नए वर्ष की पहली सुबह जैसा

अमिताभ दीक्षित ,लिटरेरी एडिटर-ICNग्रुप

चीखने लगता हो वक़्त

खामोशी की दीवारों पर दस्तक देते देते

पर दिलों का सन्नाटा फिर भी न टूटता हो

शोर इतना कि सब कुछ उसी में समाने लगे

फिर भी कानों में बजती रहे सीटियां

बंद हो जाए बादलों में आकारों का बनना

दृष्टि होती जाए क्षीण

और गंतव्य दूर और दूर नज़र आए

खुली रहें फिर भी शून्य में ताकती आंखें

हवा में ज़रा भी खुशबू बाकी ना रह जाए

फेफड़े भी करने लगे इनकार

कुछ भी अपने भीतर समेटने से

फिर भी चलती रहे सांसे

क्यों चलती रहे सांसे

खुले रहे मुंह

चबा लेना चाहे वो सब कुछ जो सामने हो

पृथ्वी इतनी गर्म या ठंडी होने लगे

कि छूकर भी महसूस न हो सके

सतह इतनी कठोर

कि नजदीक जाकर लौट आए उंगलियां

तो क्या कुछ बचा रह जाता है ……..

शायद वह शाश्वत निश्छलता

जो धीरे से फैल जाती है होठों पर

और खेलने लगती है उसके सपनों में

जो अभी अभी जन्मा है धरती पर

नए वर्ष की पहली सुबह जैसा

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