बाय-बाय एमसीआई

नई दिल्ली। मेडिकल एजुकेशन के मामले में सरकार ने बहुत बड़ी पहल की है। यह पहल है मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (एमसीआई) की जगह नैशनल मेडिकल कमिशन (एनएमसी) गठित करने की। दोनों में बुनियादी फर्क यह है कि एमसीआई डॉक्टरों द्वारा चुनी गई डॉक्टरों की संस्था थी, जिसके साथ फर्जीवाड़े की शिकायत जुड़ी रही है। जबकि एनएमसी केंद्रीय कैबिनेट सचिव की देखरेख में देश के राष्ट्रीय स्वास्थ्य महानिदेशक और पांच आला सरकारी चिकित्सा संस्थानों के प्रतिनिधियों समेत कुल 25 सदस्यों वाली सरकारी संस्था होगी।
एमसीआई ने मेडिकल एजुकेशन ही नहीं, देश के मेडिकल ढांचे का भी बेड़ा गर्क कर रखा है। बाकी तीन प्रमुख प्रफेशनल शिक्षाओं इंजिनियरिंग, कानून और मैनेजमेंट का हाल भी खास अच्छा नहीं है, लेकिन चिकित्सा के मामले में दृश्य अंधेर नगरी चौपट राजा वाला हो चुका है। सरकारी मेडिकल कॉलेजों की तादाद एक अर्से से ठहर गई है। नए मेडिकल कॉलेज प्राइवेट सेक्टर में ही खुल रहे हैं, जहां हर स्तर पर धांधली है। राष्ट्रीय स्तर पर एक एंट्रेंस टेस्ट होता है, लेकिन राज्यों ने अपने गुप्त दरवाजे भी खोल रखे हैं।
सबसे बड़ी बात यह कि हर कॉलेज का अपना लंबा-चौड़ा मैनेजमेंट कोटा है, जिसमें पैसे देकर कोई भी एंट्री मार लेता है। कॉलेज को मान्यता मिलने और जारी रहने से लेकर सीटें बढ़ाने तक हर स्तर पर घूसखोरी की बात सरकारी जांच में सामने आ चुकी है। इसके चलते देश में जरूरत भर को डॉक्टर नहीं आ पा रहे। लेकिन इसका सबसे बड़ा नुकसान यह है कि अस्पतालों के लिए भी काबिल और नाकाबिल डॉक्टर के बीच फर्क करना मुश्किल हो गया है।
अभी तक एनएमसी और इसके साथ काम करने वाली मेडिकल अडवाइजरी काउंसिल के कामकाज का जो ढांचा सामने आया है, उसमें ऊपरी दखल और घूसखोरी की गुंजाइश कम लगती है। इससे मेडिकल सीट्स का बढऩा तय है। लेकिन डॉक्टरों की गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए अभी इसमें सिर्फ एक बात, एमबीबीएस कर चुके छात्रों के लिए एक राष्ट्रीय परीक्षा (लाइसेंशिएट एक्जाम) नजर आ रही है, जिसे पास करने के बाद ही कोई डॉक्टर प्रैक्टिस करने का हकदार माना जाएगा। यह खुद में बहुत बड़ी बात है और आगे चलकर शायद बाकी प्रफेशनल दायरों में भी एक ऐसे इम्तहान की जरूरत महसूस की जाए। इससे प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों की देखरेख की भरपाई हो पाएगी या नहीं, इसका अंदाजा बाद में लगेगा।

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