क्रांतिकारियों के परिवार के सदस्य ने संग्रहालय में देखी विरासत

डॉ. शाह आलम राना, एडीटर-ICN

पंचनदः पांच नदियों के संगम पर स्थित चंबल संग्रहालय में क्रांतिकारी वंशज और इलाहाबाद हाईकोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता गौतम बनर्जी का आगमन हुआ।

उन्होंने चंबल संग्रहालय में अपने वंशजों से जुड़े दस्तावेजों और तस्वीरों को देख भावुक हुए। गौरतलब है कि इनके बाबा के आठ भाई थे और सभी क्रांतिकारी थे।

बनर्जी परिवार ने स्वतंत्रता संग्राम में सब कुछ न्यौछावर कर दिया था। इनके बाबा मणीन्द्र नाथ बनर्जी के आठों भाई जीवनधन, प्रभासचंद, फणीन्द्रनाथ, अमिय कुमार, भूपेन्द्रनाथ, मोहित, बसंत क्रांतिकारी आंदोलन में सक्रिय रहे।

ऐसे में बनारस के पांडेघाट स्थित उनका मकान उन दिनों क्रांतिकारियों का केन्द्र बन गया। वर्ष 1924 में शचीन्द्रनाथ सान्याल और योगेश चंद्र चटर्जी ने हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन का उत्तर भारत में जाल बिछा दिया तो बनारस केन्द्र की जिम्मेदारी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्र राजेन्द्र लाहिड़ी को कंधे पर आ पड़ी।

काकोरी एक्शन के बाद लाहिड़ी कलकत्ता में एक बम फैक्ट्री में आठ अन्य क्रांतिकारियों के साथ धर लिए गए। दक्षिणेश्वर बम केस में दस वर्ष की सजा लेकर राजेन्द्र लाहिड़ी को कलकत्ता से ले जाकर लखनऊ में काकोरी केस चलाया गया।

मणीन्द्र पहले से ही राजेन्द्र लाहिड़ी के संपर्क में थे। अठारह महीने तक चलने वाले काकोरी केस पर मणीन्द्र बनर्जी जहां नजर टिकाए हुए थे।

वह पंजाब, उत्तर भारत और बंगाल के बिखरे सूत्रों को जोड़ने का काम तेजी से कर रहे थे। मणीन्द्र को पता लगा कि काकोरी केस में इलाहाबाद के सीआईडी इंस्पेक्टर जितेन्द्र बनर्जी ने बड़ी चालाकी से क्रांतिकारियों को फंसाया है जिसके लिए उन्हें राय बहादुरी का खिताब मिला है।

17 दिसंबर,1927 को गोंडा जेल में राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी की फांसी ने मणीन्द्र को बेचैन कर दिया। बगैर किसी को बताए उन्होंने संकल्प ले लिया कि इस खून का बदला जरूर लेंगे। संयोग से 10 जनवरी,1928 को जितेन्द्र बनारस आया तो मणीन्द्र को सुराग मिल गया। 13 जनवरी,1928 को मणीन्द्र का उन्नीसवां जन्मदिन था। शाम के छह बजे कड़ाके की सर्दी थी।

सीआईडी इंस्पेक्टर जितेन्द्र बनर्जी जैसे ही गोदौलिया पहुंचा वहां मणीन्द्र ने अकेले ही यह कहते हुए उस पर गोली चला दी कि ये रहा राजेन्द्र दा को फांसी दिलाने का तुम्हारा इनाम।

पहली गोली पेट में लगी, दूसरी कहीं और चली गयी। मणीन्द्र भागने में सफल हो गए, लेकिन फिर अचानक वापस लौट पड़े। घायल पड़े रायबहादुर के पास उनके बगल में जाकर कहा– रायबहादुर, काकोरी का इनाम मिल गया तुम्हें।

जितेन्द्र बनर्जी कुछ होश में था। वह चिल्लाया- पकड़ो, यही गोली चलाने वाला है। लोग मणीन्द्र पर टूट पड़े। मणीन्द्र चाहते तो दबोचने वालों पर गोली चला कर भाग सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया।

उन्होंने गुत्थम-गुत्था होने के दौरान पिस्तौल फेंक दी। मणीन्द्र को दशाश्वमेध थाने के अंदर पुलिस पर हमला करने के आरोप में बुरी तरह पीटा गया, लेकिन कोई और नाम इस एक्शन के पीछे पता नहीं किया जा सका।

इसके बाद तो मणीन्द्र के परिवार पर सरकारी कहर टूट पड़ा। क्या-क्या नहीं सहा मणीन्द्र की वीरांगना मां ने। मां सुनयना ने अपनी संपत्ति बेचकर मुकदमे की पैरवी की, लेकिन मणीन्द्र को दस साल कड़ी सजा दे दी गयी। मणीन्द्र के छोटे भाई भूपेन्द्र ने मेरठ में सत्याग्रह किया।

बीमार होने पर जेल से छूटे, लेकिन 1933 में चल बसे और मणीन्द्र फतेहगढ़ सेंट्रल जेल में 20 जून, 1934 को अनशन के दौरान करुण परिस्थितियों में शहीद हो गए।

एक साल के भीतर दो बहादुर बेटों को मां सुनयना ने देश की आजादी के लिए कुर्बान कर दिया, लेकिन देश ने ऐसी असंख्य मांओं के साथ उन्हें भी भुला दिया।

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