कोरोना वायरस : त्रासदी में शगुन-2

तरुण प्रकाश श्रीवास्तव , सीनियर एग्जीक्यूटिव एडीटर-ICN ग्रुप 

विश्व आज भयानक त्रासदी की ओर फिसल रहा है। हम सब संभव-अंसभव के मध्य खिंची महीन रेखा पर बार बार असंतुलित होते संतुलन को बनाये रखने के अथक प्रयास में जी जान से लगे हैं।

शारीरिक विश्राम व मानसिक उत्थान का समय

दिशाहीन होकर जानवरों के झुंड के समान भागने में न‌ केवल हमने अपनी क्षमताओं को नष्ट किया है बल्कि हमारी रचनात्मकता भी गंभीर रूप से क्षतिग्रस्त हुई है। हमारी शक्ति, बल व क्षमता का दिशाहीन होकर व्यय हो जाना न केवल हमारे लिये दुर्भाग्यपूर्ण है वरन् यह समाज के लिये भी अत्यंत विचारणीय है। हम सब जानते हैं कि हमारे शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य में यथोचित विश्राम का भी अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान है। यह विश्राम न केवल हमारी क्षमताओं का पुनः जीर्णोद्धार करता हेेै वरन् हमारे अंदर कुछ नवीन क्षमताओं के समावेश की संभावनायें भी‌ उपस्थित करता है। हमारा यह ‘रुकना’ मात्र अपने स्थान पर कुछ देर के लिये ठहर जाना नहीं है बल्कि हमारी अगली ‘और लंबी छलांग’ हेतु ऊर्जा संचयन का क्षण भी है। यह शारीरिक विश्राम व मानसिक उत्थान का भी समय है।

पर्यावरण की स्वत: मरम्मत

आप स्वयं ही अनुभव कर रहे होंगे कि पिछले दिनों में प्रकृति की हमारी अनियमित व अत्यधिक शोषण प्रवृत्ति ने पर्यावरण को तार तार कर दिया था। ओज़ोन की पर्त का क्षतिग्रस्त होना मानवीय जीवन के लिये एक चुनौती बन गया था। प्रत्येक नगर में प्रदूषण के अकल्पनीय स्तर ने पर्यावरण को गंभीर रूप से अस्वस्थ किया था और जीवनदायिनी प्राकृतिक हरियाली झुलसने लगी थी। गीत गाते और वातावरण में स्वर्गिक संगीत गुंजित करते हमारे रंग बिरंगे पंछी मित्रों ने हमसे कभी न मिटने वाली दूरी बना ली थी। और तो और, हमारी बाल पीढ़ी तो उन पंछियों को मात्र चित्रों में ही देख पाती थी। हमारे अंधाधुंध भागते हुये कदम क्या रुके और वाहनों के जानलेवा गति से घूमते हुये पहिये क्या जाम हुये, हमारे मित्र पंछी फिर हमारी दुनिया को अपने गीत-संगीत से परिपूर्ण करने वापस लौट आये हैं। हमें संभवतः पता ही नहीं था कि जिस दिन हमने अपने कृत्रिम जीवन के पहियों को कुछ समय के लिये रोका, प्राकृतिक जीवन का आनंदमयी चक्र स्वत: ही चलने लगेगा। यह समय प्रकृति के अनुपम श्रृंगार को भी अनुभव करने का समय है।

वसुधैव कुटुम्ब की अनुभूति

जब हमारी समस्या व्यक्तिगत होती है, तब हमारी अनुभूति व्यक्तिगत ही होती है किंतु जब हमारी समस्या वैश्विक होती है तब हमारी अनुभूति भी वैश्विक हो जाती है। आज से पूर्व हम सब मात्र अपने आप अथवा अपने सीमित समाज तक ही सीमित‌ थे किंतु आज का ‘रुका हुआ यह दुर्लभ क्षण’ हमें अपने आप में वैश्विक होने की अनुभूति प्रदान कर रहा है। आज हमारा‌ मानस पटल वैश्विक संवेदनाओं व समझ को‌ वैयक्तिक रूप से समायोजित कर रहा है। आज हम मात्र नगरीय, प्रांतीय अथवा राष्ट्रीय नागरिक ही नहीं रह गये हैं वरन् हमें अपने ‘वैश्विक नागरिक’ होने की एक सकारात्मक अनुभूति हो रही है। आज सारा विश्व एक वैश्विक आपदा से कंधे से कंधे मिला कर आर पार की जंग लड़ रहा है। आपदा का यह समय हमारे व्यक्तित्व में ‘वह सब’ अनायास ही जोड़ रहा है जो सामान्य परिस्थितियों में सायास भी नहीं जोड़ा जा सकता है। आज हम महसूस करते हैं कि हमारी भारतीय संस्कृति का ‘वसुधैव कुटुंबकम’ विचार मात्र एक काल्पनिक विचार ही नहीं वरन् संपूर्ण विश्व की सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता है।

आर्थिक आंकड़ों के सुधारीकरण का शिल्प

यह समय धन के विज्ञान को भी भलीभांति समझने का है। कुछ दिनों के लॉकडाउन के दौरान समान्यत: आपने महसूस किया होगा कि आपके दैनिक व्यय आश्चर्यजनक रूप से कम हो गये हैं और आपकी मूल आवश्यकताओं की पूर्ति फिर भी हो रही है। इसका अर्थ यह है कि हम सामान्य दिनों में निश्चित रूप से बड़े पैमाने पर ऐसे व्यय भी कर रहे थे जो हमारे अस्तित्व की अनिवार्यता के क्षेत्र से बाहर थे। हो सकता है कि कुछ लोगों को इस समय भी कुछ आर्थिक कठिनाइयाँ आ रही हों तो उनके लिये भी यह समय विगत में उनके द्धारा अपने आर्थिक समीकरणों के पूर्ण साक्षीभाव से आंकलन का समय है। उनकी ‘वर्तमान आर्थिक कठिनाइयाँ’ उनकी ‘अतीतगत आर्थिक नासमझी’ का ही परिणाम है। अाप स्वयं सोचिये, यदि हमारी सरकार ने पहले से ही अपने आर्थिक स्रोत व आपदा कोष विकसित न किये होते और उनका आवश्यकतानुसार विवेकपूर्ण ढंग से प्रयोग न किया होता तो आज हमारा देश व हम‌ किस स्थिति में होते? मैं सदैव मानता हूँ कि हममें से प्रत्येक अपनी आवश्यकता से अधिक कमाता है। क्योंकि यदि हम अपनी अस्तित्व की अनिवार्यता की दृष्टि से कम अर्जित कर रहे होते तो हम जीवित ही नहीं रहते और यदि हम अपनी तथाकथित अल्प आय में भी जीवित हैं तो इसका एक ही अर्थ है कि‌ हमारे पास कुछ ‘अतिरिक्त आय’ भी है। अब यक्ष प्रश्न यह है कि हमने अपनी इस अतिरिक्त आय का क्या किया। निश्चित रूप से हममें से अधिकांश ने इसे ‘न तो आवश्यक और न ही अपरिहार्य’ वस्तुओं व सेवाओं पर मात्र ‘तथाकथित जीवन शैली’ अथवा ‘क्षणिक तुष्टि’ की अनावश्यक भेंट चढ़ा दिया और आज असली आवश्यकता सामने आने पर वे सरकारी व्यवस्था को दोषी ठहराते हुये अनर्गल विलाप कर रहे हैं। इस लॉकबंदी के समय में घर से बाहर निकलने की पूर्ण निषेधता के दौरान भी ‘रोज़ कमाओ रोज़ खाओ’ जैसे अव्यावहारिक सिद्धांत के शिकार हजारों व्यक्ति अपने परिवार, पत्नी व छोटे छोटे बच्चों के साथ सैकड़ों किलोमीटर की पैदल यात्रा पर विवश हैं और पूरे राष्ट्रीय सुरक्षा अभियान में सेंधमारी कर रहे हैं। यह दृश्य किसी पाषाण ह्रदय को भी विचलित कर देने के लिये पर्याप्त है किंतु मात्र हमारी मानवीय संवेदनायें अथवा तात्कालिक सहायता इस ज्वलंत प्रश्न का उत्तर नहीं हो सकते हैं और न ही हम मात्र यह कह कर इस समस्या को पीठ दिखा सकते हैं कि केवल वही लोग उनपर कमेंट कर रहे हैं जिनके अपने स्वयं के पेट भरे हैं। यदि हम अपनी इस ‘अल्प किंतु अतिरिक्त आय’ के सफल प्रबंधन का गणित नहीं सीखते हैं तो जीवन के हर क्षेत्र में हमें नित्य ऐसे ही दृश्य देखने का अभ्यस्त होना ही पड़ेगा। आपके सम्पन्न व सुखी होने का मंत्र कभी इस बात में नहीं छिपा है कि ‘आप कितना और कैसे कमाते हैं’ बल्कि सदैव इस तथ्य में ही छिपा है कि ‘आप कितना और कैसे खर्च करते हेैं’। धन का विज्ञान छोटे छोटे बच्चों से लेकर वयोवृद्ध तक उतना ही आवश्यक है जितना किसी का जीवित रहने के लिये श्वांस लेना अथवा भोजन करना। हमारा वर्तमान समय चीख चीख कर घोषणा कर रहा है कि ‘धन का विज्ञान’ प्रत्येक व्यक्ति को प्राथमिक स्तर पर विद्यालीय शिक्षा में उसी तरह शामिल किया जाना चाहिए जैसे हिंदी विषय में ‘अ आ उ ऊ इ ई’ व अंग्रेज़ी विषय में ‘ ए बी सी डी’ शामिल है।

क्रमशः

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