सुरेश ठाकुर
विश्व गुरु होने का दवा करता भारत जहाँ धार्मिक आध्यात्मिक आश्रमों, संदेश और शिक्षा प्रदाताओं की भरमार है | आपसी प्रेम, सद्भाव, सदाचार और पाप/पुण्य की व्याख्या करते अनेक पर्व हैं |
नैतिकता, सदाचार और धर्म की शिक्षा देती पुस्तकों से दुकानें और पुस्तकालय पटे पड़े हैं | फिर भी अपराध और भ्रष्टाचार की सूची में हमारा स्थान विश्व के शीर्ष देशों में है | देश के पुलिस स्टेशन गंभीर अपराधों की आख्याओं से भरे पड़े हैं (बावजूद इसके कि वे अपराधों की रिपोर्ट दर्ज करने में उत्साह नहीं दिखाते ) | जेलें ओवर लोडेड हैं, अदालतें ओवर लोडेड हैं | ये स्थिति है ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना ‘मनुष्य’ की दुनिया की | चिन्ता और चर्चा हो रही है – पुलिस और पुलिस स्टेशन्स को हाईटेक बनाने की | जेलों की क्षमताओं को बढ़ाने की | अदालतों और जजों की संख्या बढ़ाने की | विचारणीय प्रश्न है कि क्या ये अंतिम विकल्प बचे हैं हमारे सामने | क्या ये अन्तिम समाधान हैं | विवेक, समझदारी और बुद्धि की अकूत सम्पदा के स्वामी ‘मनुष्य” के लिए क्या वास्तव में आवश्यकता है पुलिस, जेलों अथवा अदालतों की ? क्या ये वाह्य शक्तियां अपरिहार्य हैं ‘मनुष्य’ के नियंत्रण के लिए ? क्या उसके आंतरिक नियंत्रण तंत्र ने काम करना बंद कर दिया है ? मुझे लगता है कि मनुष्य के आंतरिक नियंत्रण तंत्र को संकल्प के साथ प्रभावी तरीके से क्रिया शील बनाए जाने की आवश्यकता है | चिकित्सा अपनी जगह है और रोग के प्रति सजगता और सावधानी अपनी जगह | इसके लिए जरूरी है कि मनुष्य को ‘जीने की कला’ का प्रशिक्षण दिया जाए, बावजूद इसके कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में ये लोगों को व्यावहारिक नहीं लगती | कारण है, दुनिया का ‘बाज़ार’ के रूप में बदल चुका होना | और सोने पर सुहागा ये कि प्रतिस्पर्धा ने दुनिया के बाज़ारीय स्वरूप को और विकृत कर दिया है | स्थिति को इतना नियंत्रित रहने की आवश्यकता तो है ही जहाँ लोग यह एहसास करने लगें कि वे और उन जैसे दूसरे ‘मनुष्य’ बाज़ार से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हैं |