गायन की गंगा थीं गिरिजा देवी, निधन से उदास हुई ठुमरी

वाराणसी।  प्रख्यात शास्त्रीय गायिका पद्मविभूषण गिरिजा देवी का जन्म तत्कालीन बनारस के सकलडीहा (वर्तमान में चंदौली जिला अंतर्गत) गांव में पारंपरिक हिंदू परिवार में हुआ था। वह माता-पिता व दो बड़ी बहनों के साथ रहती थीं। वे जब दो वर्ष की थीं तभी उनके माता-पिता सपरिवार गांव से बनारस शहर चले आए। उन्होंने गंगा तट पर बसे बनारस को दुनिया का सबसे प्राचीन व जीवंत शहर बताया। इसका जिक्र उन्होंने अपने जीवन वृत्तांत में किया है।ठुमरी साम्राज्ञी के अनुसार संगीत की शिक्षा उन्होंने कबीरचौरा स्थित अपने गुरु के घर में प्राप्त की। उनके गुरु के वंशज आज भी यहां रहते हैं। इसी कबीरचौरा में पं. कंठे महाराज, पं. किशन महाराज, हनुमान प्रसाद, बड़े रामदास, राम सहाय, राजन-साजन मिश्र जैसे कई प्रसिद्ध शास्त्रीय गायकों, संगीतकारों और कई अन्य फनकारों का परिवार निवास करता है। उनका पूरा जीवन व गायन गंगा के इर्द-गिर्द ही घूमता रहा।अपने जीवन वृत्तांत में उन्होंने लिखा है कि बालपन में नदी के किनारे दोस्तों के साथ लंबे समय तक खेलती रहती थी। यह सोचने में आश्चर्यजनक है कि कई वर्ष बाद जीवन के लिए मछली की लड़ाई की पीड़ा अपने संगीत में ला पाई थी। वे लिखती हैं कि कैसे उनके पिता रामदेव राय ने घुड़सवारी और घोड़ों की सवारी करना सिखाया, जो कि शुरुआती 20 वीं शताब्दी में छोटी लड़कियों के लिए आम बात नहीं थी। संगीत के असली संरक्षक के रूप में मेरे पिता भी एक थे, जिन्होंने गायन के मेरे जुनून को मान्यता दी। पंडित सरजू प्रसाद मिश्र के रूप में मुझे पहले गुरू  मिले। जब मैं चार साल की थी तब मुखर संगीत में मेरा कठोर प्रशिक्षण शुरू हुआ। उन्होंने ख्याल, ठुमरी सहित तमाम शास्त्रीय रूप और तप की तरह अधिक कठिन व तकनीकी रूप से जटिल शैलियों को पढ़ाया। सरजू प्रसाद के बाद श्रीचंद मिश्र की शिष्या बनी। वे लिखती हैं कि दुर्भाग्य से पिता के अलावा परिवार के अन्य लोग मेरे गायन के खिलाफ  थे। उनका सहयोग भी नहीं मिलता था। मेरी मां, जो बाद में मेरी सबसे बड़ी प्रशंसक में से एक बन गई समझ नहीं सकीं कि मैं शास्त्रीय संगीत के लिए इतना समय क्यों बर्बाद कर रही थी।
अपने जीवन वृत्तांत में ठुमरी साम्राज्ञी लिखती हैं कि वे जब पंद्रह वर्ष की थी तो एक व्यापारी मधुसूदन जैन से विवाह कर लिया। वह भी संगीत और कविता के प्रेमी थे। पति से समर्थन पाने के लिहाज से भाग्यशाली थी। शादी के एक साल बाद हमारी एक बच्ची थी। मेरे पति ने मेरे संगीत के भविष्य का समर्थन करना जारी रखा।वह लिखती हैं कि मैंने एक वर्ष के लिए सारनाथ जाने का फैसला किया। मेरे पति को मेरे लिए एक छोटा स्थान मिला और मैं अपनी नौकरानी के साथ वहां रहती रही। मेरी मां ने मेरी बेटी का ख्याल रखा और मैंने पति और गुरु श्रीचंद से संगीत की शिक्षा लेना जारी रखा। हर दिन कई घंटे तक अभ्यास होता था, जो सुबह 3:30 बजे शुरू होता।मेरी सच्ची साधना व मेहनत रंग लाई और मैं बनारस में एक नए अंतर्दृष्टि के साथ वापस लौटी। उस समय लोग केवल लाइव कंसर्ट या रेडियो पर शास्त्रीय संगीत ही सुन सकते थे। मेरा पहला प्रदर्शन इलाहाबाद के रेडियो स्टेशन से प्रसारित किया गया था। तब सिर्फ 20 साल की थी, यह विश्वास करना मुश्किल है कि 1949 में मैंने आधिकारिक तौर पर एक पेशेवर संगीतकार के रूप में कैरियर शुरू किया था। पति के समर्थन से मैंने संगीत समारोहों में सीखने व प्रदर्शन करने के क्रम में दूसरे जगहों की यात्र की। मेरे पति चाहते थे कि मैं निजी समारोहों में प्रदर्शन न करूं और मैं उनकी इच्छा को समायोजित करने के लिए खुश थी।
काशी की शास्त्रीय संगीत परंपरा की एकमात्र संवाहिका थीं पद्मविभूषण गिरिजी देवी। गुरु-शिष्य परंपरा को उन्होंने जीवंत रखा। शास्त्र से लोक तक की संगीत परंपरा उनके पास थी। अपने शिष्यों को गायन की शिक्षा देकर उन्होंने अपनी विरासत को संवारने का प्रयास किया है। पिछले दिनों दैनिक जागरण द्वारा आयोजित काफी टेबुल कार्यक्रम में उनसे मुलाकात हुई तो उन्होंने अपने सधे अंदाज में बातचीत की और कहा था कि अब तबियत ठीक नहीं रहती। बनारस आना भी कम होता है। देखें अब कब मिलना होता है।1पं. राजेश्वर आचार्य, संगीत मर्मज्ञकाशी की शास्त्रीय संगीत परंपरा की एकमात्र संवाहिका थीं पद्मविभूषण गिरिजी देवी। गुरु-शिष्य परंपरा को उन्होंने जीवंत रखा। शास्त्र से लोक तक की संगीत परंपरा उनके पास थी। अपने शिष्यों को गायन की शिक्षा देकर उन्होंने अपनी विरासत को संवारने का प्रयास किया है। पिछले दिनों दैनिक जागरण द्वारा आयोजित काफी टेबुल कार्यक्रम में उनसे मुलाकात हुई तो उन्होंने अपने सधे अंदाज में बातचीत की और कहा था कि अब तबियत ठीक नहीं रहती। बनारस आना भी कम होता है। देखें अब कब मिलना होता है।

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