तरुण प्रकाश श्रीवास्तव, सीनियर एग्जीक्यूटिव एडीटर-ICN ग्रुप
सोनू सूद फिल्मी दुनिया का कोई महानायक या बादशाह जैसा नाम नहीं है किंतु उसने साबित किया कि वह एक बहुत बड़ा ‘हिंदुस्तानी’ है और उसका हिंदुस्तान मात्र किसी प्रदेश की भौगोलिक सीमाओं अथवा क्षेत्रीय सोच का गुलाम न होकर पूरे देश का सच है।
भारतीय फिल्मों में सब संभव है। जो रियल लाइफ में घटता है, वह सब तो इसमें होता ही है लेकिन कई बार ऐसा भी होता है जो रियल लाइफ में कभी नहीं घटता। सच कहा जाये तो फिल्मी दुनिया मात्र एक काल्पनिक दुनिया है लेकिन कभी-कभी उसी काल्पनिक दुनिया का एक हीरो हमारे और फिल्मी दुनिया के बीच की स्क्रीन को तोड़कर कल्पना की उस दुनिया से अनायास ही यथार्थ की इस दुनिया में आ जाता है। आप शायद इसे फैंटेसी बोलेंगे लेकिन मै इसे “सोनू सूद” कहता हूँ।
कोरोना के वैश्विक संकट काल में समय ने ऐसे अनेक दृश्य देखे जो हमारी सोच व कल्पना से भी परे थे। सारे विश्व की तालाबंदी, बड़ी से बड़ी ताकतों का अचानक एक अदृश्य वायरस के सामने समर्पण की स्थिति में ज़मीन पर बिछ जाना एवं सारी दुनिया की सभी जीवित बस्तियों का लगभग मृतप्राय हो जाना और सभी कब्रिस्तानों का एक साथ ज़िंदा हो जाना आदि-इत्यादि।
जहाँ तक भारत का संबंध है, बहुतायत में यह देश मध्यम वर्गियों और निम्न वर्गियों का है जहाँ पर एक छोटी सी रोटी में भी सैकड़ों की हिस्सेदारी होती है। हमारे देश में ‘ज़िंदगी जीने’ से ‘ज़िंदा रहना’ एक बड़ी कला है और बिना किसी पूर्व नोटिस के आयी हुई कोरोना महामारी ने हमारे देश के जनतंत्र व व्यवस्था तंत्र, दोनों को ही हिलाकर रख दिया।
प्रवासी श्रमिकों और कामगरों के सामने यक्ष प्रश्न था – किससे मरा जाये? कोरोना से या भूख से? और जो भूख उन्हें अपने-अपने घरों से निकाल कर परदेस ले गयी थी, उसी भूख ने उन्हें फिर विवश कर दिया कि वे अपने कार्य स्थल से अपने छोटे-छोटे बच्चों के साथ भूखे प्यासे अपने देस लौटने के लिये हजारों मील की पैदल यात्रा करें। कई स्थानों पर उन्हें रोटी और सुरक्षा देने में प्रशासनिक ढांचा स्वयं चकनाचूर हो गया और कई प्रदेशों में उनकी समस्या का चूल्हा बना कर उस पर तबियत से राजनीतिक रोटियाँ सेंकी गईं। गिद्ध बनकर स्वार्थी व बिकाऊ मीडिया सिर्फ़ इस दुनिया की सबसे विचित्र मैराथन दौड़ में अपने लिये रक्तरंजित खबरें निकालती रही और अपने-अपने टीवी चैनलों में मंहगे-मंहगे कॉमर्शियल विज्ञापनों के बीच उन दर्दनाक हादसों की कहानियों को नीलामी पर लगा कर बेचती रही।
एक ‘आम हिंदुस्तानी’ कब एक या दूसरे प्रदेश की ‘अनचाही ज़िम्मेदारी’ बन गया, यह किसी को पता ही नहीं चला। कुछ प्रदेश भारतीय क्रिकेट टीम के ऐसे बल्लेबाज बन कर उभरे जिन्होंने अपने निजी रन रेट को सुधारने के चक्कर में पूरी भारतीय टीम की शर्मनाक हार की संभावना के साथ भी आपराधिक समझौते करने से गुरेज़ नहीं किया और हमारे एक मज़बूत और अखण्ड भारत की तस्वीर को चिंदी-चिंदी करने में एक पल की भी देरी नहीं की। तपती धूप के नीचे सैकड़ों मीलों का भूखे-प्यासे सफ़र करने को मजबूर ये काफ़िले निश्चित रूप से हमारी सामाजिक, राजनैतिक व आर्थिक हार हेै और हमारे विकास का दिवा स्वप्न छन छनाक कर हमारे सामने एक झटके में टूट गया।
‘अंत्योदय’ का वह आखिरी हिंदुस्तानी, जिसके लिये सरकारें पिछले सत्तर वर्षों से भी ज़्यादा समय से सिर्फ़ योजनायें बनाने का पहाड़ा ही रट रही हैं, आखिरकार सिर पर अपनी टूटी फूटी गृहस्थी संभाले, अपनी बीमार पत्नी और गोद में छोटे-छोटे बच्चों को छिपाये भूख-प्यास से तड़पता जलती धूप में आत्महत्या करने की मानसिकता के साथ हजारों किलोमीटर दूर अपने देस की अधूरी यात्रा करने को विवश हो गया। समझ में नहीं आता, विकास की बड़ी-बड़ी योजनायें और हमारे द्वारा भरे गये टैक्स से आरक्षित वे बड़े-बड़े कोष आखिर किस राजनीतिज्ञ की धोती की टेंट में कभी न खुलने के लिये बंधे रह गये।
सोनू सूद फिल्मी दुनिया का कोई महानायक या बादशाह जैसा नाम नहीं है किंतु उसने साबित किया कि वह एक बहुत बड़ा ‘हिंदुस्तानी’ है और उसका हिंदुस्तान मात्र किसी प्रदेश की भौगोलिक सीमाओं अथवा क्षेत्रीय सोच का गुलाम न होकर पूरे देश का सच है।
30 जुलाई, 1973 को पंजाब के मोगा में जन्मे सोनू सूद हिंदी, तमिल, तेलगू व कन्नड़ भाषी फिल्मों में नायक व खलनायक की भूमिकाओं के लिये प्रसिद्ध हेैं एवं उनके उत्कृष्ट अभिनय के लिये उन्हें अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कारों व सम्मानों से भी नवाज़ा गया है। जब अनेक असंवेदनशील राजनीतिक दल प्रवासी श्रमिकों के साथ बकायदा भूख और कोरोना का साँप सीढ़ी का खेल खेलने में व्यस्त थे और हमारा अधिकांश मीडिया उनके रक्त से अपनी ओढ़नी को लाल चमक देने में लगा हुआ था, इस देश के करोड़ों लोगों के संवेदनशील ह्रदय और अश्रुपूरित आँखें इन बेचारों के साथ-साथ कदम दर कदम यात्रा कर रही थीं। सोनू सूद उन्हीं में से एक हैं जिंन्होंने ज़िंदगी से साफ़ साफ़ कह दिया कि इस बार या तोवतू नहीं या मैं नहीं। और फिर शुरू की दम तोड़ती ज़िंदगी को बचाने की एक अद्भुत जंग और अपनी टीम के साथ अपने ही खर्चों पर हर प्रवासी भाई को उसके घर पहुँचाने की शानदार मुहिम। बसों, ट्रेनों और यहाँ तक कि हवाई जहाजों के माध्यम से भी अपने निजी व्यय पर उनकी भूख प्यास की समस्या का भी समुचित व्यवस्था करते हुये सोनू सूद हमारे निर्धन प्रवासी श्रमिक भाइयों के लिये किसी खुदा से कम नहीं हैं।
उनके ये प्रयास व्यवस्था के गाल पर एक ऐसा झन्नाटेदार तमाचा है जिसकी गू़ँज लंबे समय तक देशवासियों को सुनाई पड़ेगी और मौत व भूख से दो दो हाथ करते हमारे निर्धन प्रवासी श्रमिक जब यह याद करेंगे कि ईश्वर ने उनके ऊपर जब कोरोना संकट के रूप में ज़िंदगी की सबसे बड़ी मुसीबत डाली थी, तब उन्हें यह भी याद आयेगा कि तभी ईश्वर ने उनकी सहायता को सोनू सूद को भी भेजा था।
सोनू सूद सर, हम आपकी कला के तो फैन थे ही लेकिन आपके इस रूप ने तो हमें खरीद ही लिया। सर, हमें गर्व है कि हम भी उसी देश में रहते हैं जो आपका देश है।