उर्दू शायरी में ‘आसमान’ : 2

तरुण प्रकाश श्रीवास्तव, सीनियर एग्जीक्यूटिव एडीटर-ICN ग्रुप

आखिर यह आसमान है क्या? सुनते हैं – दिन को नीला, रात को काला और कभी-कभी अपनी ही मनमर्ज़ी से रंग बदलने वाला यह आसमान सिर्फ़ एक फ़रेब भर है।

विज्ञान कहता है कि आसमान, आकाश, नभ, गगन, अंबर, फ़लक, अर्श या आप उसे जो भी कहते हैं, शून्य मात्र है। शून्य अर्थात ज़ीरो अर्थात कुछ भी नहीं। शून्य का कहीं कोई अस्तित्व नहीं होता लेकिन हमें तो सर के ऊपर इतना बड़ा आसमान दिखाई देता है जिसका न कोई ओर है न कोई छोर। जो दिखता है, वह है नहीं और जो है नहीं, वह हमेशा दिखता है – आखिर यह कैसी पहेली है? जो चीज़ है ही नहीं- क्या वह इतनी खूबसूरत हो सकती है? भोर का आसमान, प्रातः काल का आसमान, दोपहर का अासमान, सूरज के डूबने के समय का आसमान, रात में तारों से भरा आसमान, बारिश के समय का बादलों से भरा आसमान, सर्दियों में कोहरे में ठिठुरता आसमान – इतने अलग-अलग रूप – इतने अलग-अलग रंग – और उस पर यह स्थापित तथ्य कि आसमान तो है ही नहीं।

चलिये, मान लिया कि आसमान कुछ भी नहीं तो हमारी दुआयें कहाँ जाती हैं, हमारी प्रार्थनाओं का गंतव्य क्या है और … और हम स्वयं भी इस धरती पर अपना कार्यकाल पूरा करके कहाँ चले जाते हैं? आखिर यह जन्नत कहाँ है, यह स्वर्ग किधर है और ये सूरज, चाँद सितारे किसके दामन में टँके हुये हैं? हमारे माज़ी की तस्वीरें कौन चुरा ले जाता है, हमारी आवाज़ें कहाँ चली जाती हैं, समय किधर से आता है और फिर किधर चला जाता है? आखिर हमारी दुनिया में ज़िन्दगी कहाँ से आती है? आखिर हमारी मौत हमारी दुनिया से हमें कहाँ ले जाती है?

एक आसमान न होने से ढेर सारे सवाल खड़े हो जाते हैं। कितनी जटिलताएं हमें चिढ़ाने लगती हैं और बुद्धि और विवेक पर कितने ही भ्रम की घटायें छा जाती है। कितना आसान होता है कि जब कुछ समझ से परे हो तो उसे आसमानी शय करार दे दिया जाये और अपना पल्ला झाड़ लिया जाये लेकिन आसमान न होने से तो कुछ भी संभव नहीं।

मुझे तो लगता हेै कि आसमान अवश्य है वरना हमारे हज़ारों शायरों कवियों ने उसके सदके न किये होते, उसकी शान में क़सीदे न पढ़े होते। न जाने क्या-क्या देखा है उन्होंने आसमान में। हमारा ईश्वर, हमारा खुदा भी आसमान में ही है, हमारी आशायें और हमारी उम्मीदें भी आसमान में ही हैं और हमारी बरक़त और हमारे लिये क़हर, दोनों आसमान से ही आते हैं। कभी आपने सोचा है – जब आसमान नहीं होगा तो हमारी धरती कितनी अकेली रह जायेगी? हमारी दुनिया की छत हमेशा के लिये खो जायेगी और हमारे सिर कितने नंगे रह जायेंगे?

कितना दिलचस्प होगा उर्दू शायरी के यूनिकोन घोड़े से आसमान तक पहुँचना और शायरों की निगाह से वो हसीन मंज़र देखना जो हमारी हक़ीक़ी नज़र से देख पाना हर्गिज़ नामुमकिन है। तो आइये, आपके साथ शुरू करते हैं दुनिया का यह सबसे खूबसूरत सफ़र – उर्दू शायरी में ‘आसमान’।

जौन एलिया का वास्तविक नाम सैयद हुसैन जौन असग़र था और उनका जन्म 14 दिसंबर 1931 अमरोहा (उत्तर प्रदेश) में हुआ और देश के विभाजन के लगभग दस वर्ष बाद उन्हें कराची, पाकिस्तान जाना पड़ा। वहाँ उन्होंने एक उर्दू पत्रिका इंशा निकाली। ‘यानी’, ‘गुमान’, ‘लेकिन’, ‘गोया’, और ‘शायद’ उनकी प्रसिद्ध पुस्तकें हैं। जौन एलिया अपने अपारंपरिक लहजे के कारण सदैव सुर्ख़ियों में रहे और उन्होंने उर्दू शायरी में अपना एक नया मुक़ाम बनाया और शायरी को भी एक नयी सोच और दिशा प्रदान की। उनकी मृत्यु 8 नवंबर 2002 को कराची में हुई। जौन एलिया सिर्फ़ एक शायर ही नहीं थे बल्कि उन्होंने साबित किया कि बदलते वक़्त के साथ शायरी के अंदाज़ कैसे बदलते हैं। आसमान पर उनका यह मशहूर शेर वक़्त से जूझते इंसान की ईश्वरीय आशाओं की ओर इशारा करता है –

“यूँ जो तकता है आसमान को तू,
कोई रहता है आसमान में क्या।”

हमदम कशमीरी श्रीनगर काशमीर के शायर हैं। उनका जन्म वर्ष 1932 में हुआ और 27 दिसंबर, 2018 में हुआ। वे यूनिवर्सिटी अॉफ काशमीर के वाइस चांसलर थे। उर्दू को उन्होंने 50 से अधिक पुस्तकें दी है जिनमें उनके मशहूर दीवान ‘धूप लहू की’ और ‘वर्क़-ए-सदा’ भी शामिल हैं। धरती पर मौसम आसमान से ही आते हैं। वे कहते हैं-

“बदले हुए से लगते हैं अब मौसमों के रंग,
पड़ता है आसमान का साया ज़मीन पर।”

अनवर सदीद का जन्म 4 दिसंबर 1928 को हुआ और 20 मार्च, 2016 को उनकी मृत्यु हुई। उनका मूल नाम मोहम्मद अनवारुद्दीन था। वे सरगोधा, मुल्तान (पाकिस्तान) के निवासी थे। वे ख्यातिप्राप्त पाकिस्तानी आलोचक, शोधकर्ता, शायर और कॉलम लेखक; ‘उर्दू अदब की तहरिकें’ और ‘उर्दू अफ़साने में देहात की पेशकश’ के अलावा दर्जनों अहम किताबों के लेखक हैं। उन्होंने कई महत्वपूर्ण समाचारपत्र और साहित्यिक पत्रिकाओं को सम्पादकीय सहयोग दिया है। आसमान पर उनका यह खूबसूरत शेर देखिये –

“ज़मीं का रिज़्क़ हूँ लेकिन नज़र फ़लक पर है,
कहो फ़लक से मिरे रास्ते से हट जाए।”

शहज़ाद अहमद का जन्म 16 अप्रैल,1932 में भारत के अमृतसर में हुआ और देश के विभाजन के बाद वे पाकिस्तान चले गये और लाहौर के बाशिंदे हो गये। 1 अगस्त, 2012 में उनका निधन हो गया। ‘अधखुला दरीचा’ उनका दीवान है। अ‍ासमान यानी फ़लक पर उनके कुछ खूबसूरत अशआर का लुत्फ़ लेते हैं –

“उट्ठी हैं मेरी ख़ाक से आफ़ात सब की सब,
नाज़िल हुई न कोई बला आसमान से।”

एक शेर यह भी –

“फ़लक से घूरती हैं मुझ को बे-शुमार आँखें,
न चैन आता है जी को न रात ढलती है।”

और एक शेर यह भी –

“पैकर-ए-गुल आसमानों के लिए बेताब है,
ख़ाक कहती है कि मुझ सा दूसरा कोई नहीं।”

ज़फ़र इक़बाल का जन्म 27 सितंबर, 1933 को अविभाजित भारत में जन्मे और वर्तमान में वे पाकिस्तान के लाहौर शहर में रहते हैं। वे आधुनिक ग़ज़ल के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उन्होंने उर्दू शायरी में विभिन्न प्रयोग किये और पुरातन शायरी में एक नया संसार घोल दिया। ‘आब-ए-रवाँ’, ‘अब तक’ और ‘ग़ुबार आलूद सिम्तों का शुमार’ उनके चर्चित दीवान हैं। आसमान से बरक़त भी आती है और कहर भी – ऐसा दुनिया वालों का विश्वास है। आसमानी कहर को भी कितनी खूबसूरती से बयां करता है उनका यह शेर –

“वो क़हर था कि रात का पत्थर पिघल पड़ा,
क्या आतिशीं गुलाब खिला आसमान पर।”

उनका यह शेर आदमी के अभिमान और गुरूर के तराजू पर उसे तोलता है –

“‘ज़फ़र’ ज़मीं-ज़ाद थे ज़मीं से ही काम रक्खा,
जो आसमानी थे आसमानों में रह गए हैं।”

शम्सुर्रहमान फारुख़ी का जन्म 15 जनवरी, 1936 को प्रतापगढ़ में हुआ। वे मशहूर शायर तथा उर्दू साहित्य के आला दर्जे के समीक्षक हैं। उनकी साहित्य व समीक्षा की अनेक किताबें मंज़र-ए-आम पर आई है जिनमें ‘कई चाँद थे सरे आसमाँ’ और ‘लफ़ज़-ओ-मानी’ प्रमुख हैं। आसमाँ पर पूरी की पूरी ग़ज़ल मात्र शम्सुर्रहमान फ़ारुख़ी साहब की ही मौजूद है जो आसमाँ को एक नहीं, कई दिलचस्प अंदाज़ से परखती है –

“सुर्ख़ सीधा सख़्त नीला दूर ऊँचा आसमाँ।
ज़र्द सूरज का वतन तारीक बहता आसमाँ॥

सर्द चुप काली सड़क को रौंदते फिरते चराग़,
दाग़ दाग़ अपनी रिदा में सर को धुनता आसमाँ।

दूर दूर उड़ता गया मैं नूर के रहवार पर,
फिर भी जब भी सर उठाया मुँह पे देखा आसमाँ।

जाने कब से बे-निशाँ वो चाह-ए-शब में ग़र्क़ था,
मैं जो उठा हो गया इक दम उजाला आसमाँ।

नाचता फिरता शरर भी नीम शब की गोद में,
दिल-लगी का इक जतन था कुछ तो खुलता आसमाँ।”

बशीर बद्र उर्दू साहित्य के उन चंद शायरों में हैं जिनपर उर्दू शायरी खुद नाज़ कर सकती है। उनका जन्म 15 फरवरी, 1935 में हुआ। मिर्ज़ा ग़ालिब के बाद वही एक ऐसे शायर हैं जिनके सबसे ज़्यादा अशआर आम आदमी की ज़ुबान पर चढ़े। यह शेर उनकी एक बहुत मशहूर ग़ज़ल का है। शायद सारी खूबसूरती आसमान में ही है जो कभी-कभी इस दुनिया में उतर आती है –

“कभी तो आसमाँ से चाँद उतरे जाम हो जाए।
तुम्हारे नाम की इक ख़ूब-सूरत शाम हो जाए॥”

और एक शेर यह भी –

“आसमाँ भर गया परिंदों से,
पेड़ कोई हरा गिरा होगा।”

और यह शेर भी –

“ख़ाक हो जाएगी ज़मीन इक दिन,
आसमानों की आसमानी में।”

क्रमशः

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