उच्च शिक्षा में आ रही गिरावट के लिए बुद्धिजीवी वर्ग जिम्मेदार

प्रोफेसर आर. के. यादव, चन्द्र शेखर आजाद यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्‍चर एंड टेक्‍नोलॉजी ,वरिष्ठ एसोसिएट एडीटर-ICN ग्रुप  
कानपुर। हमारे देश में उच्चतम शैक्षणिक संस्थानो/विश्वविद्यालयों में आ रही गिरावट के लिए एक प्रमुख वजह है हमारे शिक्षाविदों के समुदाय द्वारा अपनी जिम्मेदारियों को स्वयं त्याग देना। हम इस बात का रोना तो बहुत रोते हैं कि आज शिक्षा व्यवस्था राजनीतिक सत्ता और वैचारिक संघर्ष के इशारों पर नाच रही है, लेकिन हम शायद ही कभी इस पर ध्यान देतें है कि शिक्षा का यह राजनीतिकरण इसीलिए संभव हुआ, क्योंकि शिक्षाविदों के समुदाय नेे अपने संकीर्ण हितों के लिए खुद को सभी जिम्मेदारियों से अलग कर लिया। चूकि शिक्षाविदों ने राजनीतिक तंत्र को यह मौका प्रदान किया कि वह उनके ऊपर पैर रखकर आगे बढ़ सकें,  इसलिए राजनेताओं ने अवसर भुनाने में रंचमात्र भी देर नहीं की। विद्धवत समुदाय द्वारा अपनी जिम्मेदारियों का यह परित्याग कई स्तरों पर जारी है।
शिक्षाविदों ने सबसे पहले राजनीतिक सत्ता की मदद व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए ली या फिर अपने संस्थानों के लिए राजनीतिक झुकाव को बल प्रदान करने के लिए किया। निःसंदेह इस सन्दर्भ में कुछ सम्माननीय अपवाद है, लेकिन सामान्य तौर पर शिक्षा विशेषज्ञों द्वारा राजनीतिक सत्ता के समक्ष घुटने टेक देने और स्व अपमान के लिए प्रस्तुत होने की व्यापक प्रवत्ति विस्मयकारी है।
आत्मत्याग का इससे भी गंभीर स्तर यह हैकि शिक्षाविदों के समुदाय ने स्वयं को एक ऐशे पेशेवर समुदाय के रूप में देखना बंद कर दिया है जिसकी अपनी एक पहचान है। यह अभाव विश्वविद्यालयों/कृषि विश्वविद्यालयों जीवन के चरित्र में साफ परिलक्षित होता है। सोचना होगा कि अंतिम बार कब किसी शिक्षक संघ ने विश्वविद्यालय की अपने छात्रों के प्रति विश्ववास संबंधी जिम्मेदारियों की चर्चा की थी?
नौकरशाही/राजनीतिज्ञों के दबाव में कुछ संस्थानों/विश्वविद्यालयों ने भविष्य संबंधी योजनायें बनायी हैं, लेकिन किस विश्वविद्यालय ने यह सवाल करने का साहस दिखाया कि आने वाले दशकों में इस संस्था में सुधार तथा नई दिशाओं में कार्य करने के लिए उसे सक्षम बनाने की क्या योजना है? वे किस तरह के संस्थान बनाना चाहेंगे? आखिर कब शिक्षाविद अपने संस्थानों का नियन्त्रण अपने हाथों में लेगे?
उच्च शिक्षा से संबंधित जो मौजूदा विवाद सामने आये हैं उनमें कनिष्ठ शिक्षाविदों को राजनैतिक दखल के दम पर विश्वविद्यालय/संस्थानों में उच्च पदों पर आसीन हैं, जिससे वरिष्ठ शिक्षाविदों में एक बेचैनी महसूस की जा रही है। विश्वविद्यालय में कुलपतियों की नियुक्ति नौकरशाहों/ राजनेताओं की संस्तुतियों के आधार पर की जा रही हैं।
बुद्धिजीवियों के लिए आत्म चिंतन का विषय है। सत्ता द्वारा आसानी से बौद्धिक जीवन का स्वरूप बिगाड़ा जा सकता है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के बारे में कल्पना की गयी थी कि यह विश्वविद्यालय और मंत्रालय के बीच बफर का काम करेगा, लेकिन मौजूदा समय में यह उच्च शिक्षा के सरकारी दखल का हथियार बनकर रह गया है।
आज अनेक राज्यों में  विश्वविद्यालयों को व्यवहारिक रूप से मुख्य मंत्रियों व राज्यपालों द्वारा चलाया जा रहा है। दुःखद यह कि इसके विरोध में एक भी स्वर सुनाई नहीं देता। दोष किसे दें विद्धवत समुदाय ने ही अपनी ताकत सम्मान और गौरव को कायम रखने में आनाकानी की और राजनैतिक सत्ता को अपने  ऊपर हावी हो जाने दिया। सत्ता के दखल के समय बुद्धिजीवी वर्ग का मौन अब सीमित न होकर एक व्यापक परिदृश्य है।

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