By: Dr. Ripudaman Singh, Asstt. Editor-ICN & Hemant Kumar, Special Correspondent-ICN
कृषि देश के 69 प्रतिशत लोगों की आजीविका का साधन उपलब्ध कराती है। देश के सकल घरेलू उत्पाद में 21 प्रतिशत व कुल निर्यातों में 11 प्रतिशत का योगदान कृषि क्षेत्र का है। यह देश के औद्योगिक व सेवा क्षेत्र को सुदृढ़ आधार प्रदान करती है। यद्यपि देश के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का हिस्सा वर्ष 1950-51 में 55.4 प्रतिशत के उच्चतम स्तर से घटकर 2004-05 में 21 प्रतिशत रह गया है, तथापि इसी दौरान कृषि पर निर्भर जनसंख्या में अत्यधिक वृद्धि हुई है। 1950-51 में 75 प्रतिशत जनसंख्या (27 करोड़) कृषि पर निर्भर थी, जबकि आज यह जनसंख्या प्रतिशत में भले ही घटकर 69 प्रतिशत हो गई हो, लेकिन वास्तविक जनसंख्या बढ़कर 72 करोड़ हो गई है। बढ़ती जनसंख्या निरंतर, छोटी होती जोत, खेती की बढ़ती लागत, सूखा व बाढ़ का प्रकोप, कृषि क्षेत्र में कम होते निवेश आदि कारणों से खेती घाटे का सौदा बन गई है।
एक ओर छोटे व सीमांत किसानों की संख्या में वृद्धि हुई तो दूसरी ओर खेती की लागत बढ़ जाने से अधिकांश किसान कर्ज के बोझ तले दब गए। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन ने 2003 में पहली बार ग्रामीण भारत पर बढ़े कर्ज का विस्तृत अध्ययन किया। इसके अनुसार देश के 48.60 प्रतिशत किसान कर्ज के बोझ तले दबे हैं और प्रत्येक किसान पर औसतन 12,585 रूपए कर्ज है। विडंबना यह है कि यह समस्या बिहार, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश जैसे पिछड़े राज्यों में न होकर प्रगतिशील कहे जाने वाले आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, पंजाब, तमिलनाडु केरल जैसे राज्यों में अधिक है। इन राज्यों 60 प्रतिशत से अधिक किसान परिवार कर्ज में डूब चुके हैं। सर्वेक्षण के अनुसार गा्रमीण क्षेत्रो में कर्ज का बोझ उन राज्यों में तेजी से बढ़ा है जो व्यावसायिक (नकदी) खेती की ओर बढ़े हैं। इन राज्यों 1997 से ही कृषकों की आत्महत्या का एक अभूतपूर्व सिलसिला चल पड़ा है। व्यावसायिक खेती की कई विशेषताएं हैं। पहली यह कि यदि इस खेती में किसान को पैसा अधिक मिलता है तो उसकी लागत भी बढ़ जाती है।
सिंचाई, बीज, रासायनिक उर्वरक, कीटनाशक, डीजल, बिजली आदि का खर्च बहुत अधिक हो जाता है। इससे अधिकांश किसानों के लिए कर्ज लेना अनिवार्य हो जाता है। संस्थागत स्रोतों से कर्ज न मिलने पर किसान निजी साहूकारों से ऊँची ब्याज दर (कभी-कभी 30-40 प्रतिशत) पर कर्ज लेते हैं। दूसरी बात यह है कि वैश्वीकरण के इस युग में कृषि व्यापार का स्वरूप भी अंतराष्ट्रीय होता है। फलतः फसल की कीमतों में तेजी से उतार-चढ़ाव होते रहते हैं। प्रायः यह देखा गया है कि जब किसान की फसल बाजार में आती है तो कीमतें गिर जाती है और बाद में कई गुना तक बढ़ जाती है। उदाहरण के लिए छत्तीसगढ़ के जिस टमाटर को जनवरी-फरवरी 2006 में खरीददार नहीं मिल रहे थे वही टमाटर दिल्ली में जनू-जुलाई 2006 में 35-40 रूपए प्रति किलोग्राम बिका। कीमतों के इस उतार-चढ़ाव का लाभ बड़े व्यापारी व बिचौलिये उठाते हैं। विश्व व्यापार संगठन और एशियाई देशों के साथ अनियंत्रित द्विपक्षीय आयात के कारण भारतीय कृषि गहरे संकट में फँसती जा रही है।
खाद्य तेल, दुग्ध उत्पाद, मसाले, चाय, कॉफी आदि के आयात से किसानों का हित प्रभावित हो रहा है। 1997 से 2004 के दौरान भारत में कृषि आयात परिमाण में 270 प्रतिशत और मूल्य में 300 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। व्यावसायिक खेती और उससे उत्पन्न संकट की तीसरी विशेषता है कि यह विविधता की दुश्मन और विशिष्टकरण की पूजक है। पहले किसान मिश्रित फसलें बोता था और एक फसल की सैकड़ो किस्में होती थी। एक फसल नष्ट हुई तो दूसरी बच गई। परम्परागत देशी किस्मों में प्राकृतिक प्रकोपों का प्रतिरोध करने की क्षमता भी अधिक थी। अब कृषि की विविध गतिविधियों का स्थान चुनिंदा फसलों की कुछेक संकर किस्मों ने ले लिया है।
1991 में शुरू की गई आर्थिक उदारीकरण की नीतियों ने भी कृषि संकट को गहरा किया है। निगम क्षेत्र को प्रमुखता मिलने से कृषि व ग्रामीण विकास उपेक्षित हुआ। भारतीय खेती में आए इस बहु आयामी संकट को दूर करने के लिए कृषि प्रणाली और बाजार में प्रभावी हस्तक्षेप की आवश्यकता है। सबसे पहले कृषि एवं ग्रामीण जीवन में विविधता लाई जाए। फसल की विविधता के साथ-साथ पशुपालन, मुर्गी, भेड़ एवं मत्स्य पालन, मशरूम उत्पादन व कृषि वानिकी जैसी गतिविधियों को बढ़ावा दिया जाए। कटाई के उपरान्त होने वाली क्षति को भी रोकने की जरूरत हैं। फसल कटने से लेकर बाजार तक ले जाने में फसल की बड़ी बर्बादी होती है। फल और सब्जी में एक तिहाई बर्बादी होती है। एक आकलन के अनुसार आस्ट्रेलिया में जितना कुल उत्पादन होता है उतना भारत में बर्बाद होता है।