बस्ती। 27 जुलाई 2025, रविवार को “महुआ डाबर का इतिहास: उत्खनित साक्ष्यों के संदर्भ में” विषय पर एक विशेष ऑनलाइन संवाद का आयोजन किया गया। यह संवाद ऐतिहासिक दृष्टिकोण से अत्यंत महत्वपूर्ण रहा, जिसमें महुआ डाबर की पुरातात्विक और ऐतिहासिक महत्ता पर गंभीर विमर्श हुआ।
कार्यक्रम का संचालन डॉ. दीपक सिंह ने किया, जबकि स्वागत भाषण एवं भूमिका डॉ. सीमा गौतम द्वारा प्रस्तुत की गई। इस ऑनलाइन सत्र के मुख्य वक्ता लखनऊ विश्वविद्यालय के प्राचीन भारतीय इतिहास एवं पुरातत्व विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो. अनिल कुमार रहे, जिन्होंने अपने व्याख्यान में महुआ डाबर के ऐतिहासिक और पुरातात्विक संदर्भों पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि यह स्थल 1857 की स्वतंत्रता क्रांति की वीरगाथा का मूक साक्षी है, जहां के बलिदानों को इतिहास में अक्सर वह स्थान नहीं मिला जिसके वे हकदार थे।
प्रो. अनिल कुमार ने बताया कि वर्ष 2010 में भारत सरकार द्वारा महुआ डाबर का वैज्ञानिक उत्खनन उनके ही निर्देशन में सम्पन्न हुआ था। इस उत्खनन में प्राप्त अवशेषों और प्रमाणों से यह सिद्ध हुआ कि यह स्थल 1857 में अंग्रेज़ी हुकूमत के विरुद्ध हुए विद्रोह का जीवंत केंद्र रहा है। उन्होंने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि ऐसे स्थलों का अध्ययन और संरक्षण राष्ट्रीय स्मृति और चेतना के लिए अत्यंत आवश्यक है।
इस संवाद का आयोजन महुआ डाबर संग्रहालय एवं डॉ. जनक सिंह सोशियो कल्चरल एण्ड एजुकेशनल सोसाइटी के संयुक्त तत्वावधान में किया गया था। आयोजन का उद्देश्य युवाओं और शोधकर्ताओं को महुआ डाबर के महत्व से अवगत कराना और उत्खनन से प्राप्त तथ्यों के माध्यम से 1857 की क्रांति के भूले-बिसरे पन्नों को पुनः समाज के समक्ष लाना था।
यह सत्र केवल शैक्षणिक संवाद नहीं, बल्कि एक भावभीनी श्रद्धांजलि थी उन शहीदों के लिए, जिनके नाम और निशान मिटा दिए गए। वक्ताओं ने इस बात पर बल दिया कि शिक्षकों, शोधकर्ताओं और समाज के जागरूक नागरिकों का यह नैतिक दायित्व है कि वे ऐसे स्थलों को केवल अतीत की वस्तु न समझें, बल्कि उन्हें वर्तमान और भविष्य के निर्माण की प्रेरणा मानें। इतिहास की हाशिये पर पड़ी कहानियों को मुख्यधारा में लाना ही इस संवाद का केंद्रीय उद्देश्य रहा।
कार्यक्रम के समापन पर प्रतिभागियों को महुआ डाबर संग्रहालय की आभासी या भौतिक यात्रा के लिए आमंत्रित किया गया, ताकि वे इस स्थल के इतिहास को न केवल जान सकें, बल्कि उसके संरक्षण में भी अपनी भागीदारी निभा सकें। आयोजन ने यह सिद्ध किया कि डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म आज भी इतिहास, शोध और जनसंवाद को जोड़ने में सेतु का कार्य कर सकते हैं।
सत्र में बड़ी संख्या में शिक्षक, विद्यार्थी, इतिहासप्रेमी और सामाजिक कार्यकर्ता शामिल हुए। सभी प्रतिभागियों का आयोजकों द्वारा आभार व्यक्त किया गया और इस तरह के शैक्षणिक व प्रेरक कार्यक्रमों को निरंतर आयोजित करने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया गया।
महुआ डाबर संग्रहालय के महानिदेशक डॉ. शाह आलम राना ने कहा कि महुआ डाबर उत्खनन की समग्र रिपोर्ट प्रकाशित कर इसे विद्यालयों और विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाना चाहिए, ताकि आने वाली पीढ़ियां भी इस वीरगाथा से परिचित हो सकें।