अबू धाबी में हिंदी

भारत में अक्सर यह विमर्श का विषय होता है कि आज़ादी के सात दशक बाद भी देश की उच्च अदालतों में हिंदी व भारतीय भाषाओं में न्याय क्यों नहीं मिल पाया।
अदालतों में न्यायाधीशों व अधिवक्ताओं की जिरह में वादी-प्रतिवादी की वास्तविक भागीदारी क्यों नहीं हो पाती। बहस भी अंग्रेजी में होती है और फैसले भी, जिन्हें समझने के लिए मुवक्किल को कानून के जानकार व वकील की जरूरत पड़ती है। ऐसे वक्त में एक सुकूनभरी खबर इस्लामिक देश अबू धाबी से आई है कि वहां अब अदालत में अरबी व अंग्रेजी के बाद हिंदी को तीसरी भाषा का दर्जा दिया गया। इस संवेदनशील व न्याय की पारदर्शिता दर्शाने वाले फैसले के मूल में वे तीस प्रतिशत भारतीय हैं, जो न्याय को सही मायने में पाने में मुश्किलों से जूझते थे। संपन्न तबका तो अंग्रेजी से काम चला लेता था, मगर भारत-पाकिस्तान से बतौर कामगार गये तबके को किसी मुकदमे में पता नहीं चलता था कि जज ने क्या फैसला दिया और वकील ने क्या दलील दी। जिसके चलते कई बार निर्दोषों को अपनी बात न कह पाने की वजह से सजा व देश निकाला तक दे दिया जाता था। मुकदमे का मोटा खर्च अलग से उठाना पड़ता था।सही मायने में अबू धाबी की अदालत में हिंदी को मान्यता का एक मतलब यह भी है कि उर्दू को भी स्वीकारा गया है। दोनों की लिपि भले अलग हो, मगर भाव-अभिव्यक्ति कमोबेश एक जैसी है, जिससे भारत व पाकिस्तान के उर्दूभाषियों को बड़ी राहत मिलेगी। खासकर भारत से गये उन कम पढ़े-लिखे कामगारों को भी, जिन्हें श्रमिक विवाद से जुड़े मामलों में न्याय नहीं मिल पाता था। यह फैसला भारत के नीति-नियंताओं के लिए एक नजीर की तरह है कि आज़ादी के बाद भी अंग्रेजों के जमाने के तौर-तरीके क्यों चल रहे हैं। कानून की पढ़ाई हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं में होने के बावजूद उच्च व सर्वोच्च न्यायालयों में कामकाज की भाषा भारतीय क्यों नहीं हो पा रही है। इस दिशा में देश में न्याय प्रशासन से जुड़े विद्वानों, अधिवक्ताओं व समाज के जागरूक लोगों को मुहिम चलानी चाहिए। न्याय प्रक्रिया में पारदर्शिता लाने के लिए आम आदमी की भाषा में जिरह व न्याय वक्त की अनिवार्य जरूरत है। यह न्याय की वास्तविक अवधारणा को साकार करने जैसा भी है। साथ ही वादी-प्रतिवादी को जटिल कानून शब्दावली से राहत भी देगा। विश्वास है कि अबू धाबी का फैसला भारत में भी बदलाव का वाहक बनेगा।

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