भाषा बनाम संस्कृति और संस्कार

डॉ. संजय श्रीवास्तव 

मैं आप सभी से सिर्फ एक ही बात पूछना चाहता हूँ कि क्या भाषा किसी संस्कृति के निर्माण करने में सहायक होती है ? मेरा मानना है कि वैसे तो एक संस्कृति के निर्माण में कई कारक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है किन्तु किसी भी संस्कृति को दर्शाने में सबसे ज्यादा महत्त्व विचारों और भाषा का होता है | हमारे संस्कार हमारे विचारों का एक आइना होते हैं जो ये दर्शाते हैं कि जो भी विचार हमारे मन मस्तिष्क में चल रहे होते हैं वो हमारे क्रिया कलापों द्वारा या हमारी प्रयोग में लायी जाने वाली भाषा के माध्यम से दूसरों को दिखाई पड़ते हैं| दूसरे लोग अक्सर इसे संस्कार कहते हैं|

जैसे अगर हम अच्छे काम करते हैं या अच्छी भाषा का प्रयोग करते है तो लोग उन्हें अच्छे संस्कारों का नाम देते हैं और अगर बुरे कर्म करते हैं या गलत अथवा बुरी भाषा का प्रयोग करते हैं तो लोग उन्हें बुरे संस्कारों का नाम देते हैं| लेकिन क्या आपने कभी इस बात पर गौर किया है कि ये बुरे या अच्छे विचार हमारे मन मस्तिष्क में कहाँ से आते है?

अगर आप ध्यान से देखे तो जिस भी भाषा का हम बहुतायत प्रयोग करते हैं, हमारे विचार भी ठीक वैसे ही हो जाते हैं| जैसे अगर हम शुद्ध या अच्छी भाषा का प्रयोग करते हैं तो हमारे विचार भी शुद्ध होंगे और अगर हम बुरी भाषा का बहुतायत प्रयोग करते हैं तो हमारे विचार भी दूषित होंगे और हम बहुत सारी मानसिक परेशानियों में हमेशा घिरे रहेंगे जैसे क्रोध, चिडचिडापन, द्वेष आदि|

यही मानसिक परेशानिया हमारे शरीर में बहुत सारी बीमारियों को जन्म देती हैं और हम पूरा जीवन व्यर्थ में ही उन बीमारियों से अपने शरीर को बचाने में या उनसे रोकथाम में निकाल देते है जबकि अगर हम ध्यान से देखे तो उन बीमारियों की मूल जड़ हमारे विचार होते हैं | यानि निष्कर्ष ये निकलता है कि हमे अपने द्वारा प्रयोग में लायी जाने वाली भाषा को हमेशा शुद्ध रखना चाहिए |

मेरा मानना हमेशा से ये रहा है की आपकी भाषा आपके संस्कारों को जन्म देती है और आपके संस्कार एक नयी संस्कृति को जन्म देते हैं और मेरा ये भी मत है कि “जब भी किसी भाषा का पतन होता है ,तब उस भाषा से जुड़ी हुई संस्कृति का हनन होता है”

आज हमारे देश में आप सभी देखते हैं कि किस तरह से हम सभी में किसी ना किसी रूप में कई तरह की बीमारियों ने पिछले कुछ दशकों में बहुत तेजी से जन्म लेना शुरू कर दिया है जिसमे से ज्यादातर बीमारियाँ मानसिक होती हैं | इसका मुख्य कारण हमारी भाषा है जिसमे आजकल प्रायः गिरावट देखी जा सकती है| इसका मुख्य कारण वो साहित्य है जिसका हम आजकल निजी जिंदगी में प्रयोग करते है |

मेरा सिर्फ इतना ही कहना है खास कर अभिभावकों से कहना है कि अगर वे अपने बच्चो के लिए बेहतर भविष्य की तलाश में है तो उन्हें नित्य प्रति स्वस्थ एवं मनोरंजक साहित्य पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करे जिससे हम आने वाले दिनों में अपने बच्चों के लिए और अपने देश के लिए एक बेहतर भविष्य दे सकें| एक मनोवैज्ञानिक होने के नाते मैं, ये दावे के साथ कह सकता हूँ कि रोजाना स्वस्थ एवं मनोरंजक साहित्य पढ़ने से  ना जाने कितनी मानसिक और शारीरिक बीमारियाँ ठीक हो जाती हैं| इससे हमारी मनोदशा भी बहुत अच्छी रहती है जिस कारण अच्छे विचार मन में बने रहते हैं और हमारे अन्दर अच्छे संस्कार आते हैं और हम एक अच्छी संस्कृति को जन्म देने में सक्षम हो पाते हैं |

डॉ० संजय श्रीवास्तव अब स्मृति शेष हैं। प्रस्तुत लेख उन्होंने अपने जीवन काल में लिखा था। आई. सी. एन. द्वारा इस लेख के पुन: प्रकाशन का उद्देश्य समाज को इसकी उपयोगिता से पुन: परिचित कराना एवं अपने विद्धान लेखक को श्रृद्धांजलि अर्पित करना हैडॉ. संजय श्रीवास्तव आई सी एन ग्रुप के एसोसिएट एडिटर, साइकोलोजिकल काउन्सलर एवं क्लीनिकल हिप्नोथेरेपिस्ट थे. 

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