क्योंकि उनका फोन नंबर मेरे पास नहीं है।

आकृति विज्ञा ‘अर्पण’, असिस्टेंट ब्यूरो चीफ-ICN U.P.
गोरखपुर। मेरी वह नायिका जो रायगंज की सड़को के किनारों ,डीह पर और गांव के दखिन गोबर पाथ रही होगी ।चूल्हा चौकटा निबटा के अधिया खेत में बोया बर्सिन काट रही होगी।गेहूं की फसल काटने के उत्सव से पहले अगली फसल की प्लानिंग ने दोपहर की नींद से समझौता करने पर विवश कर दिया होगा ,उस प्यारी नायिका तक मेरा सलाम पहुंचे।
मेरा सलाम पहुंचे दुरमूस ठीक कर रहे मेरे उन हीरोज तक जिनके बदौलत घर को मनपसंद शक्ल देने का सपने को पंख लगते हैं । अरे वही हीरोज जिनके घर की डेहरी भरी तो नहीं होती लेकिन हँसिये में हमेशा धार रहती है,करनी का हत्था हमेशा मजबूत रहता है ,पुआल का बाटा पूर पूर के वो तैयार रहते हैं कभी भी फसलों के बोझे सिर पर उठाने के लिये।
ईश्वर  से मेरी प्रार्थना भी है उन तमाम लोगों को सद्बुद्धि देने के लिये जो नहीं देते मेरे नायिका और नायकों को उनका पूरा मेहनताना ।
वो लोग जो मेरे प्रियजनों के बच्चों की शिक्षा ,जरूरतें आदि आवश्यकताओं के निमित्त आवश्यक धनराशि को तब्दील कर देते हैं दारू के बोतल में। जी हाँ वही धनाढ्य लोग जो मजदूरी देने के बदले थमा देते हैं कच्ची की बोतल।
मेरी सहानुभूति और नाराजगी दोनो हैं आपने नायकों से जो खून पसीने के बदले चुन लेते हैं दारू की बोतल।
खून पसीना एक करने के बाद भी फटी है मेरे नायक के बुशट की आस्तिन ,बिना फाल के हैं मेरी नायिका की लुगरी ,उन के बच्चों के धरखे पर लगे चिथड़े से झांक रहा हैं भारत के भविष्य का बड़ा अंश जहां मुझे दिखता है अपने समाज के तमाम  लोगों का ऐसा चेहरा जिन पर लगे हैं नाइंसाफी के मुखौटे।
मैं हिक भर पहनती हूं झुमके लेकिन मेरी नायिका की कान में दो दो छेदों पर सालों से पहरा दे रही है नीम की सींक । पिछले टाप्स जो बाबू के उपनयन पर निशानी बने थे हमारे सखी परंपरा के ,सुना है वो टूट गये हैं और मैं तबसे गांव भी नहीं गयी।
मेरी नायिका इस बार मैं तुम्हे अपने हाथ से मेहंदी लगाना चाहती हूँ ,मैं खुद पीसूंगी सिलबट्टे पर।लिखना चाहती हूँ “लव इज लाइफ” ।
वह मेहंदी कितना रंग लायेगी मुझे नहीं पता ,लेकिन हाँ सखी जब तुम अपने नायक को दिखाओगी तो वह किसी भी तरह ढूंढ लेगा अपने काम (नाम)का अक्षर ।
थोड़ी देर का यह सुकून जहां तुम्हे महसूस हो सके कि तुम दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत हस्ती हो जिसके बग़ैर अधूरा है तुम्हारा घर ,तुम्हारा समाज ,तुम्हारा देश ,तुम्हारी दुनिया।
मैं डोलाना चाहती हूं घंटो तक बांस का वह बेना उसी बंसफोड़ समुदाय के बीच ,जिनकी पीढ़ियां बना रही हैं बांस का बेना लेकिन उन्होने महसूसी नहीं अपने बेने के हवा की गंध ,उस नदी की तरह जिसने अपना पानी नहीं पिया,उस वृक्ष की तरह जिसने अपना फल नहीं चखा।
और मुझे सबसे ज्यादा कचोटती है यह बात कि उन पर रचा गया साहित्य उन तक नहीं पहुंचा।
कितने अभागे हैं हम साहित्यकार !
अपने नायकों की दुआयें अपने सिर पर हाथ बनकर फिरते देख पाना हमारे भाग्य में कितना रहा यह प्रश्न भी साहित्य का एक बड़ा  विषय है।
फिर भी ऐ हवाओं ,ऐ दुआओं ,ऐ फिज़ाओं पहुंचा सको तो पहुंचा देना मेरा प्यार मेरी नायिका ,मेरे नायकों तक ।
क्योंकि उनका फोन नंबर मेरे पास नहीं है।

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