आखिरकार मोदी सरकार ने मान लिया है कि बीते वर्ष में बेरोजगारी पिछले साढ़े चार दशकों में सबसे ऊंचे पायदान पर रही। नयी सरकार के शपथ ग्रहण समारोह के बाद जारी किये गये आंकड़े वही हैं, जिन्हें चुनाव से पहले लीक होने पर विवाद हुआ था और सरकार ने आधे-अधूरे मानकर खारिज कर दिया था। सरकार चुनावी मुहिम पर बेरोजगारी के मुद्दे को हावी नहीं होना देना चाहती है। मगर यह देश में हर किसी की चिंता का विषय होना चाहिए कि पिछले 45 वर्षों में सर्वाधिक 6.1 प्रतिशत बेरोजगारी दर दर्ज की गई है। इन आंकड़ों की अवधि वर्ष 2017-18 है। इससे बढ़कर चिंता की बात यह है कि ये आंकड़े ऐसे समय पर स्वीकार किये जा रहे हैं जब देश की विकास दर पिछले पांच सालों में न्यूनतम स्तर 5.8 फीसदी है। वित्त वर्ष 2017-18 की चौथी तिमाही में विकास दर 7.2 फीसदी मापी गई थी। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि कहीं यह मंदी की आहट तो नहीं है। नि:संदेह कार्यभार संभालने के बाद वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण को कई मोर्चों पर मुकाबला करके अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने का दायित्व निर्वहन करना है। निश्चित रूप से विकास के इंजन को ईंधन देने से ही विकास दर व रोजगारों में वृद्धि हो सकती है। दरअसल नवीनतम आंकड़े इस मायने में भी चिंता का विषय हैं कि ये आकंड़े अर्थव्यवस्था की नकारात्मक तस्वीर उकेरते हैं। हालांकि सरकार की अपनी दलीलें हैं और वह प्रति व्यक्ति खपत बढऩे को बेरोजगारी से नहीं जोड़ती। यानी रोजगार संगठित क्षेत्र में न हों मगर रोजगार असंगठित क्षेत्र में आकार ले रहे हैं। यह एक हकीकत है कि नोटबंदी व जीएसटी का असंगठित क्षेत्रों पर प्रतिकूल असर पड़ा है। बेंगलुरू स्थित अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के सेंटर ऑफ सस्टेनेबल एंप्लॉयमेंट द्वारा जारी एक सर्वेक्षण के अनुसार नोटबंदी के बाद के दो वर्षों में असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले पचास लाख लोगों ने अपने रोजगार से हाथ धोया है।इसमें दो राय नहीं कि श्रम प्रधान देश भारत में रोजगार का बड़ा हिस्सा असंगठित क्षेत्र द्वारा ही सृजित किया जाता है। भारतीय शिक्षा प्रणाली की विसंगतियों के चलते जो पढ़े-लिखे लोग नौकरी की तलाश में निकलते हैं, वे आधुनिक उद्योगों की जरूरतों को पूरा नहीं कर पाते। मजबूरी में वे असंगठित क्षेत्रों में छोटी-मोटी नौकरियों में संतुष्ट होकर रह जाते हैं। नोटबंदी की बाद बची-खुची कसर जीएसटी के क्रियान्वयन में व्याप्त विसंगतियों ने पूरी कर दी। कुल मिलाकर रोजगार सेक्टर अभी तक इन झटकों से उबर नहीं पाया है। बेरोजगारी के हालिया आंकड़ों का चिंताजनक पहलू यह भी है कि बेरोजगारी का दायरा शहरों में ज्यादा चिंताजनक है, जो 7.8 फीसदी बताया जाता है। वहीं दूसरी ओर ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी का प्रतिशत 5.3 फीसदी रहा है। दरअसल, बेरोजगारी का एक बड़ा कारण उन क्षेत्रों में विकास सुस्त होना भी है जो रोजगार सृजन में बड़ी भूमिका निभाते थे। निश्चित रूप से कृषि व विनिर्माण क्षेत्रों के प्रदर्शन में गिरावट दर्ज की गई है, जिसके चलते रोजगारों का सृजन कम हुआ है। ऐसे में जरूरी है कि देश में श्रम प्रधान उद्योगों को बढ़ावा देकर रोजगार के नये अवसर सृजित किये जाएं। यहां देश की शिक्षा पद्धति में आमूलचूल परिवर्तन की जरूरत है, जो सिर्फ बाबू पैदा करने में सहायक बनती रही है। रोजगार की बेहतर स्थिति के लिये जरूरी है कि शिक्षा को उद्योग जगत की बदलती जरूरतों के अनुरूप ढाला जाये। आवश्यक यह भी है कि समाज में सरकारी नौकरियों का मोहभंग किया जाये। युवा नये उद्यमों को लगाने और रोजगार के नये अवसर सृजन करने के वाहक बनें। स्थिति तब बदलेगी जब सरकार अनौपचारिक क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश को बढ़ावा देगी। युवाओं में बढ़ती साक्षरता के मद्देनजर रोजगार के नये क्षेत्र विकसित करने की जरूरत है।
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