जयपुर

अमिताभ दीक्षित ,लिटरेरी एडिटर-ICN ग्रुप 
एक बार कुछ खण्डहर हो गई इमारतें
 
आपस में बतियाने लगीं
 
उनकी बातें हवाओं ने सुन ली
 
और कानां कान खबर लोगों तक पहुँची
 
लोग दौड़े आए, बेतहाशा
 
और एक शहर फिर से बस गया – जयपुर
 
पत्थरों की कानाफूसी
 
हवाओं की संगदिली
 
इंसान के कारोबारी हाथ
 
सब एक जगह इकट्ठा हो गए
 
राजपूती शान के साए में
 
इतिहास का नकदीकरण है यह शहर
 
वक़्त खामोशी से सुनता रहा
 
छीजता रहा – धीरे-धीरे
 
बाद में हवा महल के कंगूरे पर खड़ा हो
 
ज़ोर से खिलखिला पड़ा
 
यह हँसी आज भी जारी है
 
लोक समझते है कि वह गुज़रे हुए कल की महक
 
फेफड़ों में भर रहे हैं
 
लेकिन नहीं
 
यह हँसी के बादल हैं जो अनजाने ही
 
यहाँ आने वाले हर शख़्स के भीतर
 
बैठ जाते हैं और
 
उसके भीतर का एक महफूज़ साया
 
 
वक़्त की हँसी के हवाले कर जाते हैं

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