शरद पवार ने विपक्षी एकता की दिशा में गंभीर शुरुआत कर दी है। संसद में ऐसे प्रयास कभी मजबूत होते दिखे हैं तो कभी उनकी कमजोरी सामने आती रही है।
कर्नाटक में कांग्रेस और जनता दल (सेक्युलर) की साझा सरकार के शपथ ग्रहण के मौके पर विपक्षी नेताओं की एक मंच पर मौजूदगी भी अच्छा दृश्य उपस्थित कर रही थी। लेकिन ठोस राजनीति की नजर से देखने पर ऐसी घटनाओं का प्रतीकात्मक महत्व ही बनता है। अगले कुछ महीनों में होने वाले आम चुनाव को ध्यान में रखें तो वहां क्षेत्रीय दलों को खुलकर मोदी सरकार के खिलाफ जाने से होने वाले नफे-नुकसान का जायजा लेना है, एक-एक सीट पर बराबर के दावेदारों में एक को हां और दूसरे को ना कहना है, सत्तारूढ़ दल के बरक्स देश को एक कारगर विकल्प का एहसास कराना है, और शीर्ष स्तर पर एक-दूसरे से टकराती महत्वाकांक्षाओं में संतुलन भी बनाना है। इस लिहाज से कांग्रेस की तरफ से अबतक कोई खास पहल नहीं हो पाई है लिहाजा इस दिशा में शरद पवार की शुरुआत ने उसका सिरदर्द थोड़ा कम किया होगा।कांग्रेस नेतृत्व शायद इस मुगालते में है कि राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और संभवत: मिजोरम के विधानसभा चुनावों में भी उसका पलड़ा भारी दिख रहा है, लिहाजा विपक्षी एकता की बातचीत इन राज्यों के चुनाव नतीजों की रोशनी में ही शुरू की जाए। लेकिन इस सोच में अपनी गर्दन सरकार के हाथ में देने का पहलू भी मौजूद है। लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने की स्थिति में यह गणित बिल्कुल काम नहीं आएगा और बीजेपी की ताकतवर चुनावी मशीनरी का सामना फिलहाल राष्ट्रीय स्तर पर उससे काफी कमजोर दिख रही कांग्रेस को अकेले ही करना पड़ेगा। शरद पवार को इस परेशानी का अंदाजा है, लिहाजा उन्होंने कई काम एक साथ शुरू किए हैं। राज्य स्तरीय तालमेल के तहत कांग्रेस और एनसीपी के बीच महाराष्ट्र में लोकसभा और विधानसभा सीटों के बंटवारे पर बातचीत शुरू होने जा रही है। खुद पवार अगले पखवाड़े तमाम विपक्षी दलों से बात शुरू करेंगे। और देश के वैचारिक-राजनीतिक विभाजन का एक खाका उन्होंने खींच ही दिया है। चुनाव के नतीजे जो भी हों, पर शरद पवार के आगे आने भर से विपक्ष लड़ाई में आता दिखने लगा है।