सुनों बसंती हील उतारो,अपने मन की कील उतारो

आकृति विज्ञा ‘अर्पण’, असिस्टेंट ब्यूरो चीफ-ICN U.P.
सुनों बसंती हील उतारो
अपने मन की कील उतारो
नंगे पैर चलो धरती पर
बंजर पथ पर झील उतारो
जिनको तुम नाटी लगती हो
उनकी आँखें रोगग्रस्त हैं
उन्हें ज़रूरत है इलाज की
ख़ुद अपने से लोग ग्रस्त हैं
सच कहती हूँ सुनो साँवली
तुमसे ही तो रंग मिले सब
जब ऊँचे स्वर में हँसती हो
मानो सूखे फूल खिले सब
बिखरे बाल बनाती हो जब
पिन को आड़ा तिरछा करके
आस पास की सब चीज़ों को
रख देती हो अच्छा करके
मुझे नहीं मालूम बसंती
उक्त जगत का कौन नियंता
पर  तुमको अर्पित यह उपमा
‘स्वयं सिद्ध घोषित अभियंता’
तुमने स्वयं गढ़े जो रूपक
शब्द नहीं वो आलंबन है
अर्थों के मस्तक पे बढ़कर
अक्षर कर लेते चुम्बन हैं
जिसको नीची लगती हो तुम
उसकी सोच बहुत नीची है
सुनो बसंती हील उतारो
अपने मन की कील उतारो..

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