गीत पुरुष नीरज के प्रति श्रद्धा सुमन

तरुण प्रकाश, सीनियर एग्जीक्यूटिव एडीटर-ICN ग्रुप 
कल आने वाली नस्लें मुझसे पूछेंगी,
युग पुरुष कभी क्या तुमने कोई देखा था।
जी रहा हमेशा था निज साँसों से जग को,
जिसके अंदर सम्पूर्ण भुवन का लेखा था॥
जो था खुद कोमल फूल सरीखा अपने में,
कैसे शब्दों को धार दिया वो करता था।
जो कृष्ण सरीखा वंशी कभी बजाता था,
कैसे शिव सा विषपान किया वो करता था ॥
जिसके शब्दों से फूल बरसते रहते थे,
जिसके शब्दों से पर्वत तक हट जाते थे।
जिसके शब्दों से अमृत राग छलकता था,
जिसके शब्दों से पत्थर तक कट जाते थे॥
जो दैहिक से ले दिव्य प्रेम का वाहक था,
था जन्म-मृत्यु जिसकी खातिर जगना सोना।
जिसकी वाणी के चंदन से महकी दुनिया,
जिसकी झोली में सुख दुख का जादू टोना ॥
जब नील नदी की बेटी कहीं तड़पती थी,
तब जिसकी छाती टूक टूक हो जाती थी।
जिसकी मुरली सारी दुनिया के आँसू पी,
पीड़ा की गाथा फूट फूट कर गाती थी ॥
कल जगने वाला अंकुर मुझसे पूछेगा,
था प्रेम पुरुष, आया कब अपनी धरती पर।
धरती बिछती थी जिसके पाँवों के नीचे,
ओढ़े रहता था जो निज कांधे पर अंबर ॥
बचपन, किशोर, मधुपूर्ण जवानी, प्रौढ़, वृद्ध,
जिसकी लय पर सब झूम झूम कर गाते थे।
फिर लाल चूनरी पर जिसकी मधु गीतों की,
दर्शन के कितने रंग सहज ही आते थे ॥
मंदिर के भजनों के स्वर जिसके गीतों में,
जिसके गीतों में मस्जिद थी, देवालय थे,
जिनमें कुरान की अायत सदा सुरक्षित थी,
थे गुरुद्वारे, थे चर्च, सभी धर्मालय थे॥
जो स्वयं मनुज था किन्तु मनुजता जिससे थी,
जो दीप जला तम सबका  दूर भगाता था।
जो सकल प्रार्थना के करता था गीत सृजित,
अपने गीतों में जग का मंगल गाता था॥
जिसके मुख की झुर्रियाँ स्वयं ही मुखरित हो,
विध्वंस सृजन का नित इतिहास सुनाती थीं।
जिसके केशों की लट में सदियां रहती थीं,
जीवन क्या है? जो झूम झूम दोहराती थीं ॥
ये प्रश्न समय के मुझको भले रुला जायें,
आँखों में आँसू भरकर भी मैं बोलूँगा।
भावों का हिम फिर भाषा बनकर पिघलेगा,
मैं सतत् हिचकियों के बंधन को खोलूँगा ॥
जिसने शब्दों में भरी चाशनी, अंगारे,
वो जिसने युग को एक नई भाषा दी है।
जिसने जीवन के चित्र उकेरे नये नये,
वो जिससे युग ने नई दृष्टि हासिल की है ॥
वो प्रेमदूत, वो शांतिदूत, वो स्वर्गदूत,
अभिशप्त आत्मा का जैसे वो साया था।
चख लिया कभी था वर्जित फल उसने शायद,
धरती पर अपनी सज़ा काटने आया था॥
वो गीत सूर्य ब्रह्माण्ड सिंधु में डूब गया,
पल में ही जैसे गीतों का युग बीत गया।
रह गया देह का कलश धरा का धरा यहाँ
लेकिन उसका जीवन जल सारा रीत गया ॥
वह नीलकंठ था, गीतों से विष पीता था,
दो चार बू़्ंद का मैंने भी विषपान किया।
है गर्व मुझे उस महामनुज के जीवन का,
वह कालखंड थोड़ा मैंने भी साथ जिया॥
— तरुण प्रकाश
(“गीत-युग” में संग्रहीत )

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