गीत पुरुष नीरज के प्रति श्रद्धा सुमन

तरुण प्रकाश, सीनियर एग्जीक्यूटिव एडीटर-ICN ग्रुप 
कल आने वाली संतति मुझसे पूछेगी,
सुनते हैं जीवन राग किसी ने गाया था।
इस धरती पर भी स्वर्ग देश की दुनिया से,
इक गीत-पुरुष कुछ दिन रहने को आया था॥ (1)
यह भी सुनते हैं जब वह गीत सुनाता था,
यह वक्त ठहर सा जाता था सम्मोहित हो।
धरती मोहित, आकाश अचम्भित होता था,
था खूब चमकता अंधकार आलोकित हो॥ (2)
जलती लू में भी सावन खूब बरसता था,
हिमपात हरारत से अक्सर भर जाता था।
मधु छटा चांद की बारिश बीच बिखरती थी,
वो गीतों से जादू सबमें भर जाता था॥ (3)
मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे सारे भेद भूल,
जिसके दर्शन पर मंद मंद मुसकाते थे।
बाँहों में बाँहें डाले अक्सर झूम झूम,
घंटों गीतों की भाषा में बतियाते थे॥ (4)
नदियों की कल-कल, झरनों की रुनझुन जिससे,
अक्सर उधार स्वर मांग मांग ले जाते थे।
जिसकी वाणी को सुन-सुन मेघ बरसते थे,
जिसके शब्दों से सागर तक थर्राते थे॥(5)
कल आने वाली पीढ़ी मुझसे पूछेगी,
सुनते हैं कोई काव्य पुरुष था धरती पर।
जो इस दुनिया में हँसता गाता था लेकिन,
यह सारी दुनिया रहती थी जिसके भीतर॥(6)
जो अक्सर अद्भुत रंग समेटे शब्दों में,
सारी धरती पर हरियाली भर देता था।
सूरज व चंदा अक्सर साथ निकलते थे,
जाने वह कैसा जादू सा कर देता था॥ (7)
तारों की दुनिया कण कण में बिछ जाती थी,
रोशनदानों में, खिड़की में, चौबारों में।
जिसके गीतों से केसर सी घुल जाती थी,
हर घर आँगन में, राहों में, बाज़ारों में॥(8)
जो प्रेम पुजारी, प्रेम पथिक था जीवन का,
जिसके गीतों में प्रेम समाया करता था।
शब्दों से, भावों से, स्वर से वह जादूगर,
हर दिल में अक्सर आया जाया करता था॥ (9)
अपने आँसू को जो खुद ही पी जाता था,
अपनी पीड़ा को करके जतन संजोता था।
लेकिन दूजे के हर आँसू को पोंछ सहज,
दूजी पीड़ा पर फूट फूट कर रोता था॥ (10)
कल आने वाला बचपन मुझसे पूछेगा,
था शिखर पुरुष का डेरा अपनी धरती पर।
कैसा दिखता था वह खुद जिसकी शब्दों में,
थे जंगल, रेगिस्तान, नदी, पर्वत, निर्झर ॥(11)
हर युद्ध मंच जिसकी छाती पर सजता था,
हर तोप उगलती अ‍ाग दिशा में थी जिसकी।
हर चीख सदा ही फूटी थी जिसके मुख से,
जिसकी जिह्वा से ही रिसती थी हर सिसकी ॥ (12)
चलती थी गोली कहीं, जिसे आ लगती थी,
हर गोला जिस पर ही आकर के फटता था।
दुनिया में चाहे कहीं भले तलवार चले,
हर बार अंग जिसका ही लेकिन कटता था ॥(13)
दुनिया की सारी पीड़ा जिसकी पीड़ा थी,
सारी दुनिया का दर्द ह्रदय में रहता था।
काँधे पर अक्सर टाँग वेदना की डोली,
पल पल जुड़ता था, पल पल में जो ढहता था ॥(14)
जिसकी चुल्लू में सिंधु समाया करते थे,
जिसकी आँखों में सारा अंबर रहता था।
जिसकी धड़कन से मौसम रोज़ बदलते थे,
जिसकी वाणी में अक्षर अक्षर दहता था॥ (15)
क्रमशः ….

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