सी .पी .सिंह, सीनियर एसोसिएट एडीटर-ICN
“ लघु – कथा “
हर घर की अपनी मर्यादाये होती है , संस्कार होते हैं , मान्यताएं होती है | हर घर किसी समाज का हिस्सा होता है | हर समाज सभी घरों का सम्मिलित रूप होता है | समाज के अपने संस्कार होए हैं , मान्यताएं होती हैं , मर्यादाएं होती हैं | प्रायः यह उन सभी घरों की परम्पराओं का एकीकृत रूप होता है | हर घर अपने समाज के प्रति उत्तरदाई होता है | ऐसे ही सम्बंधित समाज की बड़ी जिम्मेदारियां होती हैं | और चल रहे हैं सभी एक दूसरे के होकर | एक दूसरे की सलाह में , नियमों में , कर्तव्यों में |
“ हर घर समाज का अंग , उसी के संग , उसी का अनुयाई |
सब चलें ज्यों अपने ढंग , उसी की संस्तुति पाई ||
घर चाहे छोटा हो , बड़ा हो , किसी ढंग का हो | उस घर का जीवन स्तर कैसा भी हो | कैसे भी हों घर के बड़े और छोटे सदस्य | परन्तु हर घर में माँ के साथ – साथ यह तीन शब्द “ बाप – बेटा और क़र्ज़ “ अवश्य सुने जाते हैं , पाए जाते हैं , व्यवहार में रहते हैं | इन तीनों शब्दों का शब्दों से अधिक महत्व रहता है , हर घर में | समाज मान्यता देता है इन सभी सम्बन्धों को |
“ हर घर में छोटे – बड़े , हर घर में माँ – बाप |
जमा – क़र्ज़ प्रायः कड़े , आ रमें अपने आप ||
इन तीनों शब्दों का हर युग में महत्व रहा है | बाप – बेटे के बारे में किताबें और ग्रन्थ भरे पड़े हैं | हर युग में बखान है इन दोनों शब्दों के भाव का | मन के किसी भी कोने में सोंच लीजिए कैसा भी , वैसा बेटा है इस धरती पर | बाप कैसा भी हो सकता है जरूर | इन दोनों व्यक्तित्व और उनके संबंधों का वर्णन करने वाले अनेकों लेख और वृत्तान्त मौजूद हैं | पुरानी हर कहानी में बालक ध्रुव , श्रवण कुमार , राजा दशरथ जैसे चरित्र अवश्य मिलते हैं | तीसरा शब्द “क़र्ज़” , इससे भी सभी लोग परिचित अवश्य हैं |
ऐसा सर्व विदित है कि हर युग में क़र्ज़ लेने और देने का चलन था | अपनी क्षमता से अधिक खर्च जब अपरिहार्य हो जाए तो हर युग में लोगों ने सक्षम लोगों से क़र्ज़ लिया , ऐसा जगह जगह उल्लेख होता रहा है | तब में और अब में अन्तर इतना जरूर है कि आज जगह – जगह छोटे बड़े बैंक मौजूद हैं जो कि हर किसी की हर तरह की वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ती करते रहते हैं | आज छोटा बड़ा सब रुपया जमा हो जाता है बैंक में और हर जरूरत के लिए ऋण भी उपलब्ध है |
“ ऋण तो उपलब्ध था हर युग में , देने वाले थे भिन्न – भिन्न |
ऋण पर बड़े ब्याज के संयुग में , थे गरीब छिन्न भिन्न खिन्न ||
इस कहानी का किसी को कोई पता भी नहीं लगता और इस कहानी का प्रत्येक पात्र अपना – अपना रोल अदा करके चला जाता या समाप्त हो जाता यदि पेन्शन भुगतान करने वाली बैंक शाखा के एक भावुक युवा अधिकारी ने उन वरिष्ठ पेंशनर के बड़े कार्य को बारीकी से न देखा होता | छोटे बड़े बहुत ग्राहक आते हैं | अपना –अपना काम करवाते हैं और औपचारिक नमस्ते आदि के बाद चले जाते हैं | प्रायः लोग किसी की दशा का शूक्ष्मता से अवलोकन नहीं करते जब तक कि किसी प्रकार का व्यक्तिगत वार्तालाब न हो |
श्री राम प्रसाद जी ने जब इस शाखा से अपने बेटे केशव की उच्च शिक्षा के लिए ऋण लिया था उस समय के सारे अधिकारी और कर्मचारी स्थानान्तरण हो कर अन्यत्र जा चुके थे अतः उनको कोई व्यक्तिगत रूप से पहचानता नहीं था | हाँ सभी को इतना पता था कि श्री राम प्रसाद जी हमारे पुराने पेन्शनर हैं |
“ मानव को मानव सब देखें , मन को देखे कोई भावुक मन |
आँखें देखें , मुख उल्लेखे , यही चलता है शाश्वत जन – जन ||
एक युवक बैंक में अधिकारी बन कर पोस्ट हुआ | नया लड़का , भावुक मन , नई सोच , कुछ सार्थक करने की तमन्ना | हर समय एक ही विचार मन में भरा रहता कि किस तरह से किसी जरूरतमंद की सहायता की जाए | उसके माँ –बाप नहीँ थे | बेचारा उत्सुकता वश हर बड़े वरिष्ठ में पिता ढूंढता | हर सीनियर महिला को अपनी माँ की तरह देखता |
“ जब भाव भरा युव –मन सच्चा , बड़ों में ढूंढे निज मातु –पिता |
सेवा करता रहे वह बच्चा , लखि उन्हें ,जिनकी कर चुका चिता ||”
भाव भरा मन वह भी देखता है जो ऊपर से नहीं दिखाई देता | बुजुर्ग राम प्रसाद जी हर महीने के पहले सप्ताह में आते , अपनी पेंशन निकालने की कार्यवाही करते , पेंशन हाथ में आने पर थोड़ी देर सोफे में बैठते , अपने आप में कुछ सोंचते , थोड़ी देर रोते , बहते हुए समझ अपने आँसू स्वयं पोंछते फिर एक जमा पर्ची भरते उसमें पेंशन का सारा धन भर देते , उसमे शिक्षा ऋण का वह पुराना नंबर डालते जो उन्होंने अपने बेटे केशव की उच्च शिक्षा के लिए तब लिया था जब वे स्वयं सरकारी छोटी नौकरी में थे | धीरे –धीरे उठते , और कैश काउंटर पर जाकर अपनी सारी पेंशन उस लोंन अकाउंट में जमा कर देते | धीरे –धीरे चलते , वापस सोफे में बैठते , वह जमा पर्ची देखते , उसमे लिखे बाकी ऋण अवशेष को देखते , कुछ सोंचते , फिर उठकर धीरे –धीरे वापस चले जाते |
“ यह सब सामान्य सा ही था पर , इसे देख रहा था वह बच्चा |
जिज्ञासा से जाता था वो भर , क्या था सच्चा ?क्या था कच्चा ??
सब कुछ सामान्य था | वे अपनी पेंशन निकालते थे | वे अपने बेटे के शिक्षा ऋण खाते में जमा करते थे | एकदम सामान्य बात | नया –नया अधिकारी बना था वह | कुछ समय पहले तक वह भी पढ़ रहा था | बगैर किसी कारण के वह उन बुजुर्ग के बारे में सोंचने लगा |
“ कुछ देखा है, कोई सुना नहीं , आँखों मन पर विश्वास |
कुछ तो है उन आँसू में कहीं , या उस मन में कोई फांस ??”
समय भले ही दिखता नहीं है परन्तु रुकता भी नहीं है | कैसा भी हो चलता रहता है और चला जाता है | अगले महीनें की पांच तारीख को श्री राम प्रसाद जी फिर आए | सोफे पर बैठे ही थे कि पहले से तैयार उस लड़के रूपी युवा अधिकारी ने जैसे खोजी पत्रकार का रूप ले लिया | उसका उद्देश्य उन चाचा जी को परेशान करना नहीं था | वह केवल सच्चाई जानना चाहता था | आंसुओं का कारण जानना चाहता था | और यथा सम्भव मदद करना चाहता था उनकी |
“ युव पन में चाह , मन में तरंग ,क्यों हैं उन आँखों में ये गंग ?
पूंछू मन से , सटि चचा संग ,क्यों लगते हैं वे इतने तंग ?? “
जिज्ञासा , इच्छा शक्ति , सत्य निष्ठा सब कुछ तो था इसी लिए उस युवा अधिकारी को उन चचा जी से सब कुछ पूंछ लेने का बल मिला | बगैर कुछ सोंचे वह लड़का जाकर राम प्रसाद जी के पास सोफे पर सटकर बैठ गया |
“ राजू , जरा पानी पिलाओ बाबू जी को, फिर दो चाय लाओ |” ऐसा बोला उसने |
बाबू जी को यह समझने में देर नहीं लगी कि यह पानी और चाय उनके लिए ही मंगाया गया है | “ अरे सर , मैं तो सीधे घर से आ रहा हूँ , मुझे ज़रा सा काम है , रिटायर आदमी हूँ ,अभी चला जाऊंगा वापस घर | मेरे लिए कुछ मत मंगाइए सर |” ऐसा बोले थे वह |
“ एक छूना चाहता हिय सागर , बड़ा , उसको रहा छुपाइ |
भर आई नयनों की गागर , आँसू सबु रहे ज्यों गाइ || “
“ बाबू जी , आप मेरे पिता सामान हो | मेरे माँ- बाप नहीं हैं | मुझे कोई अधिकार नहीं है आपकी व्यक्तिगत बातें पूछने का | फिर भी यदि कुछ बताने लायक हो तो मुझे अपना बेटा समझ कर बता दीजिये | “ ऐसा कह दिया उस नए छोटे अधिकारी ने |
“ अपना बेटा “ ऐसा सुनकर बाबूजी कुछ चोंक से पड़े | फफक पड़े वह | जिस समंदर को बादल के रूप में लादे घूम रहे थे वह मानो बरसने लगे | अजीब लगने लगा उन को अपने इतना भावुक होने पर | वह उठकर बाहर जाने लगे | लड़का जिद करके उनको नल के पास ले गया जहां उन्होंने मुह धुला और फिर आकर सोफे मैं बैठकर बातें शुरू कीं |
“ जब , मन से उठते हैं बादल , नयन नभ में छायें |
किन्ही भावों की ठंढक से वो गल , पलकों से बरसायें ||”
“ साहब ! केशव मेरा अकेला बेटा | छोटा था वह | मैं नौकरी में था | मेरी सेलरी आती थी यहाँ | उस समय यहाँ पर आप की ही तरह बहुत सज्जन मैनेजर साहब थे | बेटे को आगे पढ़ाई करनी थी | मेरे पास पैसे नहीं थे | मनेजर साहब ने लोंन दे दिया हमको | बच्चे की पढ़ाई बहुत ठीक से पूरी हो गयी | मै सपने देखने लगा कि मेरा बेटा इतना अच्छा है पढने में कि उसकी नौकरी बहुत अच्छी लग जायेगी | फिर हम बुड्ढा –बुढिया का बुढापा बहुत सुख में बीतेगा | समय को कोई नहीँ जानता | मेरा बेटा पास हो गया | उसकी वहीं कहीं अच्छी नौकरी लग गयी | बताते हैं उसने उसी कंपनी में काम करने वाली किसी लडकी से शादी कर ली | दोनों मिलाकर बहुत अच्छी आमदनी है साहब | लेकिन बहुत समय से वह कोई खबर नहीं देता | न मेरा हाल पूंछता | मुझे कुछ नहीं मालूम उसके बारे में |
इधर मेरा रिटायर्मेंट हो गया और पत्नी अपने बेटे के दुःख में घुट – घुट कर मर गयी | अब मैं एकदम अकेला हूँ | पेंशन लेने आता हूँ और उसका लोंन अकाउंट जो मेरे साथ शामिल खाते के रूप में है उसमे जमा करता हूँ | अदा हो जाएगा धीरे – धीरे |”
उन्होंने धीरे – धीरे करके अपने पेंशन से उस लोंन खाते को बंद कर दिया | तत्पश्चात उनकी भी मृत्यु हो गयी | वे अपनी पेंशन का उपभोग कभी नहीं कर पाए |
समय बहुत शक्ति शाली है | हम कुछ भी सोच सकते हैं अपनी जिन्दगी के बारे में लेकिन होता वह है जो समय ने सोंच रखा है | जो समय स्वीकृत करता है |