श से चलता है।
(सूराह अस शूरा, 42:38)}
उपरोक्त आयत का आशय यह है,कि मुसलमानो की व्यवस्था ऐसी होनी चाहिये,जिसमे सारे काम आपस मे सलाह-मशवरे (परामर्श) से हो अर्थात “निर्णय मे सामूहिक भागीदारी” होनी चाहिये,इसी को आधुनिक भाषा मे “लोकतंत्र” कहा जाता है।
पैगंबर साहब के समय मे तो आदेश अल्लाह की तरफ से आता था,किन्तु फिर उनके बाद सम्पूर्ण लोकतंत्र की स्थापना हो जानी चाहिये थी,किंतु ‘परामर्श की प्रक्रिया’ सिर्फ “शूरा” (Cabinet) तक ही सीमित रह गई।
‘नेतृत्व के चुनाव’ की समस्या गंभीर मतभेद का कारण बनी,तीन दशको मे दूसरे, तीसरे और चौथे ‘खलीफा की हत्या’ होने के बाद तानाशाही का मार्ग प्रशस्त हुआ,फिर इमाम हुसैन की हत्या के बाद विधर्मी यज़ीद ने पैगंबर साहब के राजनैतिक और आर्थिक ढांचे को ध्वस्त करके साम्राज्यवादी व्यवस्था कायम कर दी।
चरित्रहीन तानाशाहो का आदेश अल्लाह का इशारा (फरमान) समझ लिया गया,तानाशाह शासन पर अपनी मजबूत पकड़ बनाने के चक्कर मे पैगंबर साहब द्वारा निर्मित (आदेशित) “लोक कल्याणकारी राज्य” के सिद्धांतो की अवहेलना करने लगे,फिर चुपके से “पूंजीवाद” भी दरबार मे घुस आया और इस्लाम की ‘आर्थिक और राजनैतिक व्यवस्था’ का जनाज़ा निकल गया।
चूँकि मुसलमानो जैसी अनुशासित और समर्पित कौम के ऊपर सिर्फ ताकत के बलबूते पर लंबे समय तक शासन करना संभव नही था,इसलिये चाटुकार और भ्रष्ट ‘धर्मगुरुओ’ को पदोन्नति दी गई, जिन्होने बौद्धिक कुटिलता से शासक (बादशाह) की सुविधानुसार ‘शासन के पक्ष’ मे कुरान और हदीस की व्याख्या करी,फिर इसके परिणाम स्वरूप “मुल्लाह वर्ग” का उदय हुआ।
“मुल्लाह वर्ग के विकास” (Development of Clergy) के बाद इस्लाम की “सूरत और सीरत” दोनो बदल गई,क्योकि “हदीस (record of the words, actions, and the silent approval of the Islamic prophet) मे जोड़-तोड़” एवं “कुरान की सुविधानुसार व्याख्या” (अर्थ) से शासक बेशर्म और निरंकुश हो गये,फिर “जिसकी लाठी उसकी भैंस” वाली व्यवस्था अर्थात क्रूर साम्राज्यवाद का मुसलमानो मे प्रभुत्व हो गया,जिसका इस्लाम ने हमेशा पुरज़ोर विरोध किया था।
हदीस (पैगंबर साहब के शब्दो, कार्यो और मौन स्वीकृतियो के अभिलेख) को ‘चार श्रेणी’ मे बांटा गया,”सही” (Authentic), “हसन” (Good), “ज़ईफ” (Weak) और “मौदू” (Fabricated)।एक हदीस को अच्छी “श्रेणी” देने के लिए तीन बाते बहुत महत्वपूर्ण थी,पहली “सनद” अर्थात “श्रृंखला” (Chain of Narrators) और दूसरा “मतन” अर्थात “पाठ” (Text) और तीसरा “लेखक” (Writer) है।
पैगंबर साहब के “सहाबा” (Companion) को ‘प्रथम पीढ़ी’ (First Generation) माना जाता है,अगली पीढ़ी वाले “ताबा-ईन” को ‘द्वितीय पीढ़ी’ (Second Generation) और उससे अगली पीढ़ी वाले “ताबा ताबा-ईन” को तृतीय पीढ़ी (Third Generation) माना जाता है,
प्रथम पीढ़ी के व्यक्तियोे वाली हदीस की ‘श्रेणी’ (Chain of Narrators) ‘हसन’ (अच्छी) मानी जाती है,कम व्यक्तियो वाली हदीस की ‘सनद’ (श्रेणी) भी ‘हसन’ (अच्छी) मानी जाती है,किंतु अधिक व्यक्तियो और पीढ़ियो वाली हदीस की ‘सनद’ (श्रेणी) ‘ज़ईफ’ (कमज़ोर) मानी जाती है।
सुन्नी मुसलमानो मे पैगंबर साहब की गतिविधियो (शब्द, सलाह, अभ्यास, संकेत, मौन स्वीकृति आदि) के साथ-साथ सहाबा के वचन को भी जोड़ दिया गया है,जबकि शिया समुदाय मे पैगंबर साहब के सुन्नत (अभ्यास, आदेश और रिवाज) के साथ-साथ उनकी बेटी फातमा, दामाद और उनके वंशजो के वचन को भी जोड़ दिया गया है।
सुन्नी पंथ की हदीस वाली छह किताबे [(1) ‘सही अल-बुख़ारी’ (Sahih al-Bukhari), (2) ‘सही अल-मुस्लिम’ (Sahih al-Muslim), (3) ‘सुनन अबू दाऊद’ (Sunan Abu Dawood), (4) ‘जामी अत-तिरमिदी’ (Jami` at-Tirmidhi), (5) ‘अल-सुनन अल-सुग़रा’ (Al-Sunan al-Sughra), और (6) ‘सुनन इब्ने माजाह’ (Sunan ibn Majah)] है,असना-अशरी शिया पंथ (Twelver Shia) की चार किताबे [(1) ‘किताब उल-काफी’ (Kitab al-Kafi), (2) ‘मन-ला याहदुरु अल-फकीह’ (Man la yahduruhu al-Faqih), (3) ‘तहज़ीब अल-एहकाम’ (Tahdhib al-Ahkam) और(4) ‘अल स्तेबासर’ (Al-Istibsar)]सुन्नी पंथ के वहाबी वर्ग “इबादी” (Ibadi) की एक किताब’तरतीब अल-मसनद’ (Tartib al-Musnad) है और शिया पंथ के वर्ग “इस्माईली” (Ismaili) की एक किताब ‘दाई-म-अल-इस्लाम’ (Daim al-Islam) है।
पैगंबर साहब के बाद नेतृत्व को लेकर गंभीर मतभेद बन गये थे,90% मुसलमानो का मत था कि “अबू बकर” को ही मुसलमानो का पहला “अमीर” (खलीफा / इमाम / वली) बनाया जाना चाहिये, क्योकि वह इस्लाम को स्वीकार करने वाले पहले मुसलमान (पुरुष) है और ‘हिजरत’ के वक्त भी ‘अबू बकर’ ही पैगंबर साहब के साथ थे।
एक बार ‘फजर’ की नमाज़ के समय  सूर्य उदय की शीघ्र संभावना के अवसर पर पैगंबर साहब को स्तनजा (नित्यक्रम) करने मे देर लगते देखकर सहाबा ने “अब्दुर रहमान इब्ने औफ” (Abdul Rehman ibn Awf) को नमाज़ पढ़ाने का आग्रह किया था,फिर नमाज़ के बीच मे पैगंबर साहब आ गये,तो ‘अब्दुर रहमान इब्ने औफ’ (Abdul Rehman ibn Awf) ने पीछे हटने का प्रयास किया, किंतु पैगंबर साहब ने उन्हे ‘नमाज़ पढ़ाना जारी रखने’ के लिये इशारा किया और उनके पीछे नमाज़ पढ़ी।
अंतिम दिनो मे जब पैगंबर साहब अस्वस्थ थे, तो नमाज़ पढ़ाने की जिम्मेदारी “अबू बकर” को मिली,इस दौरान एक दिन पैगंबर साहब उनके पीछे नमाज पढ़ने स्वयं आये थे,इसलिये वह पहले व्यक्ति थे,जिनके पीछे पैगंबर साहब ने स्वेच्छा से नमाज़ पढ़ी थी और यह घटना उनके उत्तराधिकारी बनने का संकेत थी।
पैगंबर साहब के माता-पिता का बचपन मे ही देहांत हो गया था और आठ वर्ष की आयु के बाद उनके दादा का भी देहांत हो गया,तब उनके चाचा ‘अबु तालिब’ ने उनका लालन-पालन किया,उनके पुत्र “अली” से पैगंबर साहब बहुत प्रेम करते थे,अली’ इस्लाम स्वीकार करने वाले पहले मुसलमान (बालक) थे और ‘हिजरत’ के समय पैगंबर साहब उन्हे ही अपने बिस्तर पर सुलाकर गये थे ।पैगंबर साहब ने अपनी सबसे लाडली बेटी बीवी “फातिमा” की शादी ‘अली’ के साथ करी थी,फिर एक प्रतिस्पर्धा के दौरान पैगंबर साहब ने अपने ‘बेटी-दामाद’ और उनके दोनो बेटो (नाती) “हसन” और “हुसैन” को मिलाकर पाँच सदस्यो (“पंजेतन” की अवधारणा) की संख्या वाला अपना परिवार घोषित किया था,इसलिये नैसर्गिक रूप से “अली” और उनके बेटे ही पैगंबर साहब के उत्तराधिकारी होना चाहिये थे।
समस्या की शुरुआत तब हुई,जब पैगंबर साहब अपना ‘अंतिम हज’ करके अपने घर मदीना वापस आ रहे थे,तो “ग़दीरे खुंम्ब” के स्थान पर उन्होने नमाज़ पढ़ाने के बाद ‘मेंबर (मंच) पर अली को बुलाकर’ और खुद उनका हाथ ऊपर उठाकर उन्हे मुसलमानो का पहला धार्मिक गुरु (“वली”) घोषित करतेे हुये नेतृत्व (“विलायत”) की जिम्मेदारी सौंपी,किंतु अली समर्थको का मानना था,कि यह आध्यात्मिक नही बल्कि राजनैतिक जिम्मेदारी दी गई है।
लेकिन वहां मौजूद 70000 सहाबा मे से 700 सहाबा ने भी अली समर्थको की बात की पुष्टि नही करी और उन्हे प्रथम खलीफा नही चुना गया,जिसके कारण मुसलमानो मे गंभीर मतभेद पैदा हो गये और फिर एक लंबे अंतराल के बाद ‘अली’ को मुसलमानो का “चौथा खलीफा” चुना गया,किंतु अविश्वसनीयता बनी रही और दोनो ग्रुपो मे मौजूद षड्यंत्रकारी तनाव को बढ़ाने मे कोई कमी नही छोड़ते थे।इस परस्पर घृणा से सबसे ज्यादा नुकसान हदीस के संकलन करते वक्त हुआ,क्योकि सर्वाधिक हदीस पैगंबर साहब की पत्नी ‘बीवी आशा’ की मार्फत मिलती है और सर्वाधिक हदीस के लेखक “अबू हुरैरा” है,बीवी आयशा को ‘अली-ग्रुप’ के लोग अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानते थे और वह अबु हुरैरा को मुनाफिक (फर्ज़ी मुसलमान) अर्थात ‘षड्यंत्रकारी ईसाई’ मानते थे,जबकि अधिकतर मुसलमान अली समर्थको को मुनाफिक और ‘हसन बिन सबाह’ का एजेंट (षड्यंत्रकारी यहूदी) मानते थे।”मुल्लाह-वर्ग” ने बहुत चालाकी से खेल खेला और जो हदीस उनके पक्ष मे थी,उसको ‘सच्चा’ (सही) और उसके लेखक को वफादार मुसलमान बताया और जो हदीस उनके पक्ष मे नही थी,उसको ‘ग़लत’ (मौदू) और उसके लेखक को मुनाफिक (गद्दार) मुसलमान बताया।
एज़ाज़ क़मर (रक्षा, विदेश और राजनीतिक विश्लेषक)

क्रमशः

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