मोसूल

अमिताभ दीक्षित ,लिटरेरी एडिटर-ICN ग्रुप

यह महानगर एक दीवार है खंडहरों की

जिसके उस पार

डूब जाता है सूरज

हर रोज़

गहरे काले स्याह अँधेरे

चट्टानों की मानिंद

खड़े हो जाते हैं आँखों में

हर रोज़

बस्तियां न खुद से बात करती हैं न खामोशी से

धुआं भरे कसैले जुबां के जायके

इंतज़ार करते हैं निवालों का

कोई कुछ नहीं कहता

मगर डरता है

सन्नाटों से ……और धमाकों से

अब भी

उसूलों के लिए लड़ी जा रही जंग में

कोई उसूल बचा नहीं रह गया

चीखें ………………..नहीं

सिसकियाँ ……………..नहीं

मरती सांसें …………..नहीं

लाशें …………………….नहीं

कफ़न …………………….नहीं

क़ब्रिस्तान………………..

क्या सच है

यही कि उस पार

डूब जाता है सूरज

हर रोज़

गहरे काले स्याह अँधेरे

चट्टानों की मानिंद

खड़े हो जाते हैं

मरी हुई उमीदों को सीने में दबाए …….भरी हुई आँखों में

Share and Enjoy !

Shares

Related posts

Leave a Comment