तरुण प्रकाश, सीनियर एग्जीक्यूटिव एडीटर-ICN ग्रुप
हे राष्ट्रपुरुष, हे दिव्य पुरुष,
युग-पुरुष तुम्हारी जय जय जय ।
हे धरापुत्र, हे कालपुत्र,
हे प्रेमपुजारी जय जय जय ॥१॥
ये वर्तमान, वे भावीक्षण,
इतिहास तुम्हारी जय बोले।
जन जन के मन में बसा हुआ,
विश्वास तुम्हारी जय बोले॥२॥
तुम अटल नीति के थे वाहक,
हर पीर तुम्हारी अपनी थी ।
हर चेहरे पर मुस्कान लिये,
तस्वीर तुम्हारी अपनी थी॥३॥
तुम हँसते थे, जग हँसता था,
अधरों पर जग मुस्काता था।
हर बार तुम्हारी आँखों से,
जग का दुख अश्रु बहाता था॥૪॥
सौ धर्म, हज़ारों वर्गों की,
धरती पर बोया राष्ट्र धर्म ।
गीता से उपजे हुये कृष्ण,
पग-पग पर सिंचित किये कर्म॥५॥
भारत की धरती से जग को,
हे शान्ति मंत्र देने वाले।
हे घृणा सिंधु में मानवता,
की नैय्या को खेने वाले॥६॥
हे पांचजन्य के उद्घोषक,
हे राष्ट्रधर्म के संवाहक।
हे मित्र भाव के ज्योतिपुंज,
हे प्रेम नेह के गुणगाहक॥७॥
तुम चले जिधर भी जननायक,
चल पड़ा देश उत्साहित हो।
जिस तरफ तुम्हारी दृष्टि पड़ी,
तम चमक उठा आलोकित हो॥८॥
हिन्दी की ज्योतिशिखा तुमने,
स्थापित विश्व पटल पर की।
भाषा का धुंधलापन छांटा,
आंखों में दिव्य दृष्टि भर दी॥९॥
तुम शत्रु देश, ले, मित्र रूप,
धर, समझौता संदेश गये।
केसर भारत का महका जब,
तुम बन कर मित्र विदेश गये॥१०॥
तुम सहज भाव से दुश्मन को,
भी गले लगाने निकले थे।
दशकों की नफरत पीड़ा की,
होलिका जलाने निकले थे॥११॥
लेकिन व्यक्तित्व विशद इतना,
कब भ्रमित दृष्टि पहचान सकी।
था क्षण इतिहास बदलने का,
मति मूढ़ मगर कब जान सकी॥१२॥
तुम विश्व पटल के नायक बन,
उभरे अद्भुत आकार लिये।
तुम स्वर्ग भूमि से उतरे थे,
मानवता का संसार लिये॥१३॥
की भूल समझने की दुश्मन ने,
मित्र भाव को कायरता ।
फिर दिखी कारगिल में उसकी,
नफरत, नादानी, निष्ठुरता॥१૪॥
फिर छिड़ा युद्ध था सीमा के,
हिम मंडित पर्वत शिखरों पर।
तुम तान भृकुटि हो गये खड़े,
फिर अग्निप्रलय मुट्ठी में भर॥१५॥
था देश तुम्हारे साथ खड़ा ,
मरने मिटने को सीमा पर।
भारत माता के रखवाले,
आतुर थे देने को उत्तर ॥१६॥
रच दिया देश की सीमा पर,
इतिहास विजय का फिर तुमने।
ऊँचा दुनिया में किया सदा,
पल पल भारत का सिर तुमने॥१७॥
हे पत्रकार, हे गीतकार,
हे नीतिकार,भारत गौरव।
तुम वंचित की उंगली थामे,
तुम दीन हीन के थे वैभव॥१८॥
था एक हाथ में शान्ति पुष्प,
थे दूजे में परमाणु लिये।
संतुलन शक्ति का था अनुपम,
तुम सदा देश के संग जिये॥१९॥
भारत केवल चिंगारी था,
जय ज्वाल बनाया था तुमने।
पोखरण रेत की धरती पर,
इतिहास रचाया था तुमने॥२०॥
अध्यात्म गु्रू को दुनिया में,
तुम महाशक्ति तक ले अाये।
उस रोज़ देश में घर- बाहर,
हर ओर तिरंगे लहराये॥२१॥
हे राजनीति के ध्रुव तारे,
थी अटल रही हर एक नीति ।
सिंहासन त्यागा चुटकी में,
जन से पर त्यागी नहीं प्रीति ॥२२॥
जो स्वार्थ सनी थी राजनीति,
कंचन सा तुमने किया उसे।
निजता की बेड़ी तोड़ सहज,
था राष्ट्र परक हित दिया उसे॥२३॥
थे रचे समय के मस्तक पर,
तुमने भारत के गीत नये।
थे बजे तुम्हारी वीणा से
हर पल निर्झर संगीत नये॥२૪॥
हे प्रेम दूत, हे शान्ति दूत,
तुम अद्भुत और विलक्षण थे।
था समय भले गतिमान मगर,
तुममें ठहरे अनगिन क्षण थे॥२५॥
तुमने गीता को जिया सदा,
तुमने मानस की धरी लाज।
तुम जनक सदृश थे सत्ता पर,
तप किया मध्य रहकर समाज॥२६॥
मतभेद भले हों नीतिपरक,
मनभेद किसी से हुआ नहीं।
जनप्रियता का ऐसा स्तर,
पहले दुनिया ने छुआ नहीं ॥२७॥
तुम देवलोक से उतरे थे,
भारत में स्वर्ग सजाने को।
गंगा की लहरें बन करके,
प्यासी धरती सरसाने को॥२८॥
तुम बिन था स्वर्ग अधूरा सा,
संदेश मिला, जाना ही था।
शाश्वत नियमों का अनुपालन,
माटी से करवाना ही था॥२९॥
पग पग पर तुम हो साथ सदा
चलते-चलते, बहते-बहते।
जग समझे इसको मृत्यु भले,
हम इसको मृत्यु नहीं कहते॥३०॥