भाजपा-कांग्रेस नहीं चुनाव में तो जनता ही हारती है….

राणा अवधूत कुमार
सासाराम। दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में लोकसभा की चुनावी प्रक्रिया अपने पूरे शबाब पर है। जिसमें सभी राजनैतिक दल अपने नफा-नुकसान के आधार पर चुनाव में लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने में जुटे हुए हैं। इस चुनावी महाकुंभ में भाग लेने के साथ-साथ उसे समझने की प्रक्रिया चलती रहनी चाहिए। आम लोगों का पूरा ध्यान सिर्फ सरकार बदलने व बनवाने में रहता है, लेकिन थोड़ा सा ध्यान हमें उन कारणों पर देना चाहिए जो राजनीति को तय करते हैं। या यूं कहे कि किन बिंदुओं पर सियासी रणनीतियां बनती हैं। मुद्दे बनते हैं जो लोकमानस को प्रभावित करते हैं। जिनके कारण राजनीतिक बदलाव संभव होने की उम्मीदें बनती हैं।अशोका यूनिवर्सिटी के सहायक प्राध्यापक प्रो. जिल्स वर्नियर ने इस संबंध में एक रिसर्चनुमा लंबा सा लेख लिखा है।यह लेख हमें समझने में मदद करता है कि मौजूदा सियासत में उस  ज़मीन पर एक राजनीतिक कुलीन वर्ग पैदा हो गया है। वर्नियर अपने इस आलेख में इन्हें पारंपरिक कुलीन कहते हैं। पारंपरिक कुलीन वर्ग राजनीति को शुरू से प्रभावित करती रही है।
अब हमें समझना है कि पारंपरिक कुलीन बनते कैसे हैं। ज़ाहिर है सवर्ण जातियों से। दूसरा ज़िलों और कस्बों में योजनाओं की ठेकेदारी, व्यापार, प्राइवेट स्कूल, कॉलेज, अस्पताल, मार्केट व ज़मीन के धंधे से अमीर होने में पहली बाज़ी मारने से होती है। इस तरह आज़ादी के बाद भी संसाधनों पर नियंत्रण की प्रक्रिया में ऐसे लोग आगे रहे। स्थानीय स्तर पर आप देखेंगे कि यहीं वह कुलीन वर्ग है जो कभी इस दल से उस दल में जाकर कुछ समय के लिए अपना ठिकाना बनाता है। जिसे सिवाए थोड़ा मान-सम्मान के अलावे कुछ नहीं मिलता है। पहले वह कांग्रेस में था। अब उसने बीजेपी में सुरक्षित ठिकाना बना लिया है. इनके कई तरह के अवैध-वैध हित होते हैं। स्थानीय स्तर पर सामाजिक कार्यों के दिखावे से अपना नाम बनाए रखते हैं। यही लोग टिकट देने-दिलाने या यूं कहे कि सत्ता दिलाने में योगदान देते हैं। हालांकि सच्चाई इसके ठीक उलट है. कारण कि देश के दोनों बड़े राष्ट्रीय दल सवर्णों को अपना कहार बनाने में पीछे नहीं रहते हैं. और सवर्णों को भी कहार बनने में कभी कोई शिकायत नहीं रहती है. पहले कांग्रेस की और अब बीजेपी की.
कांग्रेस और बीजेपी दोनों प्रमुख पार्टियां इन पारंपरिक कुलीनों का बखूबी इस्तमाल करती हैं. ये उन्हें चुनाव जीता कर उसे सत्ता देते हैं और जीत कर कांग्रेस-बीजेपी इनके बल पर ही अपनी सियासत चमकाती हैं। इसलिए सांसदों को हराने या जीता देने से हालात में कोई फर्क नहीं पड़ता है। क्योंकि इनके हित जनता से नहीं जुड़े होते हैं. एक और चीज़ पर ग़ौर करना चाहिए। अगर आप और करीब से देखेंगे तो पता चलेगा कि हर दल में रहने के कारण सर्वण जातियों के नेताओं व उम्मीदवारों की अहमियत समाप्त हो गई है. जनता भी कहने लगी है कि हमें उम्मीदवार से मतलब नहीं है. मोदी के चेहरे से मतलब है. हर जगह केवल मोदी का चेहरा हैं. उम्मीदवार का नहीं। इस तरह चुनावी जीत में भले ही उम्मीदवार गौण हो गया है मगर संसाधनों पर नियंत्रण और उनके विस्तार की प्रक्रिया में वह अभी भी महत्वपूर्ण है. वह चुनाव मोदी के नाम पर जीत रहा है, मगर काम अपना कर रहा है। जनता का दुर्भाग्य है कि सांसद अपने काम की बदौलत नहीं प्रधानमंत्री के नाम पर जीत रहा है. सवर्ण समाज के लोगों की स्थिति आज के परिप्रेक्ष्य में यहीं हो गई है कि वे भाजपा के कहार बन गए हैं. विपक्ष के लोग यह मानते हैं कि सवर्ण समाज भाजपा को ही वोट करेगा। यदि नहीं भी करता है तो उसका नुकसान ही है.
दिसंबर में देश के तीन राज्यों में भाजपा की हार के बाद सवर्णों को दस प्रतिशत आरक्षण देने की घोषणा कर पीएम मोदी ने एक मास्टर स्ट्रोक खेला। जिसका असर इस चुनाव में निश्चित रूप से पड़ेगा। एक ताजा शोध में पता चला है कि बीजेपी के उभार से 2019 में सवर्णों का प्रतिनिधित्व 32.4 प्रतिशत से बढ़कर 42.7 प्रतिशत हो गया है. इसी तरह हरियाणा विधानसभा में जाट और सवर्णों का प्रतिनिधित्व 52 प्रतिशत से बढ़कर 62 प्रतिशत हो गया है. असम विधानसभा में 47 प्रतिशत विधायक सवर्ण हैं। दो में से एक विधायक सवर्ण है. यहां तक कि जिन राज्यों में बीजेपी ने अच्छा प्रदर्शन नहीं किया है वहां पारंपरिक कुलीन वर्ग ने विधानसभाओं में अपनी बढ़त बनाए रखी है। बिहार में बीजेपी के 54 फीसदी विधायक सवर्ण हैं। जबकि पूरी विधानसभा में सवर्णों का प्रतिनिधित्व 21 प्रतिशत है। राजस्थान में 57.6 प्रतिशत विधायक प्रभुत्व रखने वाली जातियों के हैं. मध्य प्रदेश में इनका प्रतिशत 53 प्रतिशत है.
जहां सवर्ण पारंपरिक कुलीन हैं, वहां इनका वर्चस्व है जहां ओबीसी व अन्य जातियां पारंपरिक कुलीन हैं वहां बीजेपी ने उन्हें प्रभुत्व दिया है, प्रतिनिधित्व दिया है। गुजरात में 51 प्रतिशत बीजेपी विधायक पाटिदार हैं। कांग्रेस में मात्र 34.6 प्रतिशत। एक तरह से देखिए तो दोनों दलों में इन्हीं का वर्चस्व है। बीजेपी भले कहती है कि वह उन जातियों का प्रतिनिधित्व देती है, जिसे जिन्हें सपा बसपा या अन्य दलों में प्रतिनिधित्व नहीं मिला मगर आंकड़े कुछ और कहते हैं। उसकी समावेशी या सबको साथ लेकर चलने की राजनीति उसी पारंपरिक कुलीन को लेकर चलने की है जो यथास्थिति का निर्माण करता है। यही कारण है कि इन तबकों में बीजेपी को लेकर या मोदी मोदी का शोर ज़्यादा सुनाई देता है। 2017 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी ने टिकटों के बंटवारे में 48.2 प्रतिशत टिकट सवर्णों को दिया। ओबीसी और जाट उम्मीदवारों को 31.2 प्रतिशत। इस 31.2 प्रतिशत में से दो तिहाई जाट, यादव, कुर्मी और गुर्जर को दिया। बाकी हिस्से में निषाद, राजभर, कुशवाहा, लोध जैसी जातियों को टिकट मिला। कांग्रेस ने 35 प्रतिशथ टिकट सवर्णों को दिया था।
 क्या सिर्फ बीजेपी ऐसा करती है? नहीं। पूरे भारत में यही ट्रेंड है। जहां का स्थानीय और पारंपरिक कुलीन है राजनीति में उसका वर्चस्व है। यह कुलीन जाति से बनता है। उस जाति से जिसका संसाधनों पर पहला अधिकार होता है। बीजेपी और कांग्रेस दोनों यही फार्मूला अपनाते हैं। ओबीसी और दलित राजनीति के उभार से सवर्णों का प्रभुत्व घटा था। मगर बीजेपी के इस फार्मूले से उनकी वापसी हुई है। पिछड़ी जाति के नेता के तौर पर प्रधानमंत्री मोदी के उभार का लाभ इस पारंपरिक कुलीन को मिला है जो हिन्दी भाषी राज्यों में प्रमुख रूप से सवर्ण है। लाभ तो जाति को मिला है मगर गुणगाण धर्म और राष्ट्रवाद का करते हैं ताकि इसी की आड़ में सवर्ण अपनी वापसी कर चुके हैं.
इसका नुकसान यह होता है कि बीजेपी और कांग्रेस में दूसरी जातियां झोला लेकर ढोती रह जाती हैं उन्हें प्रभुत्व नहीं मिलता है। यही पारंपरिक कुलीन राष्ट्रवाद के नाम पर अपने लिए वोट हड़प लेगा लेकिन इसके नाम पर अपना वोट या संसाधन उसी पार्टी के टिकट से कम प्रभुत्व वाली जाति के मगर सबसे योग्य उम्मीदवार को नहीं देगा ताकि वह जीत सके। कई दशक बाद पारंपरिक कुलीनों की राजनीति में वापसी हुई है। यही कारण है कि आर्थिक मोर्चे पर मोदी सरकार के फेल होने के बाद भी यह कुलीन अपने हाथ आए मौके को जाने नहीं देना चाहता। वह पूरी तरह से मोदी से जुड़ा हुआ है। क्योंकि उसे पता है कि मोदी नहीं आए तो वह बिखर जाएगा। पहले उसे अन्य जातियों के प्रति नफ़रत ज़ाहिर करने में संकोच नहीं होता था, अब उसे ज़रूरत महसूस नहीं होती। राष्ट्रवाद या सांप्रदायिक मुद्दों के नाम पर बहला फुसला कर उसने अपना वर्चस्व कायम कर लिया है।
सबसे खास बात यह है कि समर्थकों का राजनीतिक दल के भीतर सीधे कोई दखल नहीं होता है. राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों में कार्यकर्ता की कोई भूमिका नहीं होती है. यही कारण है कि राजनीति में नया नेतृत्व नहीं उभर कर सामने आ रहा है. पारंपरिक कुलीन इतने मज़बूत हो गए हैं कि बिना इनके गठजोड़ के आप जीत नहीं सकते और इनके बाहर का कोई उम्मीदवार नहीं हो सकता है. दल कोई भी है, उम्मीदवार उठाने का जो समूह है वह सीमित है और वह एक समान है. जिसका एक परिवार का सदस्य बीजेपी में है और एक कांग्रेस में. आप बीजेपी या कांग्रेस को हराते हैं लेकिन आप पारंपरिक कुलीन को नहीं हरा पाते। किसी मसले को ध्यान से देखे तो भाजपा और कांग्रेस की नीतियों में बड़ा फर्क नज़र नहीं आएगा। फिर चाहे वह व्यापार नीती हो, कृषि नीति हो या कूटनीति या फिर विनिवेश और आर्थिक मोर्चे पर  बनने वाली ठोस नीतियां, इन सबमें कोई ख़ास अंतर नहीं दिखता। जनता को बेवकूफ बनाने के लिए थोड़ी-बहुत पेंट-पॉलिश की जाती है लेकिन वस्तुतः मूल नीतियां अमूनन एकसमान ही होती है. चुनाव कभी हो, लोकसभा या विधानसभा के हो, इसमें कांग्रेस-बीजेपी कभी नहीं हारती है, हारती है तो सिर्फ देश की जनता। कांग्रेस के राज़ में भी यही हालत थी और भाजपा भी कमोबेश उसी राह पर चल रही है.

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