तरुण प्रकाश श्रीवास्तव, सीनियर एग्जीक्यूटिव एडीटर-ICN ग्रुप
हमें एक दूसरे से जोड़ने का जो सबसे प्रभावशाली माध्यम है, वह संवाद के रूप में हमारी भाषा ही है। तनिक सोचिये तो, यदि दुनिया में कोई भी भाषा न होती तो क्या होता?
हम सब शायद ‘व्यक्ति’ से ‘वस्तु’ बन कर रह गये होते और अनेक भाव व विचार अपने मन व मस्तिष्क में बुरी तरह ‘उत्पन्न किंतु उत्सर्जित न होने की प्रक्रिया’ में एक के बाद एक विस्फोटित होते हुये फट कर अकाल मृत्यु को प्राप्त हो रहे होते।
हम भारतवर्ष के जिस भूभाग में स्थित हेैं, वहाँ प्रमुख रूप से हिंदी, उर्दू व अंग्रेज़ी भाषा का प्रयोग किया जाता है। यद्यपि इन तीनों भाषाओं का एक मिश्रण भी हमें उपलब्ध है किंतु भाषाई शुद्धता के भी अपने ही मानक होते हेैं और यहीं से प्रारंभ होती हेै एक बहस हमारी भाषाई अक्षमताओं की। हमारे विद्धानों ने प्रत्येक भाषा में बहुत लिखा व रचा किंतु प्रायः उनका ध्यान अपने-अपने लेखन की विषयवस्तु तक ही सीमित रहा और जहाँ भी अपनी भाषाई माध्यम की किसी अक्षमता ने उनकी रफ़्तार रोकने का प्रयास किया, वे अपने ठीक बगल से गुज़रती किसी अन्य भाषाई पगडंडी पर चहलकदमी कर फिर अपनी भाषा के पथ पर दौड़ने लगे। मैं ऐसे सभी विद्वानों की विद्वता का तो मुक्त कंठ से प्रशंसक हूँ किंतु कहीं न कहीं यह पीड़ा भी मेरे मन में है कि उन विद्वानों ने संभवतः अपनी भाषा की उस भाषाई अक्षमता का कोई स्थायी उपचार खोजने में कोई रुचि कभी नहीं ली।
अपनी बात मैं हिंदी भाषा से प्रारंभ करता हूँ। भाषा को यदि मानवीकृत करके इसकी चलने की पद क्रिया को समझने का प्रयास करें तो हिंदी भाषा की यात्रा मार्ग ट्रेन की पटरियों के समान है। इसका प्रत्येक कदम नपा तुला होता है, न एक प्रतिशत अधिक, न एक प्रतिशत कम। कल्पना कीजिये, ट्रेन एक ऐसी पटरी पर दौड़ रही है जिसमें किसी स्थान पर पटरी को अगल-बगल से बाँधती लौह सीमाओं के बीच अधिक स्थान हेै और कहीं कम अथवा दोनों लौह सीमाओं के मध्य बिछे लकड़ी के पटरों मे एक से दूसरे के बीच कहीं अधिक दूरी हेै और कहीं कम। क्या होगा ऐसी यात्रा का? निश्चित ही ऐसी ट्रेन क्षतिग्रस्त हो जायेगी। इसी प्रकार हिंदी भाषा में प्रत्येक कदम एक मात्रा के रूप में लंबाई और चौड़ाई में बिल्कुल समान है। यहाँ भाषा या तो उछल कर ‘एक कदम एक साथ’ (लघु मात्रा) अथवा ‘दो कदम एक साथ’ (दीर्घ मात्रा) के रूप में ही चलती है एवं इसके अतिरिक्त भाषा की रवानगी का कोई अन्य नियम नहीं है। अपनी इस सीमित पद क्षमता के कारण स्वरों को बिल्कुल यथोचित रूप में प्रस्तुत करने में हिंदी भाषा कई अवसरों पर चूकती हुई दिखाई पड़ती है। इस बात को समझने के लिये हमें संगीत के स्वर समझने होंगे। हमने संवाद व लेखन के लिये सारे पूर्ण अक्षर, मध्यम अर्थात लघु स्वरों के लिये ‘इ’, ‘उ’, ‘ए’ व ‘ओ’ व तीव्र अर्थात दीर्घ स्वरों के लिये ‘आ’, ‘ई’, ‘ऊ’, ‘ऐ’ व ‘औ’ की व्यवस्था की है। किंतु एक स्वर ‘ए’ व ‘ऐ’ के मध्य भी है जिसे अंग्रेज़ी भाषा में बहुतायत से प्रयोग किया जाता है किंतु उसका शुद्ध अंकन हिंदी भाषा में संभव नहीं है। जी हाँ, मैं अंग्रेज़ी शब्द ‘pen’, ‘gem’ अथवा ‘jet’ में स्वर के रूप में प्रयुक्त हुये ‘e’ की बात कर रहा हूँ। यह ‘e’ का स्वर वस्तुत: हमारे उपलब्ध स्वर ‘अ’ व ‘ए’ के बीच का स्वर है जो हमारी हिंदी भाषा प्रणाली में अनुपस्थित है और हम pen’, ‘gem’ अथवा ‘jet’ को हिंदी में ‘पेन’, ‘जेम’ एवं ‘जेट’ लिखने के लिये बाध्य हैं और स्वरों के स्तर पर हम स्वयं समझ सकते हैं कि दोनों प्रकार के शब्दों में व उनके लेखन व उच्चारण में ज़मीन-आसमान का अंतर है।
‘ज़मीन’ शब्द के अनायास प्रयोग ने मेरा ध्यान एक और क्षेत्र की ओर आकृष्ट किया है। हमारी हिंदी भाषा के अनुसार केवल ‘ज’ ही उचित है, ‘ज़’ नहीं क्योंकि हमारी लिपि में ‘़’ (नुक़्ता) है ही नहीं। मैं मानता हूँ कि जब हमारी देवनागरी भाषा निर्मित हुई थी, उस समय हमारी संवादिता को नुक़्ते की कोई आवश्यकता नहीं थी क्योंकि तब हम ‘इज़्ज़त’ को ‘लाज’ व ‘ज़रुरत’ को ‘आवश्यकता’ कह कर अपना काम चला लेते थे किंतु आज भी अनेक संस्कृतियों की धरती भारत की सबसे अधिक बोली जाने वाली हिंदी भाषा अपने उसी सदियों पुराने तर्क का सहारा लेगी तो इसे कुतर्क ही कहा जायेगा। समय के साथ हम भी विकसित हुये और हमारी भाषा भी और हमने ‘आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है’ के सिद्धांत का भरपूर व सामयिक लाभ उठाते हुये “़” (नुक़्ता) को अपनी भाषा में अनौपचारिक रूप से जोड़ा और इसका कुशलता पूर्वक प्रयोग करते हुये ‘ज़िंदगी’, ‘सिर्फ़’ और ‘तहज़ीब’ जैसे ‘हज़ारों’ ‘लफ़्ज़ों’ का सही-सही ‘तलफ़्फ़ुज़’ करना सीख लिया और अपनी भाषाई अक्षमता के एक बड़े मोर्चे पर ‘ज़ोरदार’ ‘फ़तह’ प्राप्त की । किंतु दुख यह हेै कि आज भी हिंदी भाषा में यह ‘ं’ (नुक़्ता) औपचारिक रूप से स्वीकारा नहीं गया।
दूसरी ओर हमें भाषा के संदर्भ में भाषाई क्षमता को ‘दूरी और गति’ के सिद्धांत की दृष्टि से भी देखना होगा। अब आप कहेंगे कि भला भाषा के संदर्भ में उक्त सिद्धांत की क्या आवश्यकता है? मुझे तो लगता है कि अवश्य ही इसकी आवश्यकता है। आपने कभी किसी प्रतियोगिता में भागते हुये धावक को देखा हेै? वे निश्चित दूरी की प्रतियोगिता को अपनी गैतिक क्षमता के आधार पर ही जीतते अथवा हारते हेैं। यह क्षमता निश्चित रूप से उर्दू भाषा में है। यह भाषा ‘मात्रा’ के आधार पर नहीं वरन् ‘वज़्न’ के आधार पर सफ़र करती हेै। इस भाषा में आवश्यकतानुसार मात्रा को ‘गिरा लेने’ का गुण हेै। हम आवश्यकतानुसार उर्दू में ‘मेरा’ अथवा ‘तेरा’ शब्दों को मात्रा गिरा कर ‘मिरा’ व ‘तिरा’ कह सकते हैं और इस प्रकार से हम देखते हैं कि जब हिंदी भाषा में हम एक कदम से दूसरे कदम के बीच शब्दों व मात्राओं को ‘सीधे-सीधे ज़मीन पर बिछा’ कर रखते हेैं, वहीं उर्दू भाषा में हम शब्दों व मात्राओं की ‘तहें’ लगा सकते हैं यद्यपि यह स्वतंत्रता सीमित ही है। अर्थात ‘दूरी’ को सुनिश्चित रखते हुये ‘गति’ को बढ़ा अथवा घटा लेने का गुण और इसके लिये न केवल आवश्यकतानुसार ‘मात्रा’ गिरा लेने का गुण हिंदी भाषा में ‘2+2’ के समीकरण को ‘1+2’ में बदलने की अनुमति देता है । इसके अतिरिक्त उर्दू में पद्य रचना हेतु ‘हिंदुस्तान’ व ‘इंसान’ को क्रमशः ‘हिंदुस्तां’ व ‘इंसां’ लिखने व बोलने की छूट का गुण अत्यंत कारगर है।
क्रमशः ….