सुहैल काकोरवी की एक ग़ज़ल पतंग

संजय मिश्रा शौक़ फितरत का अपनी असल में इज़हार है पतंग परवाज़ का है शौक़ तरहदार है पतंग इस में उलझ के भूलते हैं हम ग़मे जहाँ तन्हाई की रफ़ीक़ है दिलदार है पतंग रंगों पे उसके लिखा है मत भूलो गिरदो पेश समझो कि होश की भी तलबगार है पतंग कर ले असीर ज़ेहन तो अँधा है फिर वह खेल इतना अगर जुनूं है तो बेकार है पतंग तहज़ीब ले के पहुंची यहाँ की ख़लाओं में इस तरह लखनऊ की नमक ख्वार है पतंग नामा लिखेंगे इस पे दिले…

Read More