कोरोना वायरस : सन्नाटे में साँस-2

तरुण प्रकाश श्रीवास्तव, सीनियर एग्जीक्यूटिव एडीटर-ICN ग्रुप

चीन के वुहान शहर से निकला कोरोना आज सारे विश्व में कदम ताल कर रहा है और अजेय सा प्रतीत होता यह मानव निर्मित वायरस विश्व के बड़े से बड़े देश को भी घुटने टेकने को विवश कर रहा है। शायद आज कल मृत्यु की ऋतु आई हुई है और विश्व निर्माण के नाम पर मात्र नये कब्रिस्तान बनाने में ही व्यस्त है।

शहरों, गाँवों, सड़कों, बाजा़रों, कार्यालयों, विद्यालयों व कारखानों में सन्नाटों का कब्जा है। शायद इससे पहले हमने अपनी ही साँसों की आवाज़ कभी नहीं सुनी क्योंकि वह केवल ऐसे ही पसरे हुये ख़ौफ़नाक सन्नाटे में ही सुनी जा सकती हेै।

हमारे निबंधन विभाग के प्रमुख एवं ICN उत्तर प्रदेश के ब्यूरो चीफ प्रिय अखिल कुमार श्रीवास्तव जो हास्य-व्यंग्य व साहित्य के क्षेत्र में राष्ट्रीय स्तर पर अखिल आनंद के नाम से लोकप्रिय हैं, ने तो कोरोना पर पूरी एक खूबसूरत कविता ही लिख डाली। पूरी कविता तो आप कभी उन्हीं से सुनियेगा किंतु थोड़ी बानगी देना आवश्यक है। तो यह रहा उनकी कविता का यह अंश आपके लिये :

प्रलय यही, इसमें क्या शक है।

मिला प्रकृति से बड़ा सबक है।।

संकट में है साँस अभी भी।

लेकिन जीवित आस अभी भी।।

दुख का सन्नाटा, माना है।

पर इसको भी जी जाना है।।

रात कटेगी, प्रात खिलेगा।

जीवन का आनंद मिलेगा।।”

प्रिय अखिल, आप सदैव मुस्कराते हुये सकारात्मक रहते हैं और हम सब आपसे बिना अनुमति लिये हुये बराबर आपसे खुश रहने के हुनर सीखते रहते हैं। आपकी कविता बहुत अच्छी है, किंतु आप स्वयं उससे हज़ार गुना अच्छे हैं।

सुनीता श्रीवास्तव उर्फ अनुपम हमारे लीगल प्रिपरेशन विभाग की सदस्या हैं और अपनी अंतहीन नैसर्गिक प्रतिभाओं के कारण मेरे ह्रदय के बहुत करीब हैं‌। वे अत्यंत सुरीली आवाज़ की स्वामिनी हैं और एक श्रेष्ठ विचारक व लेखिका भी। उन्हीं के शब्दों में उनकी बात,”आज इस संकट की घड़ी में जब सबके दिमाग़ में नकारात्मक विचार आ रहे हैं परंतु ऐसे समय में डाक्टर्स का कहना है कि दिमाग में पाज़िटिव विचार ही लायें जिससे आपकी रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ेगी और शरीर स्वस्थ रहेगा जिससे कोरोना से लड़ने में मदद मिलेगी। सकारात्मक विचारों को मन में लायें तो वातावरण से प्रदूषण कम हुआ है, पूरे विश्व ने सफ़ाई की महत्ता को समझा है, पशु-पक्षियों को अपनी पुरानी प्रकृति वापस मिल गयी है, लोग पैसे को भूलकर एक-दूसरे की मदद के लिये आगे आ रहे हैं। एक तरह से देखा जसये तो कोरोना ने हमें इंसानियत का पाठ पढ़ाया है। हम सब बगैर जंक फूड्स के भी जीवित रह सकते हैं एवं एक सात्विक जीवन जीना कोई कठिन काम नहीं है। साथ ही आज हम कुछ ऐसे तथ्यों से भी दो-चार हुये हेैं जिनकी कल्पना तक से भी हम दूर थे। जैसे भारतीयों की रोग प्रतिरोधक क्षमता विश्व के अन्य लोगों से बहुत अधिक है और कोई भी पादरी, पुजारी, ग्रंथी, मौलवी या ज्योतिष एक भी अस्वस्थ व्यक्ति को बचा सकने में असमर्थ है। आज हम अपनी प्रगति व उन्नति के सर्वोच्च शिखर पर हेैं जहाँ मनुष्य के लिये शायद कुछ भी असंभव नहीं किंतु आज हम जिस विपदा व कठिन परिस्थिति से गुज़र रहे हेैं, उससे तो यही आभास होता हेै कि हमारी प्रगति मात्र वैज्ञानिक स्तर पर ही हुई हेै किंतु इसे संयमित करने हेतु हमें जिस आध्यात्मिक प्रगति की आवश्यकता है, उसमें हम बहुत पिछड़े हुये हैं। आध्यात्मिक प्रगति के अभाव में वैज्ञानिक प्रगति न केवल अपूर्ण है वरन् विनाशकारी भी है।”

वाह, वाह अनुपम जी, आपकी इस दृष्टि के ही तो हम सब प्रशंसक हैं जो संकट में भी समाधान खोजती है। आप‌ माने या न माने, कोई तो जादू हेै आपमें।

प्रिय मो० अरशद हमारे निबंधन सर्च व प्रामाणिक अभिलेख व प्रकीर्ण विभाग के सदस्य हैं। अत्यंत मृदु भाषी व मेहनती युवक। वे उस इस्लाम धर्म के नुमायंदे हैं जो अल्लाह का इस्लाम है, तथाकथित मुल्ला का नहीं इसलिये जब तक इनके मित्रों व साथियों को भोजन प्राप्त नहीं हो जाता, इनके गले से निवाला नहीं उतरता। वे इस बात से अत्यंत दुखी हैं कि उनके पड़ोस में भी ऐसे कई लोग होंगे जिन्हें कोरोना की वर्तमान त्रासदी के चलते भर पेट भोजन नहीं मिल पा रहा होगा और वे स्वयं को सुरक्षित रखते हुये ऐसे लोगों की हर संभव सहायता करने में व्यस्त हेैं।

प्रिय अरशद, मेरी समझ में आपका महान् धर्म किसी मुल्ला या मौलवी से नहीं, आप जेैसे नेकदिल इंसानों से ही कायम है। राष्ट्र कवि मैथिली शरण गुप्त ने तो लिखा भी है, “यही पशु प्रवृत्ति है जो आप-आप ही चरे, वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिये मरे।” हमें आप पर गर्व हेै प्रिय अरशद।

हमारे लिटिगेशन विभाग के सदस्य एडवोकेट आनंद राय एक वरिष्ठ अधिवक्ता हेैं और सदैव उत्साह से भरे रहते हैं। आनंद अत्यंत संवेदनशील व प्रकृतिप्रेमी हैं। कोरोना की इस त्रासदी को वे किस दृष्टि से देखते हैं, आइये, उन्हीं के शब्दों में जानें,-“आज सम्पूर्ण विश्व एक अत्यंत विचित्र एवं भयावह स्थिति से गुजर रहा है। आज का प्रत्येक प्राणी विशेषकर ‘मनुष्य’ हर एक दूसरे मनुष्य के लिए ‘अछूत’ सा बनकर रह गया है। हमारे भारत में सैकड़ों वर्ष पूर्व यह एक  कुरीति हुआ करती थी जिसने समाज को सवर्ण व अछूत, दो हिस्सों में बाँट दिया था। उन रुढियों व कुरीतियों का दमन उस समय के महान समाज सुधारकों की अटूट लगन व परिश्रम का ही परिणाम है लेकिन आज हमें उसी ‘अछूत’ जैसी बुरी चीज़ को अपनी मानव सभ्यता को बचाने के लिए अपनाना पड़ रहा है, किंतु आज का यह अछूतापन और कुछ नहीं, हमारे कृत्रिम रूप से अत्यधिक विकसित हो जाने का परिणाम है। ऐसा विकास किस काम का जिसका उपयोग व उपभोग स्वयं विकासकर्ता मनुष्य के लिए दुष्कर हो जाये। विकास की कोई चरम सीमा नहीं है क्योंकि विकास हमारी असीम व अमर्यादित महत्वकांक्षाओं पर निर्भर है। यदि हमारी महत्वाकांक्षायें सीमित हैं तो विकास की गति धीमी हो सकती है किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि मनुष्य अपनी मर्यादाएं ही लांघ जाये। हम विकास के नाम पर वही कहावत चरितार्थ कर रहे हैं की हम जिस डाल पर बैठे हैं, उसी डाल को काट रहे हैं। कहने का अर्थ यह है कि हम विश्व में सबके सिरमौर बनने की चाह में प्रकृति का अप्राकृतिक रूप से दोहन कर रहे हैं। हम प्रकृति के साथ अमर्यादित हो गये हैं  और प्रकृति न्यूटन के ‘क्रिया-प्रतिक्रिया’ के सिद्धांत के रूप में हमसे बदला लेकर हमारी आँखें पूर्णरूप से खोल कर सचेत कर देना चाहती है। हम आने वाली पीढी के लिए विकास करना चाहते हैं किन्तु यदि हम विकास के नाम पर विनाश की उन्नति यूँ ही करते रहे तो हमारी भावी पीढी इक्कीसवीं व बाईसवीं सदी में न जाकर सैकड़ों वर्ष पीछे लौट जायेगी।”

आपने बिल्कुल सच कहा है आनंद। पूरी सृष्टि प्रकृति की ही देन हेै। हम प्रकृति से जितना दूर जायेंगे, उतना ही विनिष्ट की संभावनायें जन्म लेंगी। वर्तमान की परिस्थितियों के परिपेक्ष्य में आपका संदेश निश्चित रूप से अनुकरणीय है।

हमारे एक्सीक्यूशन विभाग के सदस्य प्रिय रिज़वान हैदर की दृष्टि में ईमान ही धर्म है। देखिये तो, भला वे क्या कहते हैं -“ये हालात डर और घबराहट के हैं। लेकिन यह भी सोचता हूँ कि मैं तो घर पर हूँ तो भला मुझे इतना डर क्यों लग रहा है‌ जबकि मुझे किसी परेशानी का सामना नहीं करना पड़ रहा हेै। अब मुझे समझ आता है कि यह डर हमें यह बताता हेै कि हम अपनी ज़िंदगी से कितना प्यार करते हेैं। दिल में यह भी ख़याल आता है कि जो इस खतरनाक बीमारी के शिकार हुये हेैं, उनका इलाज करने वाले डाक्टर्स भी तो इंसान हैं। क्या उन्हें इस बीमारी से डर नहीं लगता? लोग कहते हैं कि खुदा के इंसान में इंसानियत नहीं बची। यहाँ हर कोई जी रहा है खुद के लिये। इन डाक्टर्स को क्या अपनी ज़िंदगी से कोई मोहब्बत नहीं? नहीं, ऐसा नहीं है शायद। वे शायद दिखा रहे हैं कि जिस ज़िंदगी को ऊपर वाले ने इतनी मोहब्बत व खुशी से बनाया है, वह इतनी सस्ती नहीं है कि उसे ऐसे खत्म होने दिया जाये। इसी के लिये वे अपनी जान की बाज़ी लगाये हुये हैं और वे साबित कर रहे हैं कि जब तक इंसान है, तब तक इंसानियत ज़िंदा रहेगी। इस वक़्त जब हम अपने घरों में मौत से घबराये बैठे हैं, उस वक़्त भी ये डाक्टर्स ही हैं जो शायद मौत के फ़रिश्तों को देख कर व उनके बार-बार बुलाने पर भी अपने जाने-पहचाने अंदाज़ में कहते होंगे, ‘बस, ज़रा एक मरीज़ और देख लूँ।’ इस सन्नाटे में अगर कोई गूँज है तो वह अपनी ज़िम्मेदारी निभाते डाक्टर्स, नर्सेस व चिकित्सीय सेवकों की ही हेै। हम ऐसे कठिन समय में उनकी भले कोई और मदद कर सकें या नहीं पर इतना तो ज़रूर कर सकते हैं कि हम उनकी सलाह मान कर घर में महफूज़ रहें और उनको भी महफूज़ रखें।”

प्रिय रिज़वान, सच कहूँ तो तुम्हारे इस खूबसूरत ख़याल को पूरी श्रृद्वा व अदब से सिर झुकाने का मन कर रहा है। कौन कहता है कि ईश्वर धरती पर नहीं आता। कृष्ण ने तो गीता में स्पष्ट कहा है कि जब-जब धरती पर धर्म को क्षति पहुँचेगी, मैं किसी न किसी रूप में धरती पर आऊंगा। इस वैश्विक विनाश के संकट में अल्लाह हज़ारों डाक्टर्स, नर्सेस व चिकित्सीय सेवकों के रूप में हमारी धरती पर हमारी आँखों के सामने उपस्थित है। वे मनुष्यता को मरने नहीं देंगे।

क्रमशः ….

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